कोर्दूला कुजूर:

हमारे यहाँ उरांव आदिवासी समाज में होली का त्यौहार तो नहीं मनाया जाता है, लेकिन उसी दिन अर्थात फागुन पूर्णिमा के दिन ‘फग्गू त्यौहार’ मनाया जाता है। फग्गू त्यौहार का संबंध मौसम के नये फल खाने, फग्गू (फगुवा) शिकार करने और फगुवा काटने के साथ है। मौसम के नये फल-फूल, कंद-मूल, साग, पत्तियां आदि का प्रयोग तब तक वर्जित रहता है, जब तक फगुवा के अवसर पर पहान के द्वारा उन्हें ईश्वर अर्थात धर्मेस के लिए अर्पित करके पवित्र नहीं कर दिया जाता है। 

फागुन महीने में जो समारोही शिकार खेला जाता है उसे फगुवा शिकार कहते हैं। इसके एक महीने बाद कहीं-कहीं विशु शिकार खेला जाता है। इस शिकार के प्रारंभ में, शिकार में सफलता के लिए जंगल के रक्षक बोंगा से विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। इस शिकार में पुरुष वर्ग के सभी सक्षम लोग अपने-अपने परंपरागत हथियार के साथ शामिल होते हैं। लोग अपने-अपने कुत्तों को भी शिकार में ले जाते हैं। शिकारी कतारबद्ध होकर जंगल में छापते चले जाते हैं और कहीं भी जानवर के आहट मात्र से वे सतर्क हो जाते हैं और जानवर को घेरकर मारते हैं। दिन भर के परिश्रम के बाद उन्हें कभी-कभी खरगोश और पक्षियां मिल जाते हैं। शिकार के बाद सफलता के लिए सभी एक साथ जंगल के रक्षक बोंगा को धन्यवाद देते हैं। सभी शिकारी जब शिकार करने के बाद घर लौटते हैं, तो गाँव पहुंचने पर उनका विशेष रूप से स्वागत किया जाता है और सभी के पैर धोए जाते हैं। 

दिन के अन्त में मांस को सबके बीच बांटा जाता है। जानवर को मारने वाले को और ढोने वाले को हिस्सा थोड़ा अधिक मिलता है। जानवर को पकड़ने वाले कुत्ते का हिस्सा उनके मालिक को दिया जाता है। चूंकि यह शिकार कार्यक्रम त्यौहार का ही एक हिस्सा होता है, अतः जिन घरों में सक्षम पुरूष नहीं होते या कोई महिला विधवा है तो उसको भी हिस्सा दिया जाता है, ताकि वो भी गाँव वालों के साथ आनन्द मना सके।

इस त्यौहार का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है फग्गू काटना, छिनना अथवा धाईध काटना। इसमें गाँव के युवा शिकार के दूसरे दिन सेम्बर की डाली काटकर लाते हैं और दूसरे दिन उसे गाँव के फग्गू टांड़ में गाड़ दिया जाता है। उस डाली को फूस और खेर से ढककर कुंबा बनाया जाता है। इसके लिए सभी घरों के छत से खेर निकाल कर लाया जाता है। गाँव के बीमार व्यक्ति भए अपने हाथों, अपने-अपने खेर लाकर फगुवा के चारों ओर खड़े हो जाते हैं। पुजारी द्वारा एक चेंगना (मुर्गी का चूज़ा) को चराकर उस कुंबा में डाल दिया जाता है और पुजारी उस कुंबा में आग लगा देता है। 

जब कुंबा में आग धधकने लगता है तो सभी अपने-अपने खेर को उस आग में झोंक देते हैं और मन ही मन प्रार्थना करते हैं कि जिस तरह खेर आग में जल रही है उसी तरह हमारी सभी बिमारियां जलकर नष्ट हो जाएँ। इसी समय पुजारी अपने बलुआ से एक ही बार में उस सेंबर की डाली को काट देता है और जोर से उद्वेलित करता है कि इस कटी डाली के समान ही विगत वर्ष के सभी बिमारियां और दुःख तकलीफ खत्म हो जाए। बच्चे यहाँ ज्वाला से लकड़ी आदि को जलाकर यह कहते हुए पेड़ों पर फेंकते हैं कि ‘बेस फरबे’ (खूब फल देना)। इसके बाद गाँव के नवयुवा सेमर के शेष टुकड़े को अपने-अपने बलुआ से काटकर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। उरांव लोगों के लिए फग्गू त्यौहार पुराने साल का अन्त और नये साल की शुरुआत भी है।

Author

  • कोर्दुला कुजूर / Cordula Kujur

    कोर्दुला कुजूर आदिवासी एक्टिविस्ट हैं और रांची, झारखंड में रहती हैं। महिलाओं और बच्चों के सवालों पर वह लंबे समय तक काम करते आ रही है और झारखंडी आदिवासी वुमेन्स एसोशियन शुरुआत करने में प्रमुख भूमिका निभाई हैं। साथ ही झारखंडी आदिवासियों के भाषा आंदोलन के सहभागी बनकर कुड़ुख भाषा को बचाए रखने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आयी हैं।

Leave a Reply

Designed with WordPress

Discover more from युवानिया ~ YUVANIYA

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading