छत्तीसगढ़ के बलोदा बाज़ार की होली की पुरानी परंपरा

मंजुलता मिरी:

हमारे यहाँ बलोदा बाज़ार में होली 3 दिन की मनाई जाती है, जिसके पहले दिन होलिका दहन करते हैं। शाम को सब घर से एक-एक टुकड़ा लकड़ी लेकर इकट्ठा करते हैं। जो भी परिवार लकड़ी नहीं देते हैं, उनके घर या बाड़ी से लकड़ी चोरी करके लेते हैं। इस एकत्रित लकड़ी से रात को होली का दहन करते हैं। मेरी दादी ने बताया उनके समय में सुबह होलिका दहन करने की जगह में किसी महिला को देखते थे तो उसे गंदी-गंदी गाली देते थे या उसके साथ संबंध बनाने की बात करके हंसी मज़ाक करते थे। अगर महिला मना करे है तो उसको कसम देते थे गलत संबंध बनाने के लिए। उसके आसपास बकरा, मुर्गी या मुर्गा जो भी दिखता था, वो उसको ले जाते या मार देते। आजकल ऐसा बहुत कम होता है, फिर भी इस डर से  होलिका दहन की अगली सुबह कोई महिला या लड़की या बुजुर्ग महिला घर से बाहर नहीं निकलती है। दादी का कहना था कि होलिका अच्छी महिला नहीं थी, इसलिए उसकी याद में आज भी सभी महिलाओं के साथ गलत व्यवहार किया जाता है। 

होलिका दहन करने के बाद अगली सुबह गाँव के जो मुखिया होते हैं, वह गाँव में पहले ठाकुर देव की पूजा करते हैं। इस पूजा के लिए सभी अपने घर से थोड़ा-थोड़ा चावल और तेल लेकर जाते हैं। पूजा के बाद ही गाँव-घर के लोग अपने घर में पानी भरते हैं या तालाब का पानी छूते हैं। 

होली खेलने से पहले अपने घर में पूजा करते हैं जिसमें चारोली के फूल, आम का फूल, महुआ और उसके फूल की पूजा करते हैं। पूजा करके उस दिए में भूनकर, अपने घर के देवी-देवता को चढ़ाते हैं। इस पूजा के बाद ही महुआ बीनकर घर में लाते हैं और बाकी फल को खाते हैं या छूते हैं। बहुत से लोग तो इसी बात को ज्यादा मानते हैं और होलिका दहन की कहानी नहीं जानते, उनके लिए होली मुख्यतः महुआ व अन्य फल बीनना शुरू करने का त्यौहार है। 

होलिका दहन के अगले दिन गाँव में होली खेलते हैं। होली हर किसी के साथ खेलते हैं, चाहे वे मज़ाक करने के रिश्ते में हो या भाई-बहन का रिश्ता ही क्यों ना हो, सभी के साथ होली खेलते हैं। सभी पर रंग डालते हैं और सामूहिक नाच-गाना के साथ होली खेलते हैं। सबसे पहले अपने घर के देवी देवता को रंग लगाते हैं फिर लोगों को लगाते हैं। हमारे यहाँ 2 दिन तक रंग खेलते हैं और सुबह से लेकर शाम तक नाचते-गाते एक दूसरे के घर जाते हैं होली खेलने। इस महीने से ही नया साल लगा है, ऐसा बोलते हैं।

अब होली बहुत कम लोग खेलते हैं। सोचते हैं कि होली खेलने से अच्छा है कि अपने घर में ही रहें, क्योंकि लोग किसी की बिटिया-बहू के साथ गलत बात करेंगे। उस दिन किसी को कुछ भी बोल देते हैं और कुछ मना करने से लड़ाई-झगड़ा कर लेते हैं। किसी को कुछ बोलने का हक नहीं है, कोई कुछ भी बोले ऐसे सोचते हैं तो होली खेलना बहुत कम हो गया है। ज़्यादातर लोग अपने घर में ही खेलते हैं और बाहर नहीं जाते हैं। बुजुर्ग लोग ही बाहर एक-दूसरे के घर जाकर खेलते हैं। बहुत लोग अब होली के दिन को खुशी का दिन नहीं समझते हैं। 

फीचर्ड फोटो प्रतीकात्मक है।

Author

  • मंजुलता मिरी / Manjulata Miri

    मंजुलता, छत्तीसगढ़ के महासमुंद ज़िले से हैं और सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़ी हैं। वर्तमान में मंजु, दलित आदिवासी मंच के साथ जुड़कर जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों पर काम कर रही हैं।

Leave a Reply