हेमा जोशी:

पर्वतीय क्षेत्र की होली और मैदानी क्षेत्रों की होली में यूं तो बहुत अन्तर नहीं लगता है। होली पूरा देश मनाता है पर मौसम और फसलों के परिपेक्ष में देखने पर यह बहुत बड़े अंतर का आभास कराता है।

उत्तराखंड में होली गायन की परंपरा पूष मास से प्रारम्भ होकर होली के त्यौहार तक चलती है। प्रारम्भ में पौष मास में बैठ होली गायन की परम्परा है। आग जला कर उसके चारों ओर गायक और सुनने वाले होली गायन का रस लेते हैं। यह गायन अधिकांश तह भगवान के भजनों से जुड़ा होता है। यह पतझड़ का मौसम होता है और रातें लम्बी होती हैं। कृषि कार्य इस मौसम में नहीं के बराबर होते हैं। सायं को आग सेकना ही मुख्य कार्य लगता है। ऐसे में होली गायन मनोरंजन का मुख्य साधन होता था।

वसंत के आने पर वसंत पंचमी से होली अपने चरम की ओर बढ़ती है। खड़ी होली प्रारम्भ हो जाती है I दिन बड़े हो जाते हैं। पेड़ों में नए पत्ते उगने प्रारम्भ हो जाते हैं। मैदानों में चने और गेहूं आदि की फसलें कटनी शुरु हो जाती हैं पर पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसा नहीं होता है। हाँ, मौसम की दृष्टि से कहें तो ठंड से राहत होना शुरु हो जाती है। 

पर्वतीय क्षेत्र में भी होली ग्रामीण और शहरी दो तरह की होती है। शहरी क्षेत्रों में बैठ होली की परंपरा अधिक है। इन होलियों में गायक विभिन्न रागों के गायन से श्रोताओं का मनोरंजन करते हैं। परन्तु ग्रामीण होलियां अधिक जनोन्मुखी होती हैं। सभी ग्रामीण जन टोली बनाकर घर-घर जाकर खड़ी होली गाते हैं और गोल घेरे में वाद्य यन्त्रों मुख्यतया ढोल आदि को लेकर अर्धनृत्य मुद्रा में यह होली गायन होता है। यह दृश्य देखने लायक होता है। गृह स्वामी, जिसके घर के आंगन में होली गाई जाती है, वह गुड़ की भेली देकर सभी ग्रामीण जनों में गुड़ बांटता है। ग्रामीण होली में रंगों का व्यवहार बहुत कम होता है। यह बहुत बड़ा अंतर है I तरह-तरह के रंग डालना गोबर, पान, मिट्टी, कीचड़ का प्रयोग पर्वतीय होली में नहीं होता है। इधर कुछ वर्षों से अबीर गुलाल के रूप में रंगों का प्रयोग होने लगा है। होली गायन देवी के थान से प्रारंभ होता है। तथा होली की पूर्वसंध्या पर चीर जलाई जाती है होलिका दहन होता है तथा छलड़ी के दिन देवी के थान पर ही होली के समापन की परम्परा है।

पर्वतीय होली में प्रकृति वर्णन तथा भगवत गायन अधिक है। विभिन्न राग यथा बागेश्वरी, पीलू, राग देश आदि का प्रयोग देखा गया है। पर्वतीय क्षेत्र में गेहूं की फसल चैत्र मास के अन्त तक ही कट पाती है। हाँ, आलू की बुआई कहीं-कहीं प्रारंभ हो जाती है पर भाबर में चना और गेहूं पकना और कटने के लिए तैय्यार हो जाता है।

सही मायने में देखा जाए तो हमारे पहाड़ों में वसन्त आगमन फूलदेई से प्रारम्भ होता है जब हमारी बेटियां इस मौसम में उग आए फूलों से घरों की देहलीज को सजा देती हैं।

फीचर्ड फोटो आभार: ई कुमाऊं

Author

Leave a Reply

Designed with WordPress

Discover more from युवानिया ~ YUVANIYA

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading