अफ़ाक उल्लाह:
मुझे आज भी याद है कि जैसे ही सर्दियाँ आती थी, हम लोग बड़े बक्से से अपने गर्म कपड़े, स्वेटर, टोपी, मफलर और भी बहुत कुछ जो सर्दियों में काम आता है, उसको पूर जोश और खुशी से निकालते थे। छत पर ले जाकर उसको डालते थे। तो शुरुआती सर्दियों की वो हल्की धूप का आनंद लेने के लिए उसी के ऊपर धूप में लेट जाते थे। यह धूप में कपड़ों को सुखाना दो-तीन दिन चलता रहता था। हम लोगों के पास भी पूरा टाइम होता था। उन्हीं ऊनी कपड़ों पर लेट कर हम लोग अक्सर तहड़ी खाते थे। तहड़ी में मटर गोभी आलू और टमाटर होता था, लेकिन उसमे अलग से घी और आचार मिला के खाने का अलग ही मज़ा होता था। खाने के साथ ही हम अपना स्वेटर खोजकर निकालते थे। अब देखा यह जाता था कि कौन से स्वेटर किसको आता हैं। स्वेटर बहुत पसंद हैं, पर इस साल तो नहीं आ रहा है1! जो स्वेटर नहीं आता था, वह स्वतः मेरी दोनों छोटी बहनों का हो जाता था। जो हम भाई बहनों या चाचा के बच्चों को भी नहीं आता था, उन ऊन के बने स्वेटर को अम्मा खोल कर गोला बना लेती थी। ऐसे 8-10 पुराने ऊन के गोले हर साल अम्मा बना लेती थी।
नए ऊन साईकिल पर बेचने वाले अक्तूबर में ही आ जाते थे। कई सारे ऊन बेचने वाले छोटे-छोटे किराए के कमरे लेकर हमारे आस-पास ही रहते थे। वह अपनी साइकिल पर बहुत बड़े ऊन के गट्ठर लेकर निकलते थे। उनको मोहल्ले की महिलाऐं रोक लेती थी। मैं ऊन वाले और महिलाओं की बातें सुनता था। महिलाऐं ऊन वाले से पूछती थी यह ऊन कहाँ का है? ज़्यादातर ऊन बेचने वाले पंजाब के शहरों का नाम बताते थे- जालंधर, लुधियाना, आदि। तो महिलाऐं पिछले साल जो ऊन लिया था उसमें रोंया आया था कि नहीं, इस विषय पर थोड़ी चर्चा करती थी। इस तरह शहरों से जोड़कर ऊन की क्वालिटी को देखा-समझा जाता था। जिन महिलाओं को स्वेटर नहीं भी बुनना आता था, वह भी ऊन खरीदते समय ऊन खरीदवाती थी। जिनको नहीं आता था, उनसे अम्मा लच्छे से गोला बनवाती थी और आस-पड़ोस की लड़कियों-महिलाओं को स्वेटर बुनना भी सिखाती थी। ऐसे में परिवार और आस-पड़ोस की महिलाओं और लड़कियों में ख़ूब दोस्ती भी होती थी।
अब फिर बड़े बच्चे के लिए स्वेटर और टोपी की बुनाई अम्मा करती थी। सब भाई-बहनों में हम बड़े थे, तो नया वाला बुना स्वेटर अम्मा हमारे लिए ही बना देती थी। एक फुल बाजू का स्वेटर बनने में कई-कई हफ्ते लग जाते थे। क्योंकि इसके साथ पूरा घरेलू काम भी तो करना होता था। किसी-किसी साल तो उतरती सर्दियों में नया बुना स्वेटर मिलता था।
कोई भी बढ़िया डिजाइन का स्वेटर, टोपी पहनकर जाता तो, अम्मा उनको रोककर फौरन डिजाइन को उलटकर देखती और जल्दी से डिजाइन कॉपी कर लेती थी। गली में, रेलवे स्टेशन और सफ़र करते हुए ट्रेन में भी कोई बढ़िया नया डिजाइन मिल जाए तो उसको कॉपी करने के लिए फौरन ऊन का गोला और सींख (या सलाई) निकाल कर बुनाई चालू हो जाती थी।
आज भी अम्मा के स्वेटर मेरे पास हैं, जो अब छोटे नहीं होते हैं बस थोड़ा टाइट हो गए हैं। आज से क़रीब 16 साल पहले मेरे एक दोस्त की माँ ने दो स्वेटर अपने हाथ से बुनकर कोरियर के माध्यम से दिल्ली भेजे थे। वह स्वेटर भी मेरे पास हैं। वह आज भी मुझे आ जाते हैं। ऊन के बुने स्वेटर शरीर के हिसाब से फिट हो जाते हैं।
मेरी अम्मा ने स्वेटर बुनना एक पंजाबी महिला से सीखा था, जिनके पति रेलवे स्टेशन जौनपुर में काम करते थे। अम्मा का कहना है कि यह स्वेटर बुनाई का काम पंजाब से ही निकाल कर इधर आया है।
इस साल मैंने साईकिल पर ऊन बेचने वाले को नहीं देखा, ना ही महिलाओं को ऊन के गोले और सींख (या सलाई) के साथ बुनाई करते हुए देखा। हमारी पीढ़ी में किसी ने ऊन से बने समान बनाना नहीं सीखा, हाँ ऑन लाइन शॉपिंग ज़रूर सीखी है। जो चाहिए होम डिलेवरी हो जाता है। नए दौर के लड़के-लड़कियों में अपने घर, आस- पास के परिवेश के कौशल को ना सीखना, ना आना को एक फैशन के तौर पर देखा-समझा जाता है।
मैं बाज़ार और व्यापार की तरफ़ अभी ध्यान नहीं ले जाना चाहता हूँ। पर आपकी आर्ट, स्किल और कार्फ्ट पर जो आपकी पकड़ थी, उसको छोड़ने के बाद भी आपने क्या किया? जो वक्त इन काम में लगता था, जो अपना बनाकर, पहनकर खुशी मिलती थी, वह समय अब कहाँ जा रहा है? क्या नया बना पा रहे हैं? क्या नया सीख रहे हैं? इस पर मुझे भी और आपको भी सोचना चाहिए। हाँ आज भी अम्मा के हाथ में बुनाई की सलाई है,ऊन का गोला है, एक नया मोज़ा बना रही हैं। अभी कोई शागिर्द नहीं है।