कोर्दुला कुजूर:
अंग्रेज़ी शासन काल में छोटा नागपुर में ज़मीनदारी की प्रथा सामाजिक व राजनीतिक रूप से चलन में थी, जिसमें भूमि का स्वामित्व या मालिकाना हक जोतने वाले का न होकर ज़मीनदारों को होता था। ये ज़मीनदार खेती करने वालों से कर की वसूली करते थे। जब सन् 1765 में बिहार, बंगाल और उड़ीसा (वर्तमान में ओडिशा) को इंडिया कंपनी की दीवानी में शामिल कर लिया गया, तब छोटा नागपुर अंग्रेज़ों की आधीनता में आ गया। लेकिन फिर भी इस क्षेत्र में अगले कई सालों तक अंग्रेज़ों का आधिपत्य स्थापित नहीं हो पाया।
सन् 1816-17 में छोटा नागपुर के राजा की दंड शक्ति हमेशा के लिए समाप्त कर दी गई। निरंतर जारी विद्रोहों के कारण मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के अधीन यहाँ प्रत्यक्ष शासन की स्थापना हुई। इतिहास बताता है कि छोटा नागपुर में जितने भी आन्दोलन हुए, वह अंग्रेज़ों और उनके द्वारा नियुक्त ज़मीनदारों, इलाकेदारों और ठेकेदारों द्वारा मनमानी कर वसूली को लेकर ही थे। पूरे छोटा नागपुर इलाके के आदिवासियों पर 35% तक लगान बढ़ा दिया गया था। सड़कों के निर्माण जैसे काम और बिटिश सरकार के अन्य काम बिना किसी मज़दूरी के बेगारी में ही करवाए जाते थे। लोग खुद अपनी ही ज़मीन में मज़दूरी कर रहे थे, इसके बदले उन्हें कोई पैसा (पगार) नहीं मिलता था।
ऐसे समय में अपनी ज़रूरतों के लिए, उन्हें महाजनों से रुपया अथवा अनाज उधारी में (ऋण के रूप में) लेना पड़ता था। वे लोग आदिवासियों से साल में 70% या कभी-कभी इससे भी ज़्यादा धन वसूलते थे। इसके अलावा सलामी में प्रति गाँव एक रुपया और खस्सी या मुर्गा भी ले लिया करते थे। इतना ही नहीं, वे कई तरह से वहाँ के लोगों को सताते तथा महिलाओं और बच्चों पर भी अत्याचार करते थे। आदिवासियों की सारी ज़मीन उनके हाथों से धीरे-धीरे निकलती जा रही थी। इन सब से परेशान आदिवासियों का गुस्सा उनके अंदर ही अंदर भड़क रहा था। वे अंदर ही अंदर उलगुलान की तैयारी करने लगे।
आंदोलन की चिनगारी भड़क उठी और यहाँ कई बड़े विद्रोह हुए, जिसमें 1766 का पहाड़िया विद्रोह, 1784 में तिलका मांझी के विद्रोह से लेकर 1831-32 का विद्रोह, 1855 का संताल-हूल विद्रोह, 1857 का सिपाही विद्रोह, बिरसा उलगुलान तथा जतरा भगत के टाना आन्दोलन तक लम्बी लड़ाई चली। इस दौरान अंग्रेज़ों, ज़मीनदारों महाजनों के शोषण और अत्याचार ने बड़ी संख्या में आदिवासियों को चाय बगान जाने पर मजबूर किया। इस दौरान मौसम की मार और भूख-प्यास तथा बीमारी के कारण लगभग 50 हज़ार आदिवासी काल के गाल में समा गए।
अंग्रेज़ों ने सन 1840 में सर्वप्रथम झारखंड से ही मज़दूरों को असाम ले जाना शुरू किया, जब अंग्रेज़ों ने पहली बार चीन से पौधा मंगाकर चाय की खेती रूपंग, और टिपंग नामक स्थान में शुरू की थी। चीन से जो मज़दूर लाये गए थे, वे यहाँ के मौसम में टिक नहीं पाये थे। जिन्हें झारखंड से लाया गया था, उसमें एक हज़ार से भी अधिक मज़दूर थे। उनमें से भूख-प्यास और बीमारी इत्यादि के कारण रास्ते में ही आधे से अधिक लोग मारे गए, फिर भी उनके जाने का सिलसिला नहीं रुका। 1850 के दशक में लोग और अधिक संख्या में असम गए। फिर 1890 के दशक में भयंकर अकाल पड़ा। इस दौरान लोगों के झुंड के झुंड यहाँ से कोड़ा राजी पलायन कर गए।इसी भांति बहुत सारे लोग इस दौरान अंडमान निकोबार (टापू) भी गए।
आज असम और पश्चिम बंगाल में उरांव, संताल, मुण्डा और खड़िया आदिवासियों की संख्या लाखों में है। आज वहाँ उनकी स्थिति अच्छी नहीं है, पं. बंगाल के कई बगान बंद हो चुके हैं। लोग जीने के लिए अपने घरों में ही चाय तैयार करते हैं और बहुत सस्ते दामों में बेच देते हैं। यूरोपीय लोगों ने औपनिवेशिक काल में जैसे अफ्रीका, एशिया और लेटिन अमेरिका के मूल निवासियों को अपने स्थान से विस्थापित कर दास बनाया गया था, उन्हीं दासों जैसी स्थिति कुछ-कुछ चाय बगान मज़दूरों की आज भी हैं। कम्पनी द्वारा उन्हें जो क्वाटर (घर) दिया गया था, उस पर उनका मालिकाना हक नहीं है। वे वापस लौटकर न जाएं, इसके लिए उन्हें थोड़ी बहुत खेती के लिए जो ज़मीन दी गई थी, उसका भी आज तक रैयती हक उन्हें नहीं मिल सका है। आज वे खुद को जड़ों से उखड़ा हुआ महसूस कर रहे हैं, और उनकी पहचान चाय बगान कुली के रूप में बन गई है। आज भी उन्हें आदिवासी का दर्जा नहीं मिल पाया है। आज वे टी ट्राइब्स के नाम से जाने जाते हैं। असम में उनकी संख्या लगभग 40 लाख और प. बंगाल में 9 लाख 70 हज़ार 8 सौ इकसठ (9,70,861) है।