यह कविता पावरी भाषा में लिखी गयी है। यह भाषा पश्चिम मध्य प्रदेश और उससे लगे महाराष्ट्र के भील, पावरा आदिवासियों द्वारा बोली जाती है।
शहरों या संपन्न इलाकों के खेतों में मज़दूरी करने, अपने गाँव को छोड़कर जाना। पूरे परिवार के साथ, साल का अधिकतर समय वहीँ बिताना, आदिवासियों के जीवन का आज का यथार्थ यही है।
जीने के लिए देश निकल गए। पीछे रह गए वीरान गाँव की विरानगी का मार्मिक वर्णन कवि ने इस कविता में किया है।
संतोष पावरा:
किड़ावन दारोन होच
निकावी गोया बोठा
गाव ओय गयो हुनो हुनो
होगा, जुडीदार
जीवणेह होया देसोम
गाव मोट्यानहोच सानसून
कुत्रा ओतरा बुकताह
पाकला पाने उदरताह
मादला माणहे रोडताह
‘कुणी हाते वातु करो
कुणी हाते खेलो?’
ढुल पावी काहरी होमवो?
गीते काहरी गावतला नी
गट्टी सूर दरतली नी
मुहवो काणी कोयतो नी
विहरायहोत संस्कृती
विहरायहोत इतिहास, ते
गोण काठा दिहे आवहोत
गोण काठा दिहे आवहोत
जिस्ट –
जैसे चींटियाँ अपने बिल से निकलती हैं,
सारे लोग निकल गए
गाँव हो गया सूना-सूना,
‘देश’ में निकल कर जीना पड़ेगा
गाँव सुनसान हो गया।
केवल कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आती है।
सूखे पत्ते झड़ रहे हैं, बीमार लोग रो रहे हैं..
किसके साथ बात करें? किसके साथ खेलें?
ढोल और बांसुरी की आवाज़ कहाँ जाकर सुनूँ?
कोई गीत क्यूँ नहीं गा रहा,
हाथ की चक्की से अनाज पीसने की
आवाज़ क्यों नहीं आ रही है?
मुँह कहानी कहता क्यूँ नहीं?
भूल रहे हैं अपनी संस्कृति,
भूल रहे हैं इतिहास,
तो बहुत कठिन दिन आने वाले हैं,
बहुत कठिन दिन आने वाले हैं.
‘ढोल’ कविता संग्रह से.