महिपाल मोहन:
इस साल अप्रैल माह की शुरुआत में मुझे उत्तराखंड के पिंडारी ग्लेशियर के पास के खाती और बाछम गाँव में जाने का मौका मिला। वहीं बागेश्वर ज़िले के कपकोट ब्लॉक के अंदर मौजूद है तल्ला दानपुर मला दानपुर, जिसे भारत का अंतिम गाँव भी कहा जाता है। बागेश्वर से 4 से 5 घंटे सड़क मार्ग से जाने के बाद लगभग 5 किमी की पैदल यात्रा करके हम वहाँ पहुंचे। पिण्डारी ग्लेशियर मार्ग पर स्थित खाती गाँव एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ आज के समय में भी मोबाइल का नेटवर्क नहीं आता है।

यहाँ के लोग एक दूसरे से वॉकी-टॉकी से संपर्क करते हैं, और ज़रूरी सूचना एक गाँव से दूसरे गाँव तक देते हैं। गाँव के लोगों ने बताया कि 2022 के विधानसभा चुनाव के समय इस क्षेत्र में पहली बार एक भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) का टावर लगाया गया। लेकिन उसके बाद भी हफ्ते में 1 से 2 ही दिन नेटवर्क बमुश्किल आ पाता है। फिर भी पूरे क्षेत्र के अधिकतर युवा गाँव में ही मौजूद थे। मेरे लिए यह आश्चर्यजनक बात थी, क्योंकि जहाँ एक ओर पूरे राज्य भर में लगातार पलायन हो रहा है, वहीं इसके उलट इस गाँव के युवा गाँव में ही रहकर आजीविका चला रहे हैं। आखिर कैसे? मन में सवाल उठना लाजिमी भी है कि इतना दुर्गम क्षेत्र होने के बाद भी अधिकतर युवा गाँव में क्यों और कैसे मौजूद हैं?
स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चला कि इस गाँव के पास आजीविका के लिए खेती के साथ-साथ पर्यटन और दूसरी सबसे महत्वपूर्ण जो चीज़ मौजूद है वह हैं इनके गाँव की वन पंचायत “इनके अपने जंगल”। जंगल न केवल जंगली पशु-पक्षियों, कीट पतंगों को बल्कि इनके आस-पास बसे इन्सानों को भी पालते आए हैं और आगे भी पालते रहेगे। पिंडारी ग्लेशियर के इस भू-भाग के लोग इन्हीं जंगलों के बूते पीढ़ियों से अपनी आजीविका चलाते आए हैं। इस पूरे क्षेत्र में कई तरह की जड़ी-बूटियां जैसे बाल जड़ी, हथा जड़ी, कीड़ा जड़ी, अतीस, गोकुल धूप, वन तुलसी और अनेक तरह की वन संपदा मौजूद है। साथ ही रिंगाल (बांस की एक प्रजाति) से बनने वाले सामान जैसे- टोकरी, सूप और चटाइयाँ भी यहाँ के कई काश्तकार बनाते हैं।
ग्लेशियर होने के कारण गर्मियों के समय पर्यटक भी यहाँ आते हैं। कई छोटे-छोटे होम-स्टे और गेस्ट हाउस से लेकर ट्रैकिंग तक का काम यहाँ होता है। स्थानीय युवा इस मौसम में गाइड का काम करते हैं, साथ ही पास के बाछम गाँव के लोग घोड़ों और खच्चरों के द्वारा सामान ढोने का काम भी करते हैं, जिस कारण इन सभी की जीविका एक दूसरे से जुड़ी हुई है।

गाँव जो हमेशा ही खूबसूरत होते हैं हर कोई उसे देखना और महसूस करना चाहता है। लेकिन उसे जीवंत रखते हैं वहाँ के लोग, खत तौर पर युवा पीढ़ी। जैसे कोई भी घर बिना बच्चों के सुनसान लगता है, ठीक उसी तरह गाँव भी बिना युवाओं के वीरान पड़ जाते हैं। आज उत्तराखंड की स्थिति भी कुछ इसी तरह की हो चुकी है। युवाओं की आबादी धीरे-धीरे गाँवों से घटती जा रही है, कुछ बेहतर जीविका की तलाश में तो कुछ बेहतर शिक्षा या स्वास्थ्य के लिए गाँव छोड़ रहे हैं। बचे लोग जो सरकारी संस्थानों में कार्यरत है, वह भी आज अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए राज्य के मैदानी (तराई) क्षेत्रों या देश के महानगरों की ओर दौड़ रहे हैं।
लोग पलायन क्यों करते हैं? यह भी समझना जरूरी है। खासकर हमारे पहाड़ी इलाकों में केवल कृषि, वहाँ रहने वाले सभी लोगों को रोज़गार प्रदान नहीं कर पा रही है और विकास में असमानता भी लोगों को ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों में जाने के लिये विवश करती है। साथ ही शैक्षणिक सुविधाओं की कमी, बेहतर स्वास्थ्य और बेहतर चिकित्सा सुविधाओं की कमी भी पलायन का बड़ा कारण है। कई क्षेत्रों में जातीय संघर्ष के कारण भी लोग अपने घरों से दूर चले जाते हैं। गरीबी और रोज़गार के अवसरों की कमी लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिये प्रेरित और मजबूर करती है। आज के समय में जलवायु परिवर्तन से दिन प्रति दिन बदतर होती खेती के कारण भी ग्रामीण लोग शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं।
उत्तराखंड पलायन आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड से करीब 60 प्रतिशत आबादी यानी 32 लाख लोग अपना घर छोड़ चुके हैं। पलायन आयोग की रिपोर्ट कहती है कि 2018 में उत्तराखंड के 1700 गाँव भुतहा हो चुके हैं, जबकि करीब 1000 गाँव ऐसे हैं जहाँ 100 से कम लोग बचे हैं। कुल मिलाकर 3900 गाँवों से पलायन हुआ है। पलायन आयोग की पहली रिपोर्ट के अनुसार 2011 में उत्तराखंड के 1034 गाँव खाली थे।
साल 2018 तक 1734 गाँव खाली हो चुके थे, राज्य में 405 गाँव ऐसे थे जहाँ 10 से भी कम व्यक्ति हैं। अकेले पौड़ी ज़िले में 300 से ज्यादा गाँव खाली थे। इस रिपोर्ट के अनुसार केवल अल्मोड़ा जिले से ही 70 हजार लोगों ने पलायन किया है। किसी भी राज्य की ताकत जिसे माना जाता है वो हैं युवा, और उत्तराखंड में पलायन करने वालों में 42.2 फीसदी युवा है।
जब ब्रिटिश भारत में आए तो वह धीरे-धीरे पूरे देश भर में फैले, और ठंडे स्थानों जैसे मसूरी, नैनीताल, शिमला, दार्जिलिंग, रानीखेत को अपने आशियानों के तौर पर चुना और विकसित किया। इस गाँव में भी ब्रिटिश समय का एक डॉक बंगला मौजूद है जो 1890 का बना हुआ है। अब इसे पीडब्ल्यूड़ी के गेस्ट हाउस के नाम से जाना जाता है। बागेश्वर से पिंडारी तक ब्रिटिश समय में ही एक पैदल मार्ग बनाया गया था जिसके कुछ हिस्से इस क्षेत्र को लोगों और पर्यटकों की आवाजाही के लिए अभी भी कहीं कहीं पर मौजूद हैं।
एक स्थानीय युवा लोकपाल बताते हैं कि गर्मी के मौसम में जब बर्फ पिघलती है तो हम सब इन बुग्यालों में जड़ी-बूटी खोजने के लिए जाते हैं जिससे एक व्यक्ति इन दो महीनों में लगभग 60 से 80 हजार रुपये तक की जड़ी इकट्ठा कर लेता है। जिस घर में जितने अधिक सिर (लोग) होंगे उनकी कमाई भी अधिक होती है। इस कारण भी गाँव के जो युवा काम के लिए या उच्च शिक्षा पाने के आसपास के शहरों या अन्य राज्यों में जाते हैं, वो सभी इस समय छुट्टी लेकर वापस गाँव आ जाते हैं। यहाँ के कुछ लोगों का पलायन भी बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की तरह मौसमी पलायन होता है। ये लोग कुछ समय के लिए मैदानी या किसी अन्य राज्य में मज़दूरी या किसी निजी कम्पनी में काम करने चले जाते हैं और कुछ समय के बाद वापस अपने गृह क्षेत्र लौट आते हैं। यहाँ भी कुछ ही युवा यह सीजनल पलायन करते हैं।
किसी भी क्षेत्र के लिए मुख्य सड़क से जुड़ना उस क्षेत्र के लिए ज़रूरी माना जाता है, क्योंकि उससे क्षेत्र में खासकर शिक्षा और स्वास्थ्य यातायात में कुछ सहूलियत ज़रूर मिल जाती है। आज बाछम से खाती गाँव को भी मुख्य मार्ग से जोड़ा जा रहा है। ब्रिटिश काल का ये पैदल मार्ग आज एक सड़क का रूप ले चुका है। लेकिन कई बार हम उसके दूसरे खतरों को नज़रअंदाज कर देते हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर से लगता है कि आने वाले समय में इस क्षेत्र के लोगों के कई रोज़गार के साधन खत्म हो जाएंगे, खासकर बाछम गाँव के। आने वाले समय में जब पर्यटक सीधे अपने साधनों से खाती गाँव पहुंचने लगेगा तो इन गाँव के लोगोन का घोड़ों खच्चरों के द्वारा पर्यटकों का सामान लाने या लेजाने का काम खत्म हो जाएगा।

वर्तमान समय में बागेश्वर से बाछम तक ही सड़क मार्ग है तो इस क्षेत्र के युवा अधिकतर पिंडारी जाने वाले पर्यटकों का सामान खाती गाँव तक घोड़ों और खच्चरों के द्वारा छोड़ने का कार्य करते हैं। अन्य समय खेती और होम स्टे, छोटे-छोटे होटल चलाकर अपनी आजीविका चलाते हैं।
आज जब हम समूचे उत्तराखंड में देखें तो कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ इस तथाकथित विकास के बाद बाहरी या शहरी पूंजीपतियों की तादात बेतहाशा ढंग से बढ़ी है। आज आप कुमाऊं क्षेत्र के नैनीताल जिले के मुक्तेश्वर ब्लॉक में ही देख सकते हैं कि पूरे पहाड़ पर होटल और रेसोर्ट की बाढ़ सी आ गई है। स्थानीय लोग अपनी ज़मीन बेचकर उनके ही होटलों, बाग, बगीचों में नौकरी कर रहे हैं। नई युवा पीढ़ी का शहरों को पलायन बढ़ा है। आज शिक्षित युवक-युवतियाँ का ग्रामीण जीवन को छोड़कर शहरी चकाचौध की ओर दिन प्रति दिन आकर्षण बढ़ता जा रहा है।
हाल के दिनों में एक फिल्म ‘लुनाना : ए याक इन द क्लासरूम’ देखी, जो भूटान के एक छोटे से गाँव की कहानी है। इस फिल्म का एक युवा किरदार सरकारी स्कूल का अध्यापक है, जिसकी ख्वाहिश है कि वह एक सिंगर बने, जिसके लिए वह अपने दोस्तों और दादी को छोड़कर दूसरे शहर में जाकर रहेगा। लेकिन एक कांट्रेक्ट के कारण उसे एक साल के लिए लुनारा पहाड़ी में बसे घुमंतू समुदाय के एक छोटे से गाँव में बच्चों को पढ़ाने के लिए जाना पड़ता है। इसके बाद उस युवा के जीवन में एक बड़ा बदलाव शुरू होता है, वह गाँव में रहकर बच्चों को शिक्षित करता है, और साथ ही उनके गीत-संगीत और रहन-सहन को सीखता है।
यह एक कहानी मात्र नहीं है, आज भी देश में ऐसे गाँव हैं जहाँ के लोगों का शहर और बाज़ार से दूर-दूर तक का नाता नहीं है। भले ही वहाँ मोबाइल फोन, बिजली जैसी आधुनिक तकनीक आज भी मौजूद ना हो, लेकिन उस समाज के लोगों के जीवन जीने की व्यवस्था आज की शहरी समाज से बेहतर है, वहाँ चकाचौंध की जिंदगी ना हो, लेकिन वहाँ के संगीत में एक मिठास है एक खूबसूरत ठहराव और उसकी अपनी कहानियां है। उनकी अपनी जीवन को जीने की संस्कृति है। जो आज भी हमें अपने देश के आदिवासी समाज, पहाड़ी और घुमंतू समाज में देखने को मिलेगी।
अगर खाती और बाछम जैसे गाँवों की बात करें तो यहाँ के लोगों के लिए अभी के समय सबसे बड़ी चुनौती वन विभाग के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय लोगों की स्वायत्तता और हक़ हुकूकों को नज़रअंदाज़ करते हुए उनकी प्राकृतिक संपदा को लूटने की कोशिश है जिसके लिए वन विभाग व सरकार हर तरह के हथकंडे अपना रही है। हाल ही में वन विभाग द्वारा कई स्थानों पर टूरिज्म के नाम पर लोगों से प्रति व्यक्ति एक सौ रुपया प्रवेश शुल्क वसूलना शुरू हुआ है रख-रखाव के नाम पर, जिसका कोई भी प्रबंधन विभाग के द्वारा नहीं किया गया है। इसे लेने का कोई भी अधिकार वन विभाग के पास नहीं है। जिसको लेकर स्थानीय लोगों में आक्रोश भी है। इस कारण टूरिस्ट भी इन इलाकों में आने से बच रहा है।
लोगों की स्थानीय वन उपज के उपयोग पर भी पाबंदी लगा रहा है जिस कारण लोगों की आजीविका पर धीरे-धीरे गंभीर असर पड़ रहा है। समय रहते अगर लोग जागरूक नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब वन विभाग इन जंगलों से मिलने वाली प्राकृतिक संपदाओं पर नियंत्रण हासिल करके किसी कंपनी को ठेके पर दे देगा और अपने ही जल-जंगल-ज़मीन से लोगों को दूर होना पड़ेगा जैसा पूरे देश में देखा जा रहा है। ये सोचनीय विषय है कि क्या आने वाले समय में खाती और बाछम जैसे गाँव इस कॉर्पोरेट परस्त व्यवस्था से अपना अस्तित्व बचाए रख पाएंगे।
फीचर्ड फोटो आभार: महीपाल सिंह