दीपक रंजीत:
अभी झारखंड में बांदना सोहराई पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। तो आइये आज हम लोग बांदना सोहराई पर्व के बारे में जानते-समझते हैं। बांदना परब या सोहराय परब भारत के झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम और ओडिशा राज्यों में आदिवासियों द्वारा मनाए जाने वाले महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। यह कार्तिक की अमावस्या तथा कुछ जगहों में यह जनवरी माह के दौरान प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
फोटो और वीडियो आभार : जगदीश महतो
बांदना सोहराय त्योहार हिंदू और आदिवासी कृषक समुदायों जैसे संथाल, भूमिज, मुंडा, बागल, कुड़मी और महतो आदि द्वारा मनाया जाता है। इस कृषक त्योहार के दौरान मवेशियों की पूजा की जाती है। त्योहार के कुछ दिन पूर्व से ही महिलाओं द्वारा घरों की मरम्मती जैसे मिट्टी, गोबर, रंग-रोगन आदि किया जाता है। गाँव की महिलाएँ दूर-दूर से कई प्रकार की मिट्टी लाकर अपने घरों की रंगाई-पुताई करती हैं एवं कई प्रकार की चित्राकंन कला का प्रदर्शन भी अपने मकानों के दीवारों में करती हैं। कार्तिक माह के अमावस्या से 5, 7 या 9 दिन पूर्व से ही अपने घर की पशु जैसे गाय, बैल, भैंस आदि की सींग में तेल लगाया जाता है एवं घंटी या सजावट की वस्तुएँ भी बैल-भैंस को बांधा जाता है। सहराय परब मुख्य रूप से 5 दिनों तक बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है।
पहला दिन
पहले दिन सभी किसान अपने अपने बैल भैंस को नदी-तालाब आदि जगहों में ले जाकर नहलाते हैं अर्थात उन्हें धोया जाता है, इसलिए इस दिन को धउआ या कहीं-कहीं घाउआ के नाम से जाना जाता है।
दूसरा दिन
इस दिन पूरे गाँव के लोग घर-आंगन की लिपाई करते हैं और शाम के पहले ढोल-नगाड़ा आदि वाद्य यंत्र लेकर अपने नया/पाहान के साथ गठइर अर्थात पूरे गाँव के बैलों को जहाँ विश्राम हेतु कुछ समय के लिए इकट्ठा कर रखा जाता है, उस जगह में जाकर ‘गठ पूजा’ करते है। गाँव के चरवाहे लोग जो गाय-भैंस आदि वन जंगल में चराने के लिए जाता है, वे लोग लकड़ी का पेइना काट के लाता है और गठ पूजा थान में बैठता है और नया/पाहान द्वारा पूजा सेंउरन करवाता है। इससे सालों भर वह अपने बैलों की रक्षा कर पाता है। ऐसा माना जाता है कि उस पइना को हाथ में रखने से सभी प्रकार के अपसकुन से वन-जंगल आदि में रक्षा होती है।
गाँव के प्रत्येक घर जिसके यहाँ गाय दूध देती है वह अवश्य ही दूध लेकर पहुँचता है और उसी दूध मे आरूआ चावल, गुड़ आदि देकर प्रसाद तैयार करा जाता है और चढ़ाया जाता है। इसे ‘जुड़ी’ कहा जाता है। गठ पूजा में मुर्गा की बलि भी दी जाती है। इसमें सफेद मुर्गा का विशेष महत्व रखा जाता है। इसके पश्चात लोग अपने-अपने पैइना उठाते हैं और पाहान गठ के बीचो बीच एक अंडा रखाता है, फिर लोग बैलों को लाते हैं और उस गठ पूजा थान से गीत गाकर के बैलों को पार करते हैं। इसी क्रम में जिसके घर का बैल अंडा फोड़ता है वह नया को कंधे करके नाच-गान के साथ अहिरा गीत गाकर घर लाता है, फिर धोती/गमछा आदि देकर सम्मानित करता है।
शाम के समय प्रत्येक घर में कांची दियारी देने का विधान भी है। इसमें सहराइ घास के साथ-साथ गुड़ी के दीया जला के घर के प्रत्येक द्वार में रखा जाता है। इसे करने से घर में गाय गुरु की सगुन होती है और उसके घर में इसकी वृद्धि दिनों-दिन होती है। दीया में प्रयोग गुड़ी को जला के पीठा बनाया जाता है और फिर घर के सभी लोग इस पीठा को थोड़ा-थोड़ा खाते हैं। इसके बाद बच्चे शाम को इंजर-पिंजर का खेल खेलते हैं। हर घर के बच्चे पटसन को जलाकर इधर-उधर दौड़ते हैं और खेलते है। रात को घिंगुआइनि शुरू होती है सबसे पहले गाँव के नया के घर से शुरुआत होती है फिर क्रमबद्ध तरीके से प्रत्येक घर में गाय जागरण हेतु यह काम क्रम से किया जाता है। घिंगुआइन घर में प्रवेश करने पर विशेष तौर पर बैल भैंस को गुड़ी का छिंटा देकर जगाया जाता है इसके बाद गहाइल घर में घी का दीया जलाया जाता है फिर तेल देने के पश्चात घास खिलाया जाता है। घिंगुआइन प्रायः गाँव के लोग ही होते हैं और हर घर में विभिन्न प्रकार के सहराइ गीत गाते हैं। इसमें चांचर गीत की काफी लोकप्रियता है। अमावस्या के रात भर गाय जागरण के पश्चात धिंगुआइन सब पूरे गाँव घूमते हैं और जाहलिबुला गीत गाते हुए चलते हैं। इस बीच कुड़मी समुदाय में एक विशेष नेग होता है, इसमें छोटे बच्चों को घिंगुआइन के आगे लेटाया जाता है और सभी धिंगुआइन उसे पैर की बड़ा अंगूठा छुआ के पार होता है। ऐसा माना जाता है की इस जोग में यदि बच्चों को पैर की अंगूठा छुआ के लांगकर पार होता है तो बच्चा में किसी भी प्रकार की पेट आदि से संबंधित बीमारी नहीं होती है और बच्चा ताकतवर एवं अपने पुरखों के नियम का अनुसरण कर चलता है।
तीसरा दिन
गरइआ पूजा, बांधना परब का एक अभिन्न भाग है। इस दिन घर का एक पुरुष एवं एक महिला उपवास करके रहते हैं। घर-आंगन की साफ सफाई एवं लीपापोती के पश्चात महिला नहा धोकर आती है, फिर चावल का गुड़ी ढेकी से कुटती है और फिर अलग से चूल्हा बनाकर शुद्ध दूध का पीठा छांकती है। किसान, घर के खेती-बाड़ी में प्रयोग होने वाले औजार जैसे हल, जुआँइट, राकसा, मइर आदि को धोकर भूत पीड़ा में रखता है। इसके बाद पुरुष नहा धोकर आता है और गोरया पूजा के लिए तैयार होता है। भूत पीड़ा में पूजा सेंउरन के पश्चात गरइआ पूजा की जाती है। गरइआ का शाब्दिक अर्थ है गअ + रइआ अर्थात गाय गुरु की रक्षा करने वाले देवता। नौ देवता भुता जिसकी पुजा वह गहाइल में करता है, जिसमें मुख्य रूप से
- बुढ़ाबाबा
- माहामाञ
- गराम देउता
- धरमराइ
- गसाञराइ,
- बिसाइचड़ि,
- बड़अपाहाड़
- जाहिरमाञ एवं बाघुत।
इन नौ देवा भूता की पूजा के लिए गुड़ी से नो गो घर बनाया जाता है फिर इन्हें सेंउरन कर फूल-जल देकर घी का छांका हुआ पीठा चढ़ाया जाता है, फिर मुर्गा की बलि दी जाती है। फूल में सालुक फूल की प्रधानता होती है। इसके पश्चात चावल का गुड़ी को घोल कर चौक पूरा जाता है। इसमें सबसे पहले, पहला चौक के शीर्ष भाग में गोबर रखा जाता है। उसके ऊपर एक सोहराय घास देकर सिंदूर का टीका दिया जाता है एवं एक बछिया से उसे लंघवाया जाता है। शाम के समय घर के सभी गाय, बैल, भैंस को तेल दिया जाता है और एक गाय जो सबसे बड़ी होती है जिससे श्री गाय कहा जाता है और सबसे बड़ा बैल जिसे श्री वरद कहा जाता है को पैर धो कर सिंदूर देकर माड़इड़ पहनाया जाता है (माड़इड़ जो धान शिश का बना होता है)। इसका मतलब होता है कि हम जिस अनाज को जिन गाय गरु की बदौलत उपजायें हैं, उसे सबसे पहले उसी के सिस पर चढ़ा कर ईमान को जगा रहे हैं। फिर महिला उसे चुमान बंदन करती है। इसके बाद निंगछा जाता है। इस दिन हल, जुआँइट, राकसा गाड़ी आदि की भी पूजा की जाती है क्योंकि इसके सहयोग से ही खेत में अनाज उगाया गया है, इसीलिए इसकी भी पूजा सेंउरन जाती है।
चौथा दिन
इस दिन घर आंगन की लीपापोती कर पुनः कुल्ही से लेकर संपूर्ण आंगन में चौका पूरा जाता है एवं घर के सभी गाय, बैल, भैंस के लिए माड़इर बनाया जाता है। इस दिन भी पैर धोकर सभी गाय, बैल, भैंस आदि को तेल सिंदूर देकर चुमान बंधन किया जाता है फिर उसे खूंटा जाता है और सोहराय गीत गा-गा, ढोल-नगाड़ा और मांदइर के साथ चमड़ा लेकर उसे आत्मरक्षा का गुर सिखाया जाता है ताकि वह जंगल में हिंसक जानवरों से अपनी और अपने दल का रक्षा कर सकें। इस दिन प्रत्येक घर में अच्छे-अच्छे पकवान एवं खाना बनता है। लोग रिझ रंग में मदमस्त होकर नाचते, गाते और उत्सव मनाते हैं। इस दिन प्रत्येक घर के चौखट में सिंदूर देने का भी रिवाज है।
पांचवाँ दिन
बरद खुंटा के दूसरे दिन को गुड़ी बांधना के नाम से जाना जाता है। इस दिन फेटाइन बछिया को जो लंबे समय से गर्भधारण नहीं कर पाती है उससे खूंटा जाता है और विभिन्न प्रकार के गीत गाकर उसके गुड़ी यानी गर्भाशय को बांधन किया जाता है, जिससे वह जल्दी गर्भधारण कर सके, ऐसी पुरानी मान्यताएँ हैं।