मज़दूर अधिकार मंच | गुजरात:

आदिवासी समुदाय भारत के सबसे पिछड़े समुदाय में से है। पश्चिम भारत की विशाल आदिवासी पट्टी राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र चार राज्यों में फैली है। ये विशाल आदिवासी पट्टी देश के विकसित राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र के सबसे विकसित क्षेत्र से सटी हुई है। फलस्वरूप इस आदिवासी पट्टी के सीमा के ज़िलों से कई पीढियों से लोग काम के लिए गुजरात और महाराष्ट्र पलायन करते आ रहे हैं। पूरे गुजरात में निर्माण और खेती के लिए मज़दूरो का प्रमुख स्त्रोत तीन राज्यों के जंक्शन में फैली दाहोद, बांसवाडा, डूंगरपुर, झाबुआ, अलीराजपुर ज़िलों की आदिवासी पट्टी है।

पहाड़ी इलाका होने के कारण आदिवासी क्षेत्र में खेती योग्य ज़मीन सीमित है। सिंचाई की सुविधा नहीं होने के कारण केवल बरसात के मौसम में खेती हो पाती है। फलस्वरूप मौसमी पलायन आजीविका का प्रमुख साधन है। आज से बीस साल पहले पलायन आदिवासी पट्टी के गुजरात और महाराष्ट्र की सीमावर्ती क्षेत्र तक सीमित था। लेकिन अब पूरी अदिवासी पट्टी से पलायन होता है। मध्यप्रदेश के बड़वानी और खरगोन जैसे ज़िलों से भी लोग गुजरात और महाराष्ट्र के इलाकों में काम करने के लिए पलायन करते हैं। पलायन के दोनों स्वरुप नज़र आते हैं। केवल पुरुष या फिर पूरा परिवार। जहाँ पूरा परिवार पलायन करता है, वहाँ बच्चे भी साथ में जाते हैं। पलायन के चलते ये बच्चे शिक्षा से वंचित हो जाते हैं। इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी अशिक्षित मज़दूर बनने के लिए ये समुदाय मजबूर हैं।

आदिवासी कड़िया काम करने वाले मज़दूर परिवार का सूरत में फुटपाथ पर बसेरा

गुजरात और महाराष्ट्र में काम की और रहने की स्थितियां बहुत कठिन हैं। प्राय सभी मज़दूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं जहाँ श्रम कानून से कोई सुरक्षा नहीं मिलती। आदिवासी मज़दूर शहरों में सबसे ज़्यादा मेहनत वाला काम करते हैं। वो काम जो स्थानीय मज़दूर नहीं करना चाहते वे सब काम भी यही करते हैं। मज़दूरी दर भी बहुत कम है। कई बार 12 घंटे तक काम करना पड़ता है। काम के समय दुर्घटना होना बहुत आम बात है। ऐसे मामलों में नियोक्ता मामूली रकम देकर मज़दूरों को भगा देते हैं। रहने की व्यवस्था नहीं के बराबर है। गुजरात के सभी बड़े शहरों में फुटपाथ पर सोते हुए आदिवासी मज़दूर परिवार देखे जा सकते हैं। कई बार पूरे सीजन काम करने के बाद भी तय की हुई मज़दूरी नहीं मिलती है। बहुत से क्षेत्रों में महिला मज़दूरों की सुरक्षा का बड़ा प्रश्न है।

मध्य प्रदेश के सेंधवा ज़िले के आदिवासी गन्ना कटाई मज़दूर, कर्नाटक के बेलगांव से उनके ट्रैक्टर सहित छुड़ाए गए

ये आश्चर्य की बात है कि इतनी खराब परिस्थितियां होने के बावजूद प्रवासी आदिवासी मज़दूरों के श्रम अधिकारों के प्रश्न आदिवासी क्षेत्र के राजनैतिक मुद्दों में शामिल नहीं है। पश्चिम भारत की पूरी आदिवासी पट्टी इस समय ज़बरदस्त राजनैतिक हलचल से गुजर रही है। शिक्षा के प्रसार के चलते आदिवासी समाज में युवा नेतृत्व का विकास हुआ है जो समाज के मुद्दों को नए राजनैतिक मंचो से बुलंद कर रहे हैं। दक्षिण गुजरात में भारतीय ट्राइबल पार्टी का उदय हुआ। इस पार्टी ने दक्षिण राजस्थान की आदिवासी पट्टी में दो विधान सभा सीटों पर विजय प्राप्त की। इस क्षेत्र में हाल के छात्र संघ चुनाव में आदिवासी छात्र संघ ने सभी कॉलेज में जीत का परचम लहराया। मध्य प्रदेश में भी आदिवासी समाज का आंदोलन तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की स्थापना हुई। आदिवासी एकता परिषद के सालाना कार्यक्रम में सभी पार्टियों के प्रतिनिधि समाज के मुद्दों पर एकजुट होते हैं।

लेकिन इस पूरी हलचल में आदिवासी मज़दूरों के प्रश्नों को कोई जगह नहीं दी गई है। जबकि हकीकत ये है की बहुसंख्यक आदिवासी समाज प्रवासी मज़दूर बन चुका है। आदिवासी राजनीति को टिकाऊ बनाने के लिए जरूरी है कि शिक्षित राजनैतिक नेतृत्व इस हकीकत को पहचाने और मज़दूरों के सवाल को अपने मांग पत्र में जगह दे। मुद्दा केवल मांग उठाने तक ही सीमित नहीं हैं। मज़दूरों के सवाल तभी हल होंगे जब मज़दूर संगठित होंगे। इसके लिए आदिवासी नेतृत्व को पहल करनी होगी। मज़दूर संघ की स्थापना करनी होगी। विशाल मज़दूर समुदाय में श्रम अधिकार का प्रचार-प्रसार करना होगा क्यूंकि बहुसंख्यक मज़दूर समुदाय अशिक्षित है। गंतव्य स्थान में काम करने वाले दूसरे मज़दूरों के साथ समन्वय स्थापित करना होगा। आदिवासी समुदाय के सवाल केवल पहचान की राजनीति से हल नहीं हो सकते। इसके लिए मज़दूरी के मूलभूत प्रश्न को एजेंडा में प्रमुख स्थान देना ज़रूरी है।

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