कैसे शुरू हुआ जोशीमठ संकट

इंद्रेश मैखुरी: 

जोशीमठ का संकट पिछले कुछ दिनों से पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। देश-दुनिया के पत्रकारों का जमावड़ा उत्तराखंड के चमोली जिले के इस पहाड़ी शहर में काफी दिनों से दिख रहा है। एक पहाड़ी ढलान पर बसा लगभग 25 हज़ार की आबादी वाला यह शहर निरंतर दरक रहा है, धंस रहा है। शहर के लगभग हर हिस्से में घरों, खेतों, सड़कों में दरारें हैं। 800 से अधिक लोगों को अस्थायी शिविरों में शिफ्ट किया गया है और लगभग इतने ही भवनों में दरारें देखी गयी हैं। कुछ होटलों, मकानों और उत्तराखंड लोक निर्माण विभाग के डाक बंगले में दरारें इस कदर बढ़ गयी हैं कि प्रशासन द्वारा इनके ध्वस्तीकरण के आदेश जारी कर दिये गए हैं।

यह संकट शुरू कैसे हुआ ?

लगभग 14 महीने पहले, नवंबर 2021 में जोशीमठ के कुछ इलाकों में घरों में दरारें और भू-धंसाव दिखाई देना शुरू हुआ। स्थानीय लोगों के साथ ही सामाजिक-राजनीतिक मसलों पर मुखर अतुल सती ने इसे गंभीर संकट के तौर पर चिन्हित करते हुए, इस मामले को ज़ोर-शोर से उठाना शुरू किया और जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति बनाई।

भू-धंसाव के इस बढ़ते खतरे को देखते हुए बीते साल अतुल सती ने यह मांग उठाई कि उत्तराखंड सरकार जोशीमठ के इस संकट के कारणों को जानने के लिए इस क्षेत्र का भूगर्भीय सर्वेक्षण करवाए। लेकिन उत्तराखंड की सरकार ने तब उत्तराखंड के इस प्रसिद्ध शहर पर मंडराते खतरे को गंभीरता से नहीं लिया। शहर पर मंडराते खतरे और सरकार की उदासीनता को देखते हुए कामरेड अतुल सती ने खुद भू-वैज्ञानिकों से संपर्क किया। उनकी पहल पर फिजिकल रिसर्च लैबोरेटरी, अहमदाबाद से सेवानिवृत्त एवं ख्यातिलब्ध भू-विज्ञानी डॉ. नवीन जुयाल, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली औद्यानिकी विश्वविद्यालय के रानीचौरी परिसर के डॉ.एस.पी. सती और डॉ. शुभ्रा शर्मा ने जोशीमठ का सर्वेक्षण किया और उस पर रिपोर्ट लिखी।

अपनी रिपोर्ट में उन्होंने लिखा कि 1976 में गढ़वाल के तत्कालीन मण्डल आयुक्त महेश चंद्र मिश्रा की कमेटी द्वारा क्षेत्र में भारी निर्माण न किए जाने की चेतावनी को अनदेखा किए जाने के कारण यह क्षेत्र संकटग्रस्त है। इसके अलावा 7 फरवरी 2021 को ग्लेशियर टूटने के चलते आई बाढ़ अपने साथ हज़ारों टन मलबा लाई, जिसने अपर्दन को बढ़ा दिया, पुराने भू स्खलनों को सक्रिय कर दिया और मलबे वाली ढलानों पर नए भू-स्खलन सक्रिय कर दिये। अनियंत्रित जल निकास प्रणाली और चट्टानों, पत्थरों और बोल्डरों को निर्माण के लिए निकालने के कारण भूस्खलन की गति तेज हुई। स्थलाकृति (topography) पर जल विद्युत परियोजना के लिए विभिन्न गहराइयों में खोदी गयी सुरंगों के प्रभाव का आंकलन करने पर उक्त रिपोर्ट ज़ोर देती है।

उक्त रिपोर्ट के सामने आने और उसमें चिन्हित खतरों और दिये गए सुझावों के चलते उत्तराखंड सरकार पर भी कार्यवाही का दबाव बढ़ गया। अंततः 28 जुलाई 2022 को उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन सचिव डॉ. रणजीत सिन्हा ने जोशीमठ के भूधंसाव के भू-वैज्ञानिक और भू-तकनीकी सर्वेक्षण के लिए उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अपर मुख्य कार्यकारी अधिकारी प्रशासन की अध्यक्षता में सात सदसीय कमेटी नियुक्त कर दी। उक्त कमेटी ने 16 से 19 अगस्त 2022 के बीच जोशीमठ में सर्वेक्षण का काम किया। उक्त कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में भवनों और सड़कों में भू-धंसाव की बात को माना और कहा कि कई सारे घर रहने के लिहाज से खतरनाक हो चुके हैं। उक्त कमेटी ने सारी समस्या के लिए भारी पैमाने पर हुए अनियोजित निर्माण, उसमें सीवेज और ड्रेनेज न होने को समस्या का कारण मानते हुए, उसके लिए लोगों को जिम्मेदार ठहरा दिया। लेकिन खतरे की चेतावनी तो राज्य सरकार द्वारा बनाई गयी उक्त कमेटी द्वारा भी दी गयी थी और कहा गया था कि खतरनाक घरों को सुरक्षित स्थानों पर पुनर्स्थापित किया जाये और खतरनाक स्थलों की तत्काल निरंतर निगरानी की जाये ताकि वहाँ भू-धंसाव के स्तर को मापा जा सके।

राज्य सरकार द्वारा अपनी ही कमेटी की रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और जोशीमठ पर मंडराते गंभीर खतरे को पूरी तरह नजरंदाज़ कर दिया गया।

26 अगस्त 2022 को जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल, देहरादून में आपदा प्रबंधन के सचिव डॉ. रणजीत सिन्हा से मिला और उन्हें खतरे के प्रति आगाह किया, सचिव ने कार्रवाही का भरोसा दिया और स्वयं भी जल्द जोशीमठ का दौरा करने का आश्वासन दिया, लेकिन किया कुछ नहीं!

नवंबर-दिसंबर आते-आते दरारें आने का सिलसिला तेज हो गया और शहर के विभिन्न हिस्सों में मकानों से लेकर सड़कों और खेतों में दरारें और भू-धंसाव नजर आने लगा। 1 जनवरी 2023 को जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल, स्थानीय विधायक के साथ देहरादून में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मिला। मुख्यमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल की बात ठीक से सुनना भी गवारा नहीं किया और बमुश्किल 40 सेकेंड बात सुनने के बाद वे मुख्य सचिव से चर्चा करने की बात कह कर, नए साल के गुलदस्ते देने आए लोगों के साथ व्यस्त हो गए।

उत्तराखंड सरकार के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार से क्षुब्द होकर 4 जनवरी को जोशीमठ में मशाल जुलूस निकला और 5 जनवरी को चक्काजाम हुआ। उसके बाद प्रशासन और सरकार में कुछ हलचल दिखाई दी। बड़े पैमाने पर अफसरों की तैनाती जोशीमठ में की गयी। मुख्यमंत्री ने जोशीमठ का दौरा किया। खतरनाक हो चुके घरों से लोगों को राहत शिविरों में भेजा गया। राहत शिविरों में रखे गए लोगों की संख्या साढ़े आठ सौ से अधिक हो चुकी है।

अफसरों के बड़े फौज-फाटे और मुख्यमंत्री के दो दौरों के बावजूद अभी भी जोशीमठ के विस्थापन, पुनर्वास और पुनर्निर्माण को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बनी है। ना ही जोशीमठ के स्थिरीकरण को लेकर कोई ठोस वैज्ञानिक उपाय नजर आ रहा है। अलबत्ता तमाम वैज्ञानिक संस्थानों को अपने अध्ययन का डाटा सार्वजनिक न करने के निर्देश राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा केंद्रीय गृह मंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक के बाद दे दिये गए हैं। यह कार्यवाही इसरो की उस रिपोर्ट के बाद की गयी, जिसमें दावा किया गया था कि 12 दिनों में जोशीमठ 5.4 सेंटीमीटर धंस गया है। स्पष्ट तौर पर सरकार की मंशा है कि तथ्य और सत्य बाहर नहीं आना चाहिए।

लेकिन राहत शिविरों की कैद में रह रहे लोगों को कब तक वहाँ रहना होगा, कहाँ पुनर्वास होगा, कितना राहत और मुआवजे का पैकेज होगा, इसका कोई जवाब कहीं नहीं है।

निर्माणाधीन जल विद्युत परियोजना पर सवाल

जोशीमठ में निरंतर भू-धंसाव और घरों, भवनों, खेतों और सड़कों में दरारें आने के लिए स्थानीय लोग यहाँ निर्माणाधीन तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना को ज़िम्मेदार मानते हैं। स्थानीय लोगों को मत है कि एनटीपीसी द्वारा बनाई जा रही 520 मेगावाट की इस परियोजना के सुरंग निर्माण कार्यों के चलते, भू-धंसाव बढ़ा है। परियोजना बनाने वाली कंपनी एनटीपीसी, केंद्र और उत्तराखंड सरकार का पूरा ज़ोर इस पर है कि परियोजना पर कोई प्रश्न चिन्ह खड़ा न हो। लेकिन जोशीमठ शहर में लोगों की जुबान और दीवारों पर “एनटीपीसी गो बैक” के नारे चस्पा हैं।

वर्ष 2003 के आस-पास जब इस परियोजना के निर्माण की चर्चा शुरू हुई, तभी इस परियोजना से खतरे की आशंका प्रकट करते हुए परियोजना के खिलाफ लड़ाई शुरू होने लगी थी। इस जलविद्युत परियोजना के विरुद्ध आंदोलन इतना बड़ा था कि तीन बार योजना बनाकर भी उत्तराखंड सरकार, इसका शिलान्यास जोशीमठ में नहीं करा सकी। जोशीमठ में शिलान्यास कराने में नाकाम होने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री एन.डी. तिवारी ने परियोजना का शिलान्यास जोशीमठ से लगभग 250 किलोमीटर दूर देहरादून में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पीएम सईद के साथ कर दिया था।

लोगों के आंदोलन का दबाव था कि परियोजना निर्माता कंपनी-एनटीपीसी ने कहा कि सुरंग निर्माण के कार्य में विस्फोटकों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा बल्कि वह टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) से सुरंग बनाएगी। 24 दिसंबर 2009 को जोशीमठ शहर से कुछ ही दूरी पर सेलंग के पास से टनल बोरिंग मशीन पर सुरंग काटते समय एक बोल्डर आ कर गिरा और टीबीएम वहीं फंस गयी। साथ ही उस स्थान पर पहाड़ के अंदर से पानी का झरना बहने लगा। शुरू में कहा गया कि यह 600 लीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से बह रहा है, बाद में कहा गया कि बहाव की गति कम हो कर अब 200 लीटर प्रति सेकंड रह गई है। उस स्थान पर पानी का बहाव आज भी जारी है।

इस घटना के बाद से ही लोगों ने महसूस किया कि जोशीमठ शहर के कई प्रकृतिक स्रोतों में पानी कम हो रहा है। इसके विरुद्ध जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के नेतृत्व में आंदोलन हुआ। इस आंदोलन के फलस्वरूप एनटीपीसी के साथ तत्कालीन केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रा सुशील कुमार शिंदे की अध्यक्षता में समझौता हुआ, जिसमें जोशीमठ की पेयजल योजना के लिए 16 करोड़ रुपया देना एनटीपीसी ने मंजूर किया। साथ ही जोशीमठ के घरों का बीमा करने का करार भी हुआ था, जिसका बाद में अनुपालन नहीं किया गया।

आज जोशीमठ को परियोजना से कोई खतरा न होने का दावा करने वालों को जवाब देना चाहिए कि अगर खतरा नहीं था तो एनटीपीसी 2010 में भवनों का बीमा कराने को क्यूं तैयार थी और बिना प्रभाव के ही पेयजल योजना के लिए वह पैसा क्यूँ दे रही थी?

हाल ही में यह सामने आया 2015 का एक अध्ययन तो बताता है कि 2012 में फरवरी व अक्टूबर में टीबीएम के जरिये सुरंग काटने की कोशिश हुई और दोनों बार सुरंग फंस गयी। उक्त शोध पत्र का दावा है कि टीबीएम फंसने की दूसरी व तीसरी घटना को तो (रिपोर्ट में) दर्ज भी नहीं किया गया। इस शोध पत्र में यह भी कहा गया है कि टीबीएम फंसने की इस प्रक्रिया में हुई भूगर्भीय क्षति को दुरुस्त करने के लिए उपचारात्मक उपाय सुझाए गए, पर उन पर काम नहीं किया गया।

गौरतलब है कि एल एंड टी कंपनी को टीबीएम से सुरंग बनाने का काम सौंपा गया था, लेकिन यह कंपनी काम छोड़कर चली गयी क्यूंकि उसने महसूस किया कि उसे वास्तविक भूगर्भीय स्थितियों और चुनौतियों के बारे में ठीक-ठीक नहीं बताया गया।

प्रख्यात पर्यावरणविद डॉ. रवि चोपड़ा ऊपर वर्णित शोध पत्र के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं कि आज जो कुछ जोशीमठ में हो रहा है, उसका सीधा संबंध एनटीपीसी के कामों से है। वे कहते हैं कि बेहद कमज़ोर और संवेदनशील चट्टान के अंदर, टीबीएम के फंसने पर हुए पानी के रिसाव से नयी दरारें बनी तथा पुरानी दरारें और चौड़ी हो गयी। टनलिंग की प्रक्रिया से यहाँ के भू-जल तंत्र पर भी प्रभाव पड़ा।

यह आश्चर्य की बात है कि उत्तराखंड सरकार और एनटीपीसी से लेकर केंद्रीय ऊर्जा सचिव तक एनटीपीसी की परियोजना का बचाव करने के लिए 1976 की मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दे रहे हैं। उक्त रिपोर्ट में जोशीमठ में भू-स्खलन के के खतरे की ओर इंगित किया ही गया था।

उक्त रिपोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण संस्तुति थी कि जोशीमठ चौंके मोरेन (भू-स्खलन के मलबे के ढेर) पर बसा है, इसलिए यहाँ कोई भारी निर्माण नहीं होना चाहिए। इस संस्तुति पर किसी सरकार ने भी गौर क्यूं नहीं किया? एनटीपीसी की परियोजना का बचाव उक्त रिपोर्ट के आधार पर करने की कोशिश करने वालों को यह भी जवाब देना चाहिए कि उक्त रिपोर्ट तो भारी निर्माण पर रोक की संस्तुति करती है तो क्या वे परियोजना निर्माण के कार्य को भारी निर्माण नहीं हल्का निर्माण समझते हैं?

एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना कितनी लापरवाही से बनाई जा रही है, उसका एक नमूना 7 फरवरी 2021 को आई आपदा में दिखा। इस बाढ़ में 13 मेगावाट की ऋषिगंगा परियोजना पूरी तरह बह गयी और उससे नीचे की ओर (downstream) तपोवन में इस परियोजना का बैराज ध्वस्त हो गया तथा सुरंग मलबे से पट गयी। इस दुर्घटना में 204 लोग मारे गए, जिनमें से कई लोगों के शव आज भी उक्त सुरंग से नहीं निकाले जा सके हैं। हैरत की बात यह थी कि इतनी बड़ी परियोजना बनाने वाली कंपनी ने खतरे से आगाह करने वाला कोई पूर्व चेतावनी तंत्र (early warning system) नहीं लगाया हुआ था।

उस समय भी जब सुरंग में 200 लोग फंसे हुए थे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री व केंद्र ने परियोजना की ही चिंता की थी! इस परियोजना पर जैसे ही सवाल खड़ा कीजिये तो यह तर्क आम तौर पर दिया जाता है कि बिजली तो चाहिए। पर सवाल है कि बिजली तो इस परियोजना को 2011 में बना देनी थी। उस डेडलाइन को बीते हुए एक दशक से अधिक बीत चुका है और अभी तक यह परियोजना तो केवल विनाश का ही उत्पादन कर रही है।

दूसरा सवाल यह है कि जिस तरह की परियोजना, पहाड़ के नाजुक परिस्थितिकी तंत्र का विनाश करके बनाई जा रही हैं, उस विनाश के बाद बनने वाली बिजली के लाभार्थी स्थानीय लोग हैं भी नहीं। यह कानूनी प्रावधान है कि बिजली बनाने वाली कंपनी 88 प्रतिशत बिजली जिसको चाहे उसे बेच सकती है और 12 प्रतिशत बिजली वह राज्य को मुफ्त देगी। वह 12 प्रतिशत बिजली भी राज्य द्वारा परियोजना प्रभावितों को पैसों में ही दी जाती है और हाल ही में उत्तराखंड सरकार ने बिजली की दरों में भारी वृद्धि की है।

इस तरह देखें तो बिजली उत्पादन के कुछ मुट्ठी भर लाभार्थी हैं और मुनाफे के लिए तबाही झेलने वाली आबादी व्यापक है। जोशीमठ की आपदा के बावजूद यदि केंद्र और राज्य सरकार, अब तक परियोजना से सिर्फ विनाश का उत्पादन करने वाली एनटीपीसी के बचाव में खड़ी हैं तो उसके पीछे का मकसद, उस विनाशकारी विकास के मॉडल को भी बचाना है, जो पहाड़ के पर्यावरण, परिस्थितिकी और लोगों की कीमत पर बड़े ठेकेदारों और कंपनियों को भारी मुनाफा देने वाला है।

जोशीमठ में जो तबाही हुई है, उसके मूल में वह लुटेरा विकास का मॉडल है, जो सड़क बनाए या बिजली परियोजना, हर कसीस में मुनाफे के लिए स्थानीय लोगों की बलि लेने से नहीं चूकता है। इसके खिलाफ जोशीमठ में लोग निरंतर धरने पर हैं। दो दशक बाद पुनः जोशीमठ के आम लोग “एनटीपीसी वापस जाओ” का नारा लगा रहे हैं। 

पूर्व में समकालीन जनमत पर प्रकाशित। 

फीचर्ड फोटो आभार: मनीकंट्रोल डॉट कॉम

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