आज न वो घुघुती रही और न आसमान में कौवे

महिपाल:

उत्तराखंड के कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्र में मकर संक्राति के दिन मनाये जाने वाले त्यौहार ‘उत्तरैणी’ और ‘मकरैणी’ का खासा महत्व है। गढ़वाल में इस त्यौहार को ‘मकरैणी’ के नाम से और कुमाऊँ में ‘उत्तरैणी’ या ‘घुघुतिया’ के रूप में मनाया जाता है। इसे उत्तरैणी इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन के बाद सूर्य मकर रेखा से उत्तर की ओर जाता है और दिन बड़े होने लगते हैं। लेकिन गाँव में इस त्यौहार को घुघुतिया के नाम से जाना जाता है। 

मुझे बचपन में जिस त्यौहार का बेसब्री से इंतजार रहता था, वह दिवाली या होली नहीं बल्कि ‘घुघुतिया’ था। आज भी बचपन का वह समय एकाएक ही सामने आने लगता है। कड़ाके की ठंड में भी हर कोई गर्मजोशी के साथ सक्रांति के एक दिन पहले ही तैयारी में जुट जाते थे। सबसे पहले घर के एक कमरे, जिसमें रात भर जागरण किया जाएगा उसका चयन किया जाता। अगला काम यह तय करना होता था कि रात को बनाया क्या जाएगा? हर किसी का अपना-अपना मत होता था। फिर मिलकर तय किया जाता कि हर किसी के हिस्से में कितना पैसा आएगा। यह सब होने के बाद सभी को अपने घरों से नमक, हल्दी, मिर्च-मसाले, और बर्तन जुटाने की ज़िम्मेवारी दी जाती। बाकी का ज़रूरी सामान जो बाज़ार से लाया जाना होता था, उसके लिए दस से बीस रुपये तक सभी को अपने घर से लेकर आना होता था। उस समय इतना पैसा दे पाना भी हर किसी के लिए संभव नहीं था। कई दफा वह व्यक्ति या तो किसी और ग्रुप में शामिल हो जाता या उसे एकमत से दूसरा काम दिया जाता। जैसे रात में जलाने के लिए लकड़ी का इंतज़ाम करने जैसे ज़रूरी कार्य। पैसे के पूरे खर्च की ज़िम्मेदारी ग्रुप के सबसे ईमानदार व्यक्ति को ही दी जाती थी। 

सब दोस्तों की टोली मिलकर पूरी रात मस्ती करते, खाना बनाते, नाचते-गाते और अंताक्षरी खेलते। इसी तरह गाँव के लड़के-लड़कियाँ अपने-अपने दोस्तों के साथ जागरण जिसे कुमाऊँनी में ‘जाग्रणी’ कहते हैं, वह मनाया करते थे। यही वह समय था जब गाँव की लड़कियाँ भी अपने दोस्तों के साथ घर से बाहर निकलकर मस्ती, मजा किया करती थी। उत्तरैणी के दिन हर टोली के लिए सबसे बड़ा और चुनौती का काम होता था सुबह जल्दी अपने गाँव के पनेरा (गाँव का सार्वजनिक पानी का श्रोत) पर आकार सबसे पहले नहाना। इसके पीछे गाँव के बुजुर्गों की यह मान्यता थी कि इस दिन सुबह ठंडे पानी से ही नहाया जाता है और जो कोई भी इस दिन ठंडे पानी से नहीं नहाएगा वह अगले जन्म में गनेल यानि “घोंगा” के रूप में पैदा होगा। फिर क्या! हर किसी को अपना अगला जन्म तो सुधारना ही होता था। 

नहाने के बाद घर के बड़ों का आशीर्वाद लेकर पूरे गाँव में घूमकर गुड़ मांगा जाता, और पूरा गाँव सुबह से ही इस चहल पहल का हिस्सा बना रहता। जिनके घरों में छोटे बच्चे हों और जो एकल हों वह भी बच्चों को गुड़ देते, घर-घर जाकर बच्चे ‘गुड़ दे पैलाग’ कहते और खूब सारा गुड़ जमा कर अपने घरों को आते। दोपहर को पूड़ी, खीर और ढेरों पकवानों का लुत्फ़ लिया जाता और दोपहर के बाद मम्मी, चाची और दादी के साथ आटे, गुड़ और घी को दूध में गूंथकर घुघुति (एक पंछी जो बटेर जैसा दिखता है) बनाई जाती। साथ ही बच्चे इसी आटे से अपने लिए डमरू और तलवार भी बनाते, शाम को तेल में तलकर आटे की घुघूती को तैयार किया जाता और जमकर मीठे-मीठे घुघुति का मजा लिया जाता। इन तली हुई घुघुति की एक माला बनाकर अगले पूरे दिन गले में डालकर बच्चे गाँव भर में घूमते रहते। 

पर्व पे बनाये जाने वाली घुघुती (बाएँ) और पकवान (दायें)

घुघुतिया त्यौहार को मनाने के पीछे समाज में कई लोककथाएं व्याप्त हैं। एक ऐसी ही कहानी के अनुसार बहुत समय पहले जब कुमाऊँ क्षेत्र में चन्द्र वंश का राज हुआ करता था, उस समय के एक राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी। इस वजह से उसका मंत्री सोचता था कि राजा की मृत्यु के बाद वही अगला शासक बनेगा। एक बार राजा कल्याण चंद, अपनी रानी के साथ बाघनाथ मन्दिर गए और पूजा-अर्चना कर संतान प्राप्ति की कामना की। जल्द ही उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। रानी अपने पुत्र को लाड़ से उत्तराखंड की एक चिड़िया घुघुति के नाम से बुलाया करती। घुघुति के गले में मोतियों की एक माला सजी रहती, इस माला में घुंघरू लगे हुए थे। जब माला से घुंघरुओं की छनक निकलती तो घुघुती खुश हो जाता था।

घुघुती जब किसी बात पर अनायास जिद्द करता तो उसकी माँ उसे धमकी देती कि वह उसकी माला को कौवे को दे देगी। वह पुकार लगाती कि ‘काले कौवा काले घुघुति माला खाले’ पुकार सुनकर कई बार कौवा आ भी जाता। यह देखकर घुघुति अपनी जिद छोड़ देता। धीरे-धीरे घुघुति की इन कौवों के साथ अच्छी दोस्ती हो गई। मंत्री जो राज-पाट की उम्मीद में था वह अब घुघुति की हत्या का षड्यंत्र रचने लगा। मंत्री ने कुछ दरबारियों को भी इस षडयंत्र में शामिल कर लिया। एक दिन जब घुघुति खेल रहा था तो मंत्री ने उसका अपहरण कर लिया। जब मंत्री घुघुति को जंगल की ओर ले जाने लगा तभी रास्ते में एक कौवे ने उन्हें देख लिया और काँव-काँव करने लगा। धीरे-धीरे जंगल के सभी कौवे अपने दोस्त की रक्षा के लिए इकट्ठे हो गए और मंत्री और उसके साथियों के ऊपर मंडराने लगे। मौका देखकर एक कौवा घुघुति की मोतियों की माला को झपट कर ले उड़ा। सभी कौवों ने एक साथ मंत्री और उसके साथियों पर अपनी चोंच व पंजों से हमला कर दिया। इस हमले से घबराकर मंत्री और उसके साथी भाग खड़े हुए। घुघुति जंगल में अकेला एक पेड़ के नीचे बैठ गया और सभी कौवे उसी पेड़ में बैठकर उसकी सुरक्षा करने लगे। 

इसी बीच एक कौवा मोतियों की माला लेकर सीधे महल में जाकर एक पेड़ पर माला टांगकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। जब सभी की नज़रें उस पर पड़ी तो उसने माला घुघुति की माँ के सामने डाल दी। माला पहचानकर सभी ने अनुमान लगाया कि कौवा घुघुति के बारे में कुछ जानता है और कुछ कहना चाहता है। राजा और उसके घुड़सवार सैनिक कौवे के पीछे दौड़ने लगे। कुछ दूर जाने के बाद कौवा एक पेड़ पर बैठ गया। राजा और सैनिकों ने देखा कि पेड़ के नीचे घुघुती सोया हुआ है, वे सभी घुघुती को लेकर राजमहल लौट आये। 

छोटी बच्ची गले में घुघूति की माला पहने हुए

घुघुति के सकुशल लौट आने की खुशी में उसकी माँ ने ढेर सारे पकवान बनाए और घुघुति ने ये पकवान अपने दोस्त कव्वों को खिलाने को कहा। पौष माह के आखरी दिन, इस सब काम में शाम हो गई और कौव्वे दावत में उस दिन नहीं आ पाये। इसीलिए कौव्वो को माघ महीने के पहले दिन ख़ास तौर से बुलाया गया और दावत दी गयी। तभी से इसने बच्चों के त्यौहार का रूप ले लिया। तब से हर साल इस दिन धूमधाम से यह त्यौहार मनाया जाता है। उत्तरायणी के पर्व पर कौव्वों को बुलाकर पकवान खिलाने की परंपरा आज भी चली आ रही है।

उस दिन की याद में माघ महीने के पहले दिन, सारे कुमांऊ क्षेत्र में कौव्वों को यह कह कर बुलाया जाता है- “काले कव्वा काले घुघुति माला खाले। लै कव्वा खीर, इथेहूंक फ़ीर। लै कव्वा बड़ मैगु दिजा सुनुक घव्ड।”  बच्चे सुबह उठकर नहा-धोकर अपने आगंन से यह कहते हुए कव्वों को बुलाते हैं और गले में घुघूति की माला पहकर दिनभर घूमते हैं।

लेकिन आज समय के साथ तीज-त्यौहार भी बदलने लगे हैं, जिसको बदलते अधिक समय नहीं हुआ है। मोबाइल और सोशल मीडिया ने लोगों की दूरी तो खत्म की, लेकिन समाज में आपसी सदभाव को भी खत्म किया है। युवा मोबाइल में इतने व्यस्त हैं कि उन्हे त्यौहार को मनाने में कोई खास रुचि नहीं रहती, सामूहिक तौर से मनाए जाने वाले कई अन्य त्यौहार भी इसी तरह खत्म होते जा रहे हैं। इसका एक अन्य बड़ा कारण शहरों की ओर पलायन भी है, जिससे शहरों में रहने वाली आज की युवा पीढ़ी इन सब से दूर होती जा रही है। शायद जल्द ही इन सब त्यौहार के नाम और महत्व को लोग भूल जाएंगे। 

आज का युवा तो स्विगी-जमाटो आजा, पिज्जा-बर्गर-मोमो दिजा वाले हो गए।  

हम तो आज भी ‘काले कव्वा काले घुघुति माला खाले’ वाले ठहरे। 

फोटो आभार: महिपाल

Author

  • महीपाल / Mahipal

    महीपाल, सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े हैं और दिल्ली की संस्था श्रुति के साथ काम कर रहे हैं। 

One comment

  1. लेखक का त्यौहारों के बदलते स्वरूप पर चिंतन करना वाकई में हम सभी को अपने जड़ों के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करता है। लेखक को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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