अमित भाई:
जबसे यह पता चला है कि हमारे देश में 40 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या युवाओं की है, इनकी पूछ परख बहुत बढ़ गई है। होनी भी चाहिए। जीवन के हर क्षेत्र में, ये श्रेष्ठ पदों पर हैं। बहुत जगहों पर निर्णायक भूमिकाओं में भी हैं।
लेकिन ‘सफल युवा’ के पोस्टर बॉयज और गर्ल्स के विज्ञापनों के अलावा युवाओं की एक भीड़ भी है जिनकी भरमार, रास्ते चलते, बसों में, सड़कों पर, कॉलेजों में, कोचिंग क्लासेस में, मज़दूर अड्डों पर, दुपहिया वाहनों पर पीठ पर बोझ लटकाए देखी जा सकती है।
एक तरफ़ हम युवाओं के सपनों की बात करते हैं और दूसरी तरफ उनकी बढ़ती बेरोज़गारी की। दोनों ही सही भी हैं। सपनों को पूरा करने का संघर्ष, यही तो इस जवानी की उम्र का शीर्षक होता है। यही तो वो उम्र है जिसमें हम हमारी ज़िंदगी की फिल्म के सारे विलेनों से भिड़ जाते हैं। अपनी चाहतों को पाने के लिए सारी तमीज़ों को बद-तमीज़ कर देने से नहीं घबराते। बिना किसी बोतल के एक नशे में रहते हैं, किसी जुनूनी घोड़े पर सवार।
लेकिन ध्यान दें कि ‘युवा’ कोई एक सी कैटेगरी नहीं है। जिन घोड़ों पर सुविधा संपन्न घरों के बच्चे सवार हैं, वे हृष्ट-पुष्ट, सदियों से ज़िंदगी की दौड़ में आगे रहने के आदि हैं। आदिवासियों, दलितों, भूमिहीनों, एकल महिलाओं, मज़दूरों, हाथ से काम करके रोज़ कमा कर खाने वालों, गरीबी रेखा पर झूलते करोड़ों परिवारों के युवाओं के घोड़े इस दौड़ में अधिकतर पिछड़ जाते हैं।
इन घोड़ों की फुर्ती या कमज़ोरी इनके सवारों की देन नहीं है। यह तो सदियों के इतिहास की देन है जिसने सारे कमाई के संसाधन चंद लोगों के हाथ देकर गरीबी-अमीरी की खाई बनाई है, जिसने जातिगत ऊंच-नीच की लकीरें इतनी गहरी खींची कि सारी शिक्षा के बावजूद ये बरकरार है, जिसने महिलाओं को सत्ता व संपत्तिविहीन बना दिया है।
लेकिन नए सवेरे, नए साल, बारिश के बाद के कोमल नए हरे पत्ते, हर नई शुरआत की तरह खुशखबरी यह है कि इतिहास ने जिन ज़ुबानों को काट दिया था वे फिर से बोलना, चिल्लाना, अपने हक़ मांगना सीख गई हैं।
पूरे देश की सड़कों पर, खेतों में, मज़दूर अड्डों पर, कॉलेज परिसरों में, सोशल मीडिया में, फिल्मों – लेखों – गीतों के माध्यम से वंचित युवा वर्ग अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है। किसान आंदोलन से, महिला आंदोलनों से, दलितों – आदिवासियों के आंदोलनों से, मज़दूर आंदोलनों से उठने वाली ये जवां आवाज़ें बुलंद हो रही हैं।
पुरुषसत्ता, जाति और धर्म की पीठ पर सवार फासीवादी ताकतों के खिलाफ़़, बेरहम पूंजीवादी साज़िशों के खिलाफ़़, पितृसत्ता के खिलाफ़, शोषण के इतिहास को दबाने के खिलाफ़, हमारी बहुरंगी संस्कृति पर गेरुआ रंग पोतने के खिलाफ़़, पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद के खिलाफ़़ नगाड़े पीटने शुरू हो गए हैं। देर-सवेर ये आवाजें सत्ता के गलियारों तक पहुंचेंगी।
‘युवानिया’ पत्रिका, इन वंचित समूह के युवाओं – युवतियों की आवाज़ों को, इनके विचारों को दुनिया के सामने लाने का बहुत छोटा सा प्रयास है। ऐसे सैंकड़ों प्रयासों की ज़रूरत है।
हमें खुशी है कि ढाई साल के इस सफर में देश के सबसे दुर्गम इलाकों के लड़के-लड़कियों की बातों को आप तक पहुंचाने का काम लगभग पूर्ण रूप से युवाओं-युवतियों ने ही किया है और वह भी स्वैच्छिक रूप से।
यह काम आसान नहीं है। जिन्होंने कभी कोई लेख नहीं लिखे, उनसे उनके मन की बात लिखवाने के लिए उनके पीछे पड़े रहना, उनके लेखों को टाइप करना, ठीक करना, ब्लॉग पर चढ़ाना, लेखों के लिए चित्र ढूंढना, पोस्टर बनाना और प्रसारित करना। सांस चढ़ गई ना! और इस काम को बार-बार हर पंद्रह दिनों पर करना, पूरे साल।
युवानिया को ज़िंदा रखने के लिए सभी साथियों को, लेख/कविता/गीत/फोटोस्ट्री/वीडियो देने वालों को, पढ़ने वालों को, अपने ग्रुप्स में इसका प्रचार करने वालों को बधाई और नए साल के लिए बहुत-बहुत प्यार और शुभकामनाएं।
पैनी नज़र से अपने आसपास को देखते रहें, सोचते रहें और अपनी सोच को लेख में, गीत – कविता में, चित्रों में दर्ज करते रहें।