सिद्धार्थ:
गोरख पाण्डे हिन्दी साहित्य के उन कुछ गिने चुने नामों में से हैं जिन्होंने कविता लेखन की प्रचलित शैलियों से इतर, एक अलग अंदाज़ में लिखना चुना और अपनी कविताओं में आम लोगों के मुद्दों को विषय बनाया। सन 1945 में उत्तर प्रदेश के देवरिया में जन्में गोरख पाण्डे तुलनात्मक रूप से एक ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले परिवार से आते थे, लेकिन अपने आस-पास मौजूद जाति प्रथा के दमनकारी स्वरूप ने उन पर निश्चित ही एक गहरा असर छोड़ा होगा, जो उनकी कविताओं में साफ दिखता है।
गोरख पाण्डे के निजी जीवन के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, यह उनकी कविताएं ही हैं जो उनकी वैचारिक गहनता और साहित्यिक रचनात्मकता की झलक दे जाती हैं। उनके लिखे कई गीत और कविताएं सं-सामयिक जन-आंदोलनों में लोगों के विरोध, उनकी पीड़ा, और उनके गुस्से का स्वर बन जाते हैं। सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े अमित भाई ने भी गोरख पाण्डे के गीत ‘हिल्लेले झकजोर दुनिया’ को बड़े जोश के साथ गाया है जिसका वीडियो आप नीचे देख सकते हैं।
विडियो लिंक : हिल्ले ले झकजोर दुनिया
70 और 80 का दशक, साम्यवादी विचार से प्रेरित युवाओं की बेचैनी और देश- समाज के लिए कुछ कर-गुज़र जाने के जज़्बे का दौर था, सिनेमा से लेकर साहित्य तक सभी इस विचार से प्रेरित नज़र आते थे। दीवार, कुली और काला पत्थर जैसी फिल्मों से एंग्री यंग मैन का टाइटल पा जाने वाले अमिताभ बच्चन की इस दौर के फिल्मों के ज़्यादातर किरदार भी कुछ ऐसी ही बचैनी लिए होते थे। गोरख पाण्डे की कविताओं ने भी हिन्दी साहित्य में युवाओं की इसी बैचनी का प्रतिनिधित्व किया। उनकी एक यह कविता देखिये –
“पैट्रोल छिड़कता जिस्मों पर, हर जिस्म से लपटें उठवाता
हर ओर मचाता क़त्लेआम, आँसू और ख़ून में लहराता
पगड़ी उतारता हम सबकी, बूढ़ों का सहारा छिनवाता
सिन्दूर पोंछता बहुओं का, बच्चों के खिलौने लुटवाता
बोलो यह पंजा किसका है? यह ख़ूनी पंजा किसका है?”
सत्ता के खिलाफ ऐसी बेबाकी, ऐसी हिम्मत कम ही देखने को मिलती है। यही बेबाकी और निडरता एक तरह से कहें तो गोरख का सिग्नेचर है, उनकी कविताओं की खास पहचान है। देश के किसी भी कोने में जब सत्ता-सरकारें जनता पर अत्याचार करती तो विरोध में गोरख की लेखनी कुछ तो ज़रूर कहती। उनकी ऐसी ही एक कविता है- “कैथरकला की औरतें” एक नज़र इस पर भी ज़रूर डालें-
“तीज-व्रत रखती, धान-पिसान करती थी
ग़रीब की बीवी, गाँव भर की भाभी होती थी
कैथरकला की औरतें
गाली-मार, ख़ून पीकर सहती थी
काला अच्छर भैंस बराबर समझती थी
लाल पगड़ी देखकर घर में छिप जाती थी
चूड़ियाँ पहनती थी
ओठ सीकर रहती थी
कैथरकला की औरतें
ज़ुल्म बढ़ रहा था
ग़रीब-गुरबा एकजुट हो रहे थे
बग़ावत की लहर आ गई थी
इसी बीच एक दिन
नक्सलियों की धर-पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गई
कैथरकला की औरतें
अरे, क्या हुआ? क्या हुआ ?
इतनी सीधी थी गऊ जैसी
इस क़दर अबला थी
कैसे बन्दूक़ें छीन ली
पुलिस को भगा दिया कैसे?
क्या से क्या हो गई
कैथरकला की औरतें?
यह तो बग़ावत है
राम-राम, घोर कलिजुग आ गया
औरत और लड़ाई?
उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के ख़िलाफ़ यह ज़ुर्रत ?
ख़ैर, यह जो अभी-अभी
कैथरकला में छोटा-सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमें
ग़रीब मर्दों के कन्धे से कन्धा मिलाकर
लड़ी थी कैथरकला की औरतें
इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हैं
इसे याद रखें क्योंकि आने वाले समय में
जब किसी पर ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं
की जा सकेगी और जब सब लोग आज़ाद होंगे
और ख़ुशहाल
तब सम्मानित किया जाएगा जिन्हें
स्वतंत्रता की ओर से
उनकी पहली क़तार में होंगी
कैथर कला की औरतें।”
अफसोस कि गोरख पाण्डे जैसा प्रतिभाशाली जनकवि, केवल 44 साल की उम्र में ही इस दुनिया को अलविदा कह गया। काफी लंबे समय तक सीजोफ्रेनिया जैसी गंभीर मानसिक बीमारी से लड़ने के बाद, 28 जनवरी 1989 को गोरख पाण्डे ने दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविध्यालय के झेलम हॉस्टल में आत्महत्या कर ली। इस दुनिया में भले ही गोरख पाण्डे ज़्यादा समय ना रहे हों, लेकिन जन-आंदोलनों और कविता प्रेमियों के हृदय में वो अपनी कविताओं के जरिये हमेशा मौजूद रहेंगे। गोरख पाण्डे की कविताएं आप इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं: गोरख पाण्डे की कविताएं