जब सडकें बनती हैं

सौरभ:

जब सडकें बनती हैं
तब जाकर कोई शहर
तरक्की की पहली सीढ़ी पाता है
तहसील ऑफिस के पास
प्राइवेट बैंक का ब्रांच भी
उसके बाद ही खुल पाता है
मुख्यधारा से बहुत दूर
सड़क से दूर गांवों में तो
बनती सड़क पर लदकर ही विकास आता है

हमें भी तो यही पता है
कि हमारे सामने की सड़क
चौड़ी हो..तो हम ज्यादा सभ्य
संकरी हो.. तो फिलहाल अ-सभ्य

कोई नहीं कह सकता
कि सडकें बनना ज़रूरी नहीं है

कहीं जब सड़क ना बनी हो
तो कई सौ सालों की तरक्की
वहां पहुँच नहीं पाती
इसलिए सड़क बनना बहुत ज़रूरी है

नहीं तो अस्पताल जाते-जाते
लोग यूँ ही मर जाते हैं
सामान बाज़ार नहीं पहुँचता
बाज़ार बामुश्किल घर आ पाता है

सड़कों का ठीक रहना भी बहुत ज़रूरी है
नहीं तो लोग चलते हुए गड्ढों में गिर जाते हैं
ठेला-रिक्शा, बस-ट्रक
सब पलट जाते हैं
सामन खींचते लोग
और व्याकुल हो जाते हैं

गाड़ियाँ रफ़्तार नहीं पकड़ पाते
अनायास ही दुकानों में घुस जाते हैं

इसलिए सडकें ठीक रहना भी बहुत ज़रूरी है

एक नयी सड़क जब बनती है
तो सबमें कितना उत्साह होता है
जैसे ज़िन्दगी भले ऊबड़-खाबड़ हो,
एक तरह की ना हो..
सबके लिए जगह ना बना पाए

पर सडकें बन जाए
तो सबके लिए हो जाती हैं
आज भले किसी के साथ
पास कोई चलता नहीं हो
पर सड़कों पर चलते हुए
सब सहपाठी हो जाते हैं

सड़कें जब बनती हैं,
तब कई पेड़, पौधे, जंगल उखाड़े जाते हैं
सब लोग जानते हैं
बहुत सारे पेड़ जो काटे जाते हैं
हरे भरे भी होते हैं
कई पेड़ों में पंछियों का बसेरा होता है
कीड़े-मकौड़े, चीटियाँ उसमे घुस कर रहती हैं
बन्दर कूदते हैं उनके डालों पर

शहर में बहुत नहीं है ये पेड़
इतनी सारे सड़कों को बनाने में,
मर गए – खप गए..
जो बचे हैं वह मुश्किल से खड़े हैं
पता नहीं कब पास की ज़मीन खुद जाए
कब वो थोड़ी हवा में ही धडाम से गिर जायें

कोई नही है इनका यहाँ पर
इन्हें बचाने के लिए
निछावर होने से..
सभ्यता से भी ऊंची बिल्डिंगों के लिए
या अफसरों के नए मकानों के लिए
या शहर को और सुन्दर बनाने के लिए
या फिर एक और नयी सड़क बनाने के लिए

इन पेड़ों के लिए तो प्रलाप मत करना
छाँव ना मिले तो ग़म भी ना करना
ये तो छोटी सी हानि है
अपनी सभ्यता को नयी,
महान सभ्यता बनाने के लिए

कोई चुन भी नहीं सकता
कि कितनी चौड़ी सड़क ठीक रहेगी,
कोई कभी कह भी नहीं सकता
कि यहाँ अब रहने दो..
जब आखिरी पहाड़ को काट कर
और आखिरी जंगल को खोद कर
बर्बाद कर देंगे
तो नयी बनी सड़कों से..
वहां जाकर क्या करेंगे?

इस नयी सभ्यता में हम
सड़क मांगने,
और ठीक कराने के लिए हैं क्या?

थोड़े संकरे भी रह सकती है पहाड़ियां
वहां किसी को चार-लेन सड़क नहीं चाहिए
बहते रह सकती हैं हमारी नदियाँ
हमें बड़े बांध नहीं चाहिए
हर जंगल को खोद कर
हर जीव को मार कर
उन्नति का फरेब नहीं चाहिए

ऐसा, और बहुत कुछ और ऐसा
जो कुछ हम ठीक ना पाएं
उसका क्या कर सकते हैं?
या उसका आप ही क्या कर सकते हैं?
ये विकास-विरोधी, देश-विरोधी
होने के लेबल लगाकर
क्या वो हर किसी को ही
हमेशा के लिए रोक सकते हैं?

एक इंसान का हो या सारे लोगों का
कितना ज़रूरी है ना ये संघर्ष..
अस्तित्व का, आजीविका का
अस्मिता का, आत्मसम्मान का..
संघर्ष, कि ये प्रकृति बने रहे..
संघर्ष, कि साँसे महंगी ना होती जाएँ
कि सारा जीवन ही ख़त्म ना हो जाए..

इसमें हम लोग किस तरफ खड़े हैं?
इसमें आप किस तरफ खड़े हैं?
सबको पता तो है क्या करना है,
तो फिर भी आखिर क्यूँ डर रहे हैं?

सिर्फ एक पेड़ लगा कर
नल से पानी बचा कर
सुबह उठकर गहरी सांसें लेकर
ये धरती नहीं बचेगी
आँखें बंद करके जागने से
ये ज़िन्दगी नहीं बचेगी

पर सडकें बनना बहुत ज़रूरी है
उनका ठीक रहना भी बहुत ज़रूरी है

Author

  • सौरभ / Saurabh

    सौरभ, सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े हैं और दिल्ली की संस्था श्रुति के साथ काम कर रहे हैं। 

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