आशुतोष मिश्रा:
इंडिया लेबरलाइन (1800-833-9020)
एक मज़दूर जो अपनी आजीविका के लिए घर छोड़कर इस आशा के साथ पलायन करता है कि उसे रोज़गार मिलेगा। इसी रोज़गार के ज़रिए वो अपने जीवन के बेहतरी का सपना देखता है, जिसमें परिवार के पोषण की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ भुखमरी से पीछा छुड़ाने का संघर्ष शामिल होता है। ऐसे में भारत के गाँवो औऱ शहरों में कामगारों की बहुत बड़ी आबादी है, जो आमतौर पर एक जगह से दूसरी जगह काम की तलाश में विस्थापन का मार झेलती है। ये मज़दूर ज्यादातर दिहाड़ी पर काम करते हैं, जो दिहाड़ी होती है वो अमूमन काफी कम होती है। इससे मज़दूर कभी अपनी गरीबी के कुचक्र को तोड़ ही नहींं पाता।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक भारत में कम से कम 92 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इनमें लगभग 12 करोड़ भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों, खेतों या कारखानों में काम करने के लिए हर साल मौसमी पलायन करते हैं। ये ऐसा कार्यबल है कि इनके बिना शायद ही भारत के कारखाने, खेत और निर्माण स्थल संचालित हो पाएँ। फिर भी उन्हें कम वेतन औऱ खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। हमारा क्रूर कॅारपोरेट समाज इनकी आत्मा को मसल कर, हर दिन इन्हें हाशिए पर ढ़केल देता है। उद्योग जगत औऱ सरकारें मिलकर ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हैं कि इन्हें सगंठित होने का मौका ही नहींं मिलता। इसलिए समाज के हर एक मंच से ये मज़दूर पूरी तरह अनुपस्थित रहते हैं।
इसमें कोई संदेह नहींं कि देश में दशकों से चलती आ रही ठेकेदारी की प्रथा मज़दूरों के भविष्य को अंधकार से भर देती है, दिहाड़ी का अच्छा खासा हिस्सा श्रमिकों से छीन लेना ठेकेदारों के लिए सामान्य बात है। सदियों से जारी इन त्रासद स्थितियों के बीच जीने को बाध्य मज़दूर वर्ग शायद ही ये कल्पना कर पाता हो कि इस अमानवीय व्यवहार के खिलाफ ये मूक समाज उनके साथ संगठित होकर, एक दिन इस परिस्थिति को बदल देगा। ये सोचना बेमानी है, क्योंकि इसी प्रगतिशील समाज ने श्रमिकों को हमेशा से गुलामी की जंजीरों से जकड़ कर रखा है। कोरोना काल में तो कार्पोरेट समाज का दोहरा रूप दुनिया के समक्ष प्रतिबिंबित भी हो गया।
कोरोना त्रासदी के दौरान मज़दूरों की वीभत्स पीड़ा की तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखी हैं। प्रवासी मज़दूरों के बीच जान बचाने और अपने घरों को लौट जाने की देशव्यापी दहशत के बीच सरकार पूरी तरह असंवेदनशील नज़र आई। सरकार के इस क्रूरता भरे रवैये ने देश के लाखों मज़दूरों को, सड़कों पर भूख औऱ प्यास से मरने के लिए छोड़ दिया था। यह त्रासदी भरी घटना आज भी कामगारों के भविष्य पर सवालिया निशान लगा रही है। सरकार ने तो इसे टीवी डिबेटों में नियति का नाम देकर पल्ला झाड़ लिया है पर बेबस, लाचार, शोषित, दमित श्रमिकों के जेहन में अंनतकाल तक ये भयानक समय जीवंत रहेगा कि उसने बीमारी के साथ-साथ भूखमरी की दोहरी मार भी झेली थी।
नेशनल कमीशन फॅार इंटरप्राइजेज इन द अन-आर्गेनाईज्ड सेक्टर के आंकड़ों के मुताबिक भारत के GDP (सकल घरेलू उत्पाद) का 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के उन 50 करोड़ कामगारों के पसीने और कठोर परिश्रम से आता है, जो रेहड़ी-पटरी, कूड़ा बीनने, बीड़ी बनाने, रिक्शा चालक, निर्माण, कृषि, चमड़ा कामगार और इसी प्रकार के अनेक अन्य कार्यों में लगे हुए हैं। ये आंकड़ा झकझोर कर रख देने वाला है। जिन मज़दूरों के हाथों में इस देश की अर्थव्यवस्था की बागडोर है, उनके हाथ में एक पाई भी नहीं है। अधिकांश मज़दूर आज भी न्यूनतम मज़दूरी से वंचित हैं। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार के ऐतिहासिक फैसले में कहा था, कि जो न्यूनतम मज़दूरी से कम पर काम कर रहा है, वो गुलाम है।
इस परिभाषा को राष्ट्रीय मानवाधिकार ने भी मान्यता दी है। ऐसे में सरकार श्रमिकों के लिए कई कल्याणकारी कदम उठाने का भले ही दावा कर रही हो, लेकिन ज़मीनी हालात इसके बिल्कुल उलट हैं। क्योंकि सरकारी विभाग में भी न्यूनतम मज़दूरी से कम पर काम कराया जा रहा है। आंगनवाड़ी, आशा और मिड-डे मील कार्यकर्ता, सरकारी विभागों में बंधुआ मज़दूर की तरह ही हैं। ऐसे में सरकार से सामाजिक न्याय की अपेक्षा रखना अंधेरे में तीर चलाने जैसा है।
लेकिन कुछ संगठन आज भी मज़दूर अधिकारों औऱ श्रमिकों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सरकार और समाज दोनों से संघर्ष कर रहे हैं। उन्हीं मे से एक मज़दूरों को जागरूक करने औऱ सामाजिक न्याय दिलाने के उद्देश्य से श्रमिक अधिकारों के लिए संघर्षरत वर्किंग पीपुल्स कोलिएशन जो कि श्रमिक संगठनों का एक गठबंधन है और आजीविका ब्यूरो जो कि लगभग एक दशक से अंसगठित क्षेत्र के मुद्दों पर काम कर रहा है और साथ ही राजस्थान सरकार के साथ मिलकर मज़दूरों के लिए एक राज्यस्तरीय हेल्पलाइन भी चला रहा है। इन दोनो संगठनों ने मिलकर असंगठित कामगारों लिए राष्ट्रीय हेल्पलाइन की शुरूआत की, जिसका नाम इंडिया लेबरलाइन (1800-833-9020) है। इस हेल्पलाइन की शुरूआत साल 2021 में की गई और पहले चरण में इस हेल्पलाइन को देश के पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक औऱ तेंलागना से जोड़ा गया।
इंडिया लेबरलाइन का मुख्यालय मुंबई में स्थित है, जहां देश के विभिन्न राज्यों से रोज़ाना सैकड़ों शिकायतें आती हैं। इन शिकायतों में ज़्यादातर चोरी हुई मज़दूरी से संबधित मामले होते हैं। कुछ मामलें कार्यस्थल पर दुर्घटना से जुड़े होते हैं, तो वहीं लेबर कार्ड से जुड़ी जानकारी के लिए भी श्रमिकों के फोन आते हैं। इंडिया लेबर लाइन का मुख्य मकसद शहरी इलाकों में अंसगठित कामगारों के अधिकारों औऱ उनकी मज़दूरी का संरक्षण करना है।
इसी तरह 12 जनवरी को हेल्पलाइन पर तमिलनाडु के सेंट थामस रेलवे स्टेशन पर काम कर रहे 11 कामगारों ने शिकायत दर्ज कराई कि, उनकी 39 दिनों की मज़दूरी 2 लाख 17 हज़ार 300 रूपये का भुगतान ठेकेदार ने नहींं किया है। ये सभी कामगार झारखंड के सिंघभूम जिले के रहने वाले हैं जो दो महीने पहले काम की तलाश में तमिलनाडु आए औऱ ‘साकार इंजीटेक प्रा.लि.’ के साइट पर मज़दूरी कर रहे थे। कामगारों में शिकायत दर्ज कराने वाले मज़दूर करन लागुरी जो कि हेल्पर का काम करते हैं ने बताया कि, पिछले 39 दिनों से मज़दूरी न मिलने से इन कामगारों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। स्थानीय मदद न मिलने के बाद करन औऱ उनके मज़दूर साथियों ने इंटरनेट के माध्यम से लेबरलाइन तक पहुंच बनाई और अपनी को समस्या को साझा किया।
शिकायत के बाद हेल्पलाइन ने इस गंभीर मामले को लेकर त्वरित कार्रवाई शुरू कर दी, जिसमें सबसे पहले कंपनी के मालिक को इस शिकायत की जानकारी देकर ये बताया गया कि आप मुख्य मालिक हैं औऱ ठेकेदार ने अगर तत्काल पेंमेंट नहींं किया तो श्रम कानूनों के तहत आपकी जवाबदेही तय की जाएगी। इस पर मालिक ने कहा कि अभी तक ये मेरे संज्ञान में नहींं आया है, लेकिन मैं अपने अधिकारियों से इस बारे में पूछताछ करके पुष्टि करूंगा। इसके बाद ठेकेदार से भी बात की गई।
मध्यस्थता के बाद ठेकेदार ने मज़दूरी का भुगतान अगले 10 दिनों के भीतर करने का आश्वासन दिया। इस दौरान लेबरलाइन के कर्मचारी लगातार मज़दूर और मालिक के संपर्क में बने रहे। बातचीत औऱ मध्यस्थता के उपरांत इस केस को लेबरलाइन ने सुलझा लिया औऱ कामगारों को मज़दूरी का 80 फीसदी से ज़्यादा हिस्सा 1 लाख 92 हज़ार 300 रूपये मिल गए। बाकी बची मज़दूरी काम पूरा होने के बाद कंपनी कामगारों के बैंक खाते में स्थानांतरित कर देगी। करन लागुरी औऱ उनके 11 साथी मुस्कुराते हुए कहते हैं कि उन्हें अभी भी विश्वास नहींं हो रहा है कि उनकी मज़दूरी मिल गयी और वो सकुशल अपने घर लौट आए है।
इंडिया लेबर लाइन के माध्यम से अब तक सैकड़ों कामगारों को एक करोड़ 11 लाख रूपये से ज़्यादा चोरी हुई मज़दूरी मध्यस्थता के जरिए दिलवाई गई है। लेबरलाइन के पास ऐसी लगभग 1800 शिकायतें है औऱ 30 हज़ार से ज्यादा श्रमिकों की पहुंच इंडिया लेबरलाइन तक है। ऐसे में इंडिया लेबरलाइन लाखों श्रमिकों के लिए एक उम्मीद की किरण है, जो उनके हितों का संरक्षण करने औऱ अंसगठित क्षेत्र के स्वरूप को बदलने में मददगार साबित हो रहा है। मज़दूर के हाथों में अब ये टोलफ्री नंबर नामक हथियार है, जो उन्हें निडर बना रहा है।
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