अरविंद अंजुम:

ईचागढ़ झारखंड प्रदेश का एक विधानसभा क्षेत्र है। इसी इलाके में सुवर्णरेखा नदी पर चांडिल बांध बना है जिसमें 116 गांव के 15 हज़ार परिवार घर-बार से उजड़कर विस्थापित हो चुके हैं। विगत 4 दशकों से विस्थापितों के समुचित पुनर्वास के लिए संघर्ष चल रहा है। स्वाभाविक है कि चुनाव के समय यह मसला राजनीतिक पटल पर उभर कर आ जाता है। तरह-तरह के वायदे किए जाते हैं, प्रलोभन की बातें तैरने लगती हैं, विस्थापितों को कई प्रकार के हथकंडो से लुभाया जाता है।

इस तरह ईचागढ़ क्षेत्र किसी भी राजनैतिक किरदार के लिए उर्वर है। बस उसे कुछ टोटके इस्तेमाल भर करने हैं। जमशेदपुर शहर के एक दबंग व्यक्ति को भी वर्षों पहले विधायक बनने की लालसा जग गई। कई तरह के कार्यक्रम आयोजित होने लगे। फुटबॉल खेलों, ड्रामा, नृत्य आदि में पुरस्कार तथा विस्थापितों के बीच राहत सामग्रियों का वितरण किया जाने लगा। इसी क्रम में एक ‘विशाल भोज” का आयोजन किया गया। इस भोज की सूचना (निमंत्रण नहीं) पर ही झुंड के झुंड लोग उमड़ पड़े। भीड़ अप्रत्याशित थी। खाने की तो कमी नहीं थी लेकिन अंत तक पत्तल घट गया। लोग खाने के लिए बेताब और बेकाबू हो रहे थे। बाज़ार से पत्तल लाने में विलंब होता। अंततः परिस्थिति की नज़ाकत को समझते हुए दावेदार महोदय ने अपने रचनात्मक दिमाग का परिचय देते हुए उपाय सुझाया। उसने अपने कारिंदों से कहा ऐसा करो जी, ज़मीन पर ही खाना परस दो और लगे हाथ प्रजाजनों की ओर मुखातिब होकर कहा, तुम लोग ऊपर-ऊपर का खा लेना। महान आश्चर्य! कोई टीका-टिप्पणी नहीं, हिल-हवाला नहीं, इज्ज़त नहीं। ज़मीन पर खिचड़ी परोसा गया और लोगों ने ऊपर-ऊपर का खा भी लिया। इस तरह जनता का ‘महाभोज’ सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।

इस भोज में शामिल होने वाले लोग वही हैं जो भतीजी-भतीजे के विवाह में भाई द्वारा खुद घर आकर निमंत्रण नहीं देने पर मुंह फुला बैठते हैं, कभी-कभार तो उस समारोह में शामिल भी नहीं होते। अगर समयाभाव के चलते किसी के द्वारा निमंत्रण भिजवा दिया जाए तो उसे ‘फेंका-निमंत्रण’ कह कर स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन यही लोग ‘फेकन्त-उड़न्त’ सूचना पर इकट्ठा हो गए। अंत में शामिल लोगों ने कुत्तों की तरह आहार ग्रहण किया।  यह जानना दिलचस्प होगा कि ऐसा करते वक्त उनका ज़मीर कांपा था या नहीं?

सुवर्णरेखा नदी के किनारे कुछ परिवार इसकी मिट्टी और बालू से छानकर सोने के कण इकट्ठा करते हैं। यह इनका पुश्तैनी काम है। फिर वे कणों को स्थानीय व्यापारी को बेच देते हैं। सहदेव साव नाम के एक करोड़पति व्यवसाई हैं जो इस सोने को खरीदते हैं। ये ईचागढ़ गांव के निवासी हैं जो चांडिल जलाशय में पूर्ण रूप से डूबने वाला है। जब पहली बार सरकार ने चांडिल जलाशय में पानी संचय किया तो कई गांवों में पानी घुस गया। प्रशासन की ओर से प्रभावितों के बीच राहत पैकेट वितरित किया गया जिसमें अनाज, चीनी, मोमबत्ती, माचिस इत्यादि थे। जब राहत वितरण चल रहा था तब सहदेव साव भी उस लाइन में लग गए। एक-दो लोगों ने तंज कसते हुए कहा, मोशाय! आप भी! सहदेव साव ने निसंकोच तपाक से उत्तर दिया, “जब सरकार दे रही है तो क्यों नहीं लें?” 

इसी दौर की एक और घटना है। चांडिल शहर के एवरग्रीन क्लब के कुछ युवा रोटी-सब्जी का पैकेट बनाकर प्रभावितों के बीच नाम से जाकर बांट रहे थे। बाबूचामदा गांव के पास किनारे पर पैकेट बांटने के लिए उतर ही रहे थे कि ग्रामीणों ने उनका सब कुछ लूट लिया। हालांकि उन्हें यह पता था कि ये सामग्री उन्हीं के बीच बांटी जाने वाली है। फिर भी ऐसा हुआ। वैसे आए दिन हम लोग सुनते ही रहते हैं कि दुर्घटना के बाद वाहन में रखे गए सारे माल-असबाब अगल-बगल के लोगों द्वारा लूट लिए गए। दिन-प्रतिदिन इस प्रकार की घटनाएं बढ़ती ही जा रही है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी दल की दमदार जीत की पड़ताल करते हुए एक नया कथानक उभरा है। यह कहा गया कि ‘लाभुक वर्ग’ ने चुनाव परिणामों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। हांलाकि यह गणित और कथा अपेक्षाकृत गरीब-पूर्वांचल में सिद्ध नहीं होता है। लेकिन फिलहाल यह यहाँ का प्रसंग नहीं है। राज्य की कल्याणकारी योजनाओं से जिन्हें फायदा होता है, उसे लाभुक कहा जाता है। यह कहा गया कि हर व्यक्ति को 5 किलो मुफ्त अनाज उपलब्ध कराने की योजना ने सत्ताधारी दल की पकड़ को मजबूत बनाए रखा। सत्ताधारी दल ने चुनाव प्रचार में भी इस विषय को छेड़ा था। इतना ही नहीं नमक वितरण को भी याद किया गया। जनता को यह बार-बार एहसास दिलाया गया कि उसे ‘नमक का शुक्रिया’ अदा करना है।

पिछली, यानी यूपीए की सरकार ने गरीब एवं कमज़ोर वर्गों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक कानून बनाकर जनता को अधिकार सम्पन्न बनाया था। इसमें सरकार के प्रति एहसान फरामोशी का तत्व नहीं बल्कि अधिकार बोध शामिल था। विगत सरकारों ने कमज़ोर वर्गों को मुफ्त या लगभग मुफ्त अनाज उपलब्ध कराने के लिए अंत्योदय एवं अन्नपूर्णा योजनाओं को लागू किया था। प्रति व्यक्ति 5 किलो अनाज देने की योजना कोरोना काल में शुरू हुई जो चुनाव को ध्यान में रखते हुए अब भी जारी है।

जन-वितरण प्रणाली, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मुफ्त अनाज का अधिकार आदि से जो सफर शुरू हुआ था वह आज सरकार एवं सत्ताधारी दल के उपकार और अहसान में बदल गया है। इस तरह से किसी भी जीवंत लोकतंत्र में नागरिक बोध का हरण हो जाना एक खतरनाक मोड़ है और इस मोड़ पर आत्महीन जनता (प्रजा, लाभुक) हक़ को भीख और भीख को हक़ समझने लगती है, और इस मोड़ पर लोकतंत्र एक मृत नागरिकों का प्रहसन बन जाता है।

फीचर्ड फोटो आभार: फ्लिकर

Author

  • अरविंद / Arvind

    श्रुति से जुड़े झारखण्ड के संगठन विस्थापित मुक्ति वाहिनी को बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले अरविन्द भाई, अभी जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी के अंशकालिक कार्यकर्ता हैं। अध्ययन, अनुवाद, प्रशिक्षण जैसी वैचारिक गतिविधियों में विशेष सक्रियता के साथ-साथ स्थानीय और राष्ट्रिए स्तर के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सवालों पर विशेष रुचि और समय-समय पर लेखन का काम करते हैं।

    Anjum Arvind

Leave a Reply

Designed with WordPress

Discover more from युवानिया ~ YUVANIYA

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading