मुनीष कुमार: 

30 मई, 1930 भारत के इतिहास का अविस्मरणीय दिन है। इस दिन उत्तराखंड के बड़कोट में स्थित तिलाड़ी के मैदान में अपने अधिकारों के लिए सभा कर रहे आंदोलनकारियों पर राजा नरेन्द्र देव की फौज ने गोलियां चलाई थी। उत्तराखंड के इस जलियांवाला बाग कांड में 200 लोग शहीद हुए थे। इन शहीदों का कसूर मात्र इतना था कि वह ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा लागू किए गये वन अधिनियम 1927 के आने के बाद जनता के जंगलों से लकड़ी, घास व अपनी जरुरत की वस्तुएं लाए जाने व पशु चराने पर लगाए गये प्रतिबंधों के खिलाफ एक सभा कर रहे थे। 

अंग्रेजों द्वारा जनता के जंगलों पर अधिकार व हक-हकूक खत्म किए जाने के खिलाफ उत्तराखंड की जंनता के संघर्षों का गौरवशाली इतिहास रहा है। उत्तराखंड के इतिहासकार शेखर पाठक बताते हैं कि 1921 में जनता के सशक्त प्रतिरोध के कारण अंग्रेजी हुकूमत को 3 हजार वर्ग मील इलाके को संरक्षित वन की अधिसूचना रद्द कर उन्हें जनता को वापस करने के लिए मजबूर होता पड़ा था। जंगलों पर अधिकारों के संघर्ष ने जनता के बीच में स्वतंत्रता संग्राम के महत्व को भी स्थापित किया। वन आंदोलनों ने जनता के बीच में राजशाही व ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जागृति पैदा की। 1927 के वन अधिनियम के आने के बाद टिहरी रियासत के राजा नरेन्द्र शाह ने जनता के जंगलों पर जाने पर पाबन्दियां लगानी शुरु कर दी। जंगलों की मुनारबंदी करवा दी गयी। जनता के वनों में जाने पर लगे प्रतिबंधों के कारण जंगलों के कच्चे माल से चलने वाले कुटीर उद्योग ठप हो गये। जंगलों से लकड़ी, बांस, रिंगाल और बांगड़ आदि लाने पर प्रतिबंध लगा दिये गये। जंगलों में मवेशी चुगाने (चराने) पर भी रोक लगा दी गयी। 

टिहरी रियासत की जनता राजा द्वारा थोपे गये विभिन्न प्रकार के टैक्सों से पहले से ही बेहद दुखी थी। राजा ने जंगलों की सीमा विस्तार का कार्य शुरु करवाकर किसानों के गाय व पशु चराने के स्थल भी छीन लिए। दुखी किसानों की समस्या का जंगलात के अधिकारियों ने समाधान करने से इनकार कर दिया तथा कहा कि गाय बछियों के लिए सरकार किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं उठाएगी, तुम इन्हें पहाड़ी से नीचे गिरा दो। इसको लेकर जनता के बीच अंग्रेजी हुकूमत व उसकी दलाल राजशाही के खिलाफ रोष और भी बढ़ गया। जनता ने संगठित होकर अपनी पंचायत का गठन किया। कन्सेरु गांव के दयाराम, नगाण गांव के भून सिंह व हीरा सिंह, बड़कोट के लुदर सिंह व जमन सिंह व दलपति, भन्साड़ी के दलेबु, चक्रगांव के धूम सिंह, खरादी के रामप्रसाद, खुमन्डी गांव के रामप्रसाद नौटियाल आदि के नेतृत्व में क्षेत्र की जनता संगठित होने लगी।

आंदोलन को दबाने के लिए राजा की सेना ने 20 मई, 1930 को 4 किसान नेता दयाराम, रुद्र सिंह, रामप्रसाद व जमन सिंह को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार लोगों को डीएफओ पदम दत्त रतूड़ी के साथ टिहरी भेज दिया गया। अपने नेताओं की गिरफ्तारी की खबर सुनकर जनता का आक्रोशित होना स्वभाविक था। बड़ी संख्या में लोग अपने गिरफ्तार नेताओं के पास पहंच गये तथा गिरफ्तारी का विरोध करना शुरु कर दिया। डी.एफ.ओ पदमदत्त ने जनता पर फायरिंग कर दी, जिसमें दो किसान शहीद हो गये। डी.एफ.ओ पदमदत्त मौके से भाग गया। इस घटना ने जनता के क्रोध की आग में घी का काम किया। आक्रोशित लोगों ने एकत्र होकर शहीद किसानों की लाशों के साथ टिहरी रियासत का राजमहल घेर लिया। जनता के आक्रोश के आगे पुलिस ने गिरफ्तार किये चारों किसान नेता रिहा कर दिये। 

राजशाही के अत्याचारों से तंग होकर आंदोलन की आगामी रणनीति बनाने हेतु 30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में एक सभा का आयोजन किया गया। अंग्रेजी हुकूमत व राजशाही ने आंदोलन के बर्बर दमन की तैयारी कर ली। राजा के सैनिकों ने सुबह से ही सभा स्थल को तीन तरफ से घेर लिया। राजा के दीवान चक्रधर जुयाल ने निहत्थे लोगों पर फायरिंग का आदेश दिया। सैनिकों ने मैदान को घेरकर 3 तरफ से गोलियां बरसानी शुरु कर दीं, जिसमें सैकडों लोग मारे गये। जान बचाने के लिए लोग पेड़ों पर चढ़ गये तथा यमुना की तेज धारा में कूद गये। इस दिन यमुना का जल शहीेदों के रक्त से लाल हो गया। राजा की फौज ने दमन चक्र को आगे बढ़ाते हुए क्षेत्र में घर-घर जाकर तलाशी अभियान शुरू कर दिया। सभा में शामिल जिन्दा बचे लोगों में से 68 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। अभियुक्तों को बाहर से वकील लाकर पैरवी करने की अनुमति तक नहीं दी गयी। सभी अभियुक्तों को एक वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजाएं सुनाई गई। 

आंदोलनकारियों पर जेल में भी अत्याचार जारी रहे, जिस कारण सजा काटने के दौरान 15 लोगों की जेल में ही मृत्यु हो गयी। 1947 में देश से अंग्रेजों के जाने के बाद भी टिहरी का अलग अस्तित्व बरकरार रहा। जनता के बीच में टिहरी रियासत के भारत में विलय को लेकर आंदोलन तेज़ हो गये। 1949 में टिहरी रियासत का भारत में विलय कर दिया गया। ‘आजाद’ भारत में अत्याचारी राजा को गिरफ्तार कर जेल में डालने व उसकी सम्पत्ति जब्त करने की जगह उसका मान-मनोवल किया गया, जो कि आज तक जारी है। ‘आज़ाद’ भारत के शासकों ने भी औपनिवेशक वन अधिनियम, 1927 को जस का तस बरकरार रखा। 

यह लेख पहले जनज्वार पर प्रकाशित हो चुका है, जिसे आप यहाँ जाकर पढ़ सकते हैं।

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