प्रतिकूल फैसलों के बाद भी हसदेव बचाने का संघर्ष जारी है: अभी जग जीता नहीं है और हम हारे नहीं हैं

सत्यम श्रीवास्तव:

हसदेव अरण्य के मामले में न्यायालयों की दखल 

एक दशक से छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य को बचाने को लेकर चल रहे संघर्ष का स्वरूप अब स्थानीय से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ले चुका है। 4 मई को हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के आव्हान पर पूरे देश में 500 से ज़्यादा जगहों पर एक साथ प्रतिरोध करते हुए और हसदेव बचाओ आंदोलन के साथ एकजुटता का मुजाहिरा किया गया। तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया के समानान्तर और कहीं ज़्यादा लोकतान्त्रिक सामाजिक मीडिया में हसदेव अरण्य एक मुख्य स्वर बन चुका है। 

एक दशक से छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य को बचाने को लेकर चल रहे संघर्ष का स्वरूप अब स्थानीय से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ले चुका है। 4 मई को हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के आव्हान पर पूरे देश में 500 से ज़्यादा जगहों पर एक साथ प्रतिरोध करते हुए और हसदेव बचाओ आंदोलन के साथ एकजुटता का मुजाहिरा किया गया। तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया के समानान्तर और कहीं ज़्यादा लोकतान्त्रिक सामाजिक मीडिया में हसदेव अरण्य एक मुख्य स्वर बन चुका है। 

इस आंदोलन को लेकर अलग-अलग मामलों को लेकर अलग-अलग न्यायालयों का रुख भी किया गया था। 11 मई 2022 को दो अलग-अलग मामलों में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय से अलग-अलग नतीजे सामने आए हैं। 

भूमि अधिग्रहण से जुड़े मामले में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने ग्रामीणों की याचिका को खारिज किया

पहला मामला, छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति की तरफ से दायर उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें छत्तीसगढ़ राज्य सरकार द्वारा परसा कोल ब्लॉक के लिए भूमि-अधिग्रहण में पेसा कानून को दरकिनार किया जा रहा है। 

हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति की ओर से दायर याचिका में न्यायालय के समक्ष यह मामला लाया गया था कि परसा कोल ब्लॉक संविधान की पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र के तहत है जहां पेसा कानून 1996 लागू है। पेसा कानून के तहत ग्राम सभाओं को विशेष शक्तियाँ हासिल हैं। इन शक्तियों में किसी भी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण से पहले ग्राम सभा की सहमति का प्रावधान है। सरकार इस क्षेत्र में कोयला संधारण क्षेत्र कानून (कोल एरिया बेयरिंग एक्ट), 1957 का इस्तेमाल कर रही है और इसके लिए पेसा कानून के तहत ग्राम सभाओं को हासिल शक्तियों को दरकिनार किया जा रहा है। 

उल्लेखनीय है कि कोयला संधारण क्षेत्र (कोल एरिया बेयरिंग एक्ट, 1957) के माध्यम से भारत सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी कोल इंडिया को यह सहूलियत दी गयी है कि वह बिना ग्राम सभाओं की सहमति के भी भूमि-अधिग्रहण कर सकती है। लेकिन परसा कोल ब्लॉक, राजस्थान राज्य विद्युत निगम व अडानी कंपनी का संयुक्त उपक्रम है जिसमें भी अडानी की कंपनी परसा केते कोलरीज़ लिमिटेड की भागीदारी राजस्थान सरकार से ज़्यादा है। इस लिहाज से इस संयुक्त उपक्रम को निजी क्षेत्र की तरह देखा जाना चाहिए। निजी क्षेत्र की कंपनी के लिए पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में पेसा कानून को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। 

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने हालांकि उपलब्ध प्रमाणों और नज़ीरों के मद्देनजर राजस्थान राज्य विद्युत निगम व अडानी कंपनी के संयुक्त उपक्रम के पक्ष में फैसला सुनाया है और इसे कानूनी रूप से उचित माना है कि पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में निजी कंपनियों के लिए भी कोल एरिया बेयरिंग एक्ट के तहत भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में ग्राम सभाओं की सहमति ज़रूरी नहीं है। 

यह न केवल परसा कोल ब्लॉक बल्कि अन्य राज्यों में कोयला संधारण क्षेत्रों के लिए एक नयी नज़ीर बन गयी है बल्कि हर उस क्षेत्र के लिए एक अहम फैसला है जहां कोयला उपलब्ध है। हम जानते हैं कि कोयला जंगलों में होता है, जंगलों में प्राय: आदिवासी समुदाय निवास करते हैं, आदिवासियों की जनसंख्या के आधार पर ही ऐसे क्षेत्रों को संविधान की पाँचवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है और ऐसे क्षेत्रों में ही संविधान के 73वें संशोधन के तहत विकेन्द्रीकरण व्यवस्था के तहत पेसा कानून, 1996 अमल में आता है और पेसा कानून के तहत ही ग्राम सभाओं को विशिष्ट शक्तियाँ हासिल होती हैं। बिलासपुर उच्च न्यायालय के इस फैसले से न केवल भूमि-अधिग्रहण के मामले में ग्राम सभाओं के सांवैधानिक रुतबे को कमजोर किया है, बल्कि विकेन्द्रीकरण की उस संकल्पना को भी गंभीर क्षति पहुंची है जो देश को अंतिम पायदान तक संप्रभुता सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाती है। बहरहाल, इस निर्णय से असहमति ज़ाहिर करने के न्यायालयीन रास्ते अभी भी खुले हैं।

दिलचस्प है कि 3 मई 2022 को बिलासपुर उच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा जल्दबाज़ी में इस कोल ब्लॉक के दायरे में आने वाले लगभग 300 पुराने दरख्तों को काट दिये जाने को लेकर नाराज़गी भी व्यक्त की थी और सरकार पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘अगर भूमि-अधिग्रहण की कार्यवाही ही गैरकानूनी साबित होती है तो क्या इन पेड़ों को वापिस ज़िंदा किया जा सकेगा?’ उस दिन के तेवर देखते हुए न केवल इस परियोजना से प्रभावित होने जा रहे स्थानीय लोगों में न्यायालय से उम्मीद बंधी थी, बल्कि पर्यावरण को लेकर चिंतित और सरोकारी नागरिक समाज को भी एक ढाढ़स मिला था कि न्यायालय भी उनके सरोकारों को लेकर संवेदनशील है। बहरहाल। 

परसा ईस्ट केते बासन कोल ब्लॉक के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कंपनी और सरकारों को जारी किया नोटिस

दूसरा मामला सर्वोच्च अदालत में 11 मई को सुना गया। यह मामला 2014 से ही सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है। 2012 में परसा ईस्ट केते बासन कोल ब्लॉक के लिए फॉरेस्ट डायवर्जन से जुड़े मामले में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के आदेश और उस आदेश पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गयी रोक से संबंधित है।  

सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव के आवेदन पर भारत सरकार, छत्तीसगढ़ राज्य सरकार व राजस्थान राज्य विद्युत निगम और अडानी के स्वामित्व की कंपनी परसा केते कोलरीज़ लिमिटेड को नोटिस जारी किया है। 

इस मामले की शुरूआत 2012 में हुई थी जब परसा ईस्ट केते बासन कोल ब्लॉक के लिए वन भूमि डायवर्जन को लेकर  सुदीप श्रीवास्तव ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में शिकायत दर्ज़ की थी। पहले से घोषित नो-गो एरिया के तौर पर हसदेव अरण्य की विशिष्ट पर्यावरणीय स्थिति को देखते हुए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने इस डायवर्जन को रद्द कर दिया था और यह आदेश भी किया था कि इस क्षेत्र की विशिष्टताओं का अध्ययन क्रमश: भारतीय वन्य जीव संस्थान (WII)भारतीय वानिकी अनुसंधान व शिक्षा परिषद (ICFRE)  द्वारा किया जाये। 

2014 में इस आदेश के खिलाफ भारत सरकार, छत्तीसगढ़ सरकार, राजस्थान राज्य विधयुत निगम व अडानी के स्वामित्व की परसा केते कोलरीज़ लिमिटेड ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल की थी। सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में हरित प्राधिकरण के आदेश को स्थगित कर दिया था। इसके बाद से यह कोयला खदान केवल सर्वोच्च  न्यायालय द्वारा हरित प्राधिकरण के आदेश पर लागाए गए स्थगन के सहारे ही न केवल संचालित हो रही है बल्कि तय समय से पहले ही लक्ष्य से ज़्यादा कोयला भी निकाल चुकी है। हाल ही में इसी खदान के विस्तार के लिए भी स्वीकृतियाँ प्रदान की जा चुकी है। 

सुदीप की तरफ से मामले की पैरवी करते हुए वकील प्रशांत भूषण ने अदालत को बताया कि आठ सालों के बाद हरित प्राधिकरण के आदेश के अनुसार भारतीय वन्य जीव संस्थान (WII) व भारतीय वानिकी अनुसंधान व शिक्षा परिषद (ICFRE) ने ज़रूरी अध्ययन किए हैं इस क्षेत्र को लेकर स्पष्ट कहा है कि जो कोयला खदानें संचालित हैं उन्हें छोड़कर इस क्षेत्र में एक भी नयी खदान खुलने से गंभीर पारिस्थितकीय संकट खड़े होंगे व मानव-वन्य जीव संघर्ष ऐसी अवस्था में पहुँच जाएगा जिसे काबू करना मुश्किल हो जाएगा। 

प्रशांत भूषण ने पैरवी के दौरान कहा कि इन आठ सालों में केंद्र ने कोई अध्ययन नहीं करवाए और नए नए कोल ब्लॉक्स आवंटित या नीलाम किए जाते रहे। अब जब अध्ययन सामने हैं तब भी नयी खदानों को स्वीकृतियाँ दी जा रहीं हैं और परसा ईस्ट केते बासन को दूसरे चरण के खनन के लिए विस्तार को भी पर्यावरणीय मंजूरी जारी कर दी गयी है। इस खदान के विस्तार के लिए कम से कम 4.5 लाख पेड़ काटे जाएँगे जिससे हाथियों के नैसर्गिक पर्यावास को गंभीर नुकसान होगा और मानव-हाथी संघर्ष बेतहाशा ढंग से बढ़ेगा।  

राजस्थान राज्य विद्युत निगम और परसा केते कोलरीज़ लिमिटेड की तरफ से पेश हुए अभिषेक मनु सिंघवी व मुकुल रोहतगी ने राजस्थान में व्याप्त कोयला संकट का हवाला देते हुए इस खदान के विस्तार को सही ठहराने की पैरवी की। यहाँ यह देखना दिलचस्प है कि कांग्रेस व भाजपा से जुड़े दोनों वकील कैसे अपनी अपनी पार्टी की विचारधाराओं को ताक पर रखकर एक कॉर्पोरेट के हित में एक साथ खड़े नज़र आते हैं।  

सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने इस मामले में चारों हितग्राहियों को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा है। हालांकि परियोजना के विस्तार पर रोक नहीं लगाई गयी। इस मामले की अगली सुनवाई अब चार सप्ताह बाद यानी मध्य जून में होगी जिसमें खदान के विस्तार पर स्थगन देने को लेकर जिरह होगी। 

बिलासपुर उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय की इन कार्यवाइयों को लेकर हसदेव बचाओ संघर्ष समिति के हौसलों और सत्य के प्रति अपने आग्रह को लेकर कोई विचलन नहीं आया है। उनका स्पष्ट मानना है कि कोर्ट का पूरा आदर करते हुए भी यह मानना अब एक भ्रम जैसा हो गया है कि क्या वाकई इस देश में न्यायालयों का कोई रुतबा रह गया है? अगर ऐसा होता तो सैद्धान्तिक रूप से परसा ईस्ट केते बासन बिना किसी जायज़ अनुमति के ही आठ सालों से क्षमता से अधिक गति से संचालित न हो रही होती। तब जबकि मामला सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के स्पष्ट आदेश पर दिये गए स्टे खुद सर्वोच्च न्यायलय ने दिया। ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए इस स्टे को ही कंपनी ने तमाम स्वीकृतियों की तरह इस्तेमाल किया है।

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