जसिंता केरकेट्टा:
वो लकड़ी ढोकर उतरती है पहाड़ से,
उसके पीछे धीरे-धीरे सूरज भी उतरता है।
दोनों को उतरते देखती है चुपचाप पहाड़ी नदी
और उसकी साँसों में शाम उतर आती है।
पहाड़ से उतर नीचे, झुककर पहाड़ी नदी में
वो मारती है पानी के छींटें चेहरे पर
और सूरज भी पोछता है पसीना
नदी के आंचल से।
घर पहुँच आँगन में, लकड़ी का बोझा पटक
वो घुस जाती है घर के अंदर
और सूरज छिप जाता है, घर के पिछवाड़े।
शाम में वो जोरती है लकड़ी
आँगन में बने मिट्टी के चूल्हे में।
चूल्हे से निकलता है धुआँ
और पेड़ों की झुरमुट से झाँकता
चाँद खाँस उठता है अचानक,
लड़की दौड़कर थपथपाती है
चाँद की पीठ।
इधर रातभर होती है ठंडी
चूल्हे में लकड़ी की राख,
उधर, रात की चादर में धीरे से
धरती समेटने लगती है अपने पाँव
और बड़ी बेफिक्री से गाढ़ी नींद में,
उतर जाता है पूरा गाँव।।
(यह कविता, जसिंता केरकेट्टा के कविता संग्रह ‘अंगोर’ से ली गयी है।)
महिलाओं के जीवन के यथार्थ को दर्शाती कविता, कवियत्री को हार्दिक बधाई।