शुभम पांडे:
भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो हमेशा से ही शादी-विवाह, समाज में यश स्थापित करने और परिवार की समृद्धि जताने और ताकत दिखाने का एक कारगर ज़रिया रहा है। फैज़ाबाद की बेगम अख़्तर अपने ज़माने में सबसे अमीर महिलाओं में से एक थीं, जिनकी शादी में 160 लाख रुपए खर्च हुए थे। आज यह करीब बारह सौ करोड़ रुप्यों के आसपास की रकम है। यह आज के समय की सबसे महंगी शादियों से भी दो गुना ज़्यादा महंगी शादी थी। लेकिन इस दिखावे के बावजूद शादी, समय के साथ एक ऐसा रिवाज़ बन गया है जो समाज को जोड़ता है और एक सामाजिक बंधन में बांध देता है।
मैं खुद 23 साल का हूं। मेरी शादी तब से खोजी जा रही है, जब मैं महज़ 16 साल का था। अभी तक दो-सवा दो दर्जन रिश्ते आ चुके हैं। कोई स्कॉर्पियो लेके शादी करने आता है तो कोई पंडितों को साइकिल पर दौड़ाता है। मेरे पिता की शादी सन 1995 में हुई थी, जब वह महज़ 17 साल के थे और 1998 में मेरा जन्म हुआ था। 17 साल की उम्र में मेरी माँ को बच्चा संभालना पड़ता था। कहानी वैसे मजेदार थी इनकी शादी की – मेरे दादा लड़के का रिश्ता लेकर मेरे ननिहाल पहुंचे थे। उस समय मां स्कूल गई थी तो उनसे तो मुलाकात या बात हो नहींं पाई।
मेरे दादा को मेरी मम्मी तो नहींं मिली थी ना वो उनकी शक्ल देख पाए तो उन्होंने रिश्ता इस बात पर तय कर दिया कि मेरी नानी पूजा-पाठ काफी करती थी और उन्हे खेत से लेकर घर के सभी काम आते थे। वो संस्कारी व मेहनती महिला थी। उस समय और आज भी मां की छवि में ही बिटिया को और बिटिया की छवि में ही मां को पहचाना जाता है। यही बाप और बेटों के साथ होता है। यदि पिता एक कामयाब मेहनत पसंद और सहज इंसान है, तो उम्मीद की जाती है कि बच्चा भी वैसा ही होगा। अक्सर यह सही भी होता है, पर इसकी कोई गारंटी तो नहींं है। इसलिए माँ बाप को देख कर बेटे बेटी का अंदाज़ लगा कर रिश्ते तय कर देते हैं। साथ में मेरे नाना के घर के बाहर एक जीप खड़ी थी और जीप से सटे दो बैल खड़े थे। यह वह समय था जब जीप का होना हवाई जहाज का मालिक होना जैसा था और बैल तो सदियों से समृद्धि के सबसे बड़े प्रतीक माने गए हैं। आज भी परिवार में घर के बाहर खड़ी गाड़ियां, खेत-खलियान, माता के संस्कार और सरकारी नौकरी देख कर ही शादियाँ तय हो रही हैं।
मम्मी और दादी से जब बात होती है तो वह अपनी शादी की बातें बताती हैं। कैसे मिट्टी के घर थे गाँव में और कैसे नई नवेली दुल्हन को शादी के अगले दिन से ही मिट्टी के लेप लगाने पड़ते थे। इसे शुभ माना जाता था और मिट्टी पर काली माता बनाकर गोबर की गौरी चढ़ाई जाती थी। तब शादी दो व्यक्तियों में नहींं बल्कि दो परिवारों में होती थी।
आज माहौल कुछ अलग है आज के युवा खासकर जो अपने जीवन में कुछ कर दिखाना चाहते हैं, या अपने जीवन में लगातार सीखने की उम्मीद रखते हैं, उनके लिए शादी एक अड़चन है। एक अड़चन जो समाज और परिवार का हथियार है। शादी करवाके युवाओं को परिवार के लोगों व अन्य रिवाज-प्रथाओं से जंजीरों से बांधते हैं। मैं खुद शादी करना नहींं चाहता। मैं ही नहीं मेरी पीढ़ी के ज़्यादातर युवा शादी नहीं करना चाहते हैं क्योंकि हमारा प्रेम प्रसंग अक्सर दूसरे धर्म और दूसरी जातियों के व्यक्तियों के साथ होता है। प्रेम के मामले में, युवा, राष्ट्र, राज्य की या धर्म की सीमाएं मानने से इनकार करता है। युवा पीढ़ी की नज़र के लिए खूबसूरती के अलग-अलग पैमाने बन चुके हैं जो पुरानी चली आ रही पगडंडियों पर नहींं चल सकते। अगर चलते हैं तो मीलों का सफर मिनटों में छोड़ कर चले आते हैं।
इन बीते सालों में फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य और परिवारिक स्वास्थ्य को खत्म किया है। बच्चे कूल दिखने के चक्कर में सोशल मीडिया पर चल रहे राजनैतिक प्रोपेगेंडा के शिकार बन जाते हैं। इस कारण माता पिता काफी असुरक्षित महसूस करते हैं कि बच्चे कहीं भटक न जाएँ और किशोरों को कंट्रोल करने के नए नए तरीके खोजते रहते हैं। असुरक्षा कि बच्चे को प्रेम ना हो जाए; असुरक्षा कि बच्चा धार्मिक मर्यादाओं को नकार ना दे; असुरक्षा कि समाज में परिवार के सम्मान पर कीचड़ ना उछले; असुरक्षा कि धर्म परिवर्तन ना हो जाए और सबसे बड़ी असुरक्षा तो यह है कि परिवार किसी पराई लड़की के हाथ ना चला जाए। जवान बेटे या बेटी को लेकर इन सब असुरक्षाओं का इलाज उन्हे केवल शादी कर देना ही समझ आता है। परंतु युवा विवाह-शादी को प्राथमिकता नहींं देता।
आज मेरे जैसे सभी और मैं भी, यही मानते हैं कि शादी दो व्यक्तियों के फैसला है। इसमें न जाति व्यवस्था, न धार्मिक व्यवस्था न लैंगिक ख़यालों का दखल होना चाहिए। लेकिन आज भी अधिकांश परिवार चाहते हैं कि दहेज में मोटी रकम मिले। अधिकांश शादियों में टाटा मैजिक लगातार दौड़ते हैं, जिसमे दहेज चुपके से झांकता दिखता है। टाटा मैजिक में वाशिंग मशीन से लेकर टॉयलेट सीट तक दहेज में बांटी जाती है। ना ये वाशिंग मशीन मानव विचारों को साफ कर पा रही है और ना यह टॉयलेट सीट शरीर में बसी गंदगी (जाति व्यवस्था, भेदभाव, नफरत) को कम करने में असफल रही है। युवा, हमेशा प्रयास करते हैं कि अनुकूल साथी मिले। युवा चाहता है कि वह लिव-इन में रह सके जिससे उसके साथी के बारे में वह पूरी तरह जाने और रिश्ते की नीव बनाएं।
ज़ाहिर है कि इन कारणों से युवाओं कि अपने पारिवारिक रिश्तों में रस्सा काशी चलती रहती है।
खुद रंग युवाओं की महफिलों में अक्सर इस बात का जिक्र मिलता है कि वह अपने साथी के साथ लिव-इन में रहना चाहते हैं, पर परिवार का डर और समाज का दर्पण अक्सर ऐसे रिश्तों को नकार देता है। जिससे हिंसक प्रवृत्तियाँ युवाओं में दिखती हैं। मैं यह जानता और मानता हूं कि अच्छे या यह कहूं सही फैसले, हमेशा अच्छे नहींं लगते हैं और वह फैसला शादी का हो तो आज भी सामाजिक विघटन, शादी की प्रथाओं के कारण ही है। अयोध्या में बीते दिनों में 3500 सामूहिक शादियां हुईं और ताज्जुब की बात यह है कि शादियों में एक भी शादी अंतर धार्मिक नहींं थी। मेरी उम्र की लड़कियों का तो मुझसे भी ज़्यादा बुरा हाल है, वे अक्सर परेशान रहती हैं। वे पढ़ाई करती हैं या कहीं पढ़ाती हैं, कहीं नौकरी पर जाती हैं या खुद का कोई काम बनाती है, पर यह सब बस इंतज़ार में होता है कि शादी आने वाले कितने महीनों में कर दी जाएगी।
अधिकांश युवा कोचिंग सेंटर में दिमाग तेज करने और प्रशिक्षण पाने के लिए जाते हैं, पर असलियत यह है कि वह अपने समय को इधर-उधर लगाते हैं, उनको भी मालूम है कि ना नौकरी के अवसर है और ना कमाई के जरिए जिसके कारण वह एक लंबे समय तक आर्थिक स्थिरता को हासिल नहींं कर पाएंगे। ऐसे में जब उन्हे समझाया जाता है कि शादी कर लेने से, और दहेज मिलने से वह अपने जीवन को अच्छा कर सकते हैं, तो युवा टूट जाते हैं। मेरे कितने ही दोस्तों ने कॉलेज से निकलते ही दहेज़ के लालच में शादी कर ली, क्योंकि वे अपना खुद का व्यापार करना चाहते थे जिसके लिए उनके पास पैसे नहीं थे। कुछ लड़कियां जो दोस्त थी, उनको अपने से 12 साल बड़ी उम्र के व्यक्ति से शादी जबरदस्ती करनी पड़ी क्योंकि दूल्हे का परिवार दहेज में बस एक मोटर साईकल मांग रहा था। ऐसा अक्सर देखने को मिल जाता है कि आर्थिक कारणों से शादी एक हिंसक और परेशान करने वाली प्रक्रिया बन गयी है।
मैं इस बात पर यकीन नहींं रखता की मेरा साथी एक विशेष रूप सज्जा का हो, या उसकी शारीरिक बनावट आकर्षक हो, उसके बाल लंबे हों, शरीर भरा हो या उसे घर के सभी काम करने आते हो और वो संस्कारी हो बल्कि मैं अपने साथी से ये अपेक्षा करता हूँ कि वह मेहनती और आत्मनिर्भर हो, पढ़ी-लिखी हो और समावेशी संस्कृति को समझती हो, साइंटिफिक दृष्टिकोण हो। यह नज़रिया पिछली पीढ़ी का नहींं है। युवा समझता है कि अब घर चलाने के लिए दोनों साथियों का कमाना ज़रूरी है। मध्यम और निम्न आर्थिक वर्गों की शादियों का अलग पैटर्न होता है, क्योंकि उनकी ज़रूरतें और प्राथमिकताएं अलग हैं। उच्च-मध्यम और उच्च आर्थिक वर्गों का शादी का पैटर्न बिल्कुल ही अलग है। उच्च वर्गों में शादी को पूरक और आत्म संतुष्टि का ज़रिया बनाया गया है, जहां शादी होने के बाद दोनों साथी अपने जीवन को अपने ढंग से चलाते हैं। वहीं निम्न वर्ग में शादी होने ज़रूरी है, क्योंकि बिना शादी हुए परिवार की कल्पना ही नहींं की जा सकती। निम्न हिन्दू वर्गों में शादी होना इसलिए भी काफी ज़रूरी है क्योंकि जब घर के बड़ों का इंतेक़ाल हो जाता है तो जनेऊधारी, शादीशुदा लड़का ही उनके सारे कर्मकांड कर सकता है।
युवाओं को आज सेक्सुअल जानकारियां भी काफी कम उम्र में ही मिल जाती है और उनके संभोग के भी काफी अवसर भी मिलते हैं, इससे एक परिपक्व उम्र तक उनके एक से अधिक साथी बन जाते है और वो सबको देखते-समझते हुए अपने जीवन का फैसला लेना चाहते हैं। इस जगह वो अक्सर फंस जाते हैं, क्योंकि इसका अनुभव उनके पास नहींं होता और न कोई मदद करने वाला होता है। मैं एक उदाहरण से समझाऊं तो मेरे दोस्त के स्कूल समय में काफी साथी रहे और कॉलेज में भी संख्या बढ़ती गयी पर जब जीवन में एक पड़ाव आगे बढ़ने की बात आई, तो मानसिक तौर पर वो काफी लंबे समय तक परेशान रहा, क्योंकि इतने साथियों से रिश्ते होने के बाद एक व्यक्ति के साथ जीवन बिताना उसे असंभव सा लगता था।
ये बात समझने की काफी ज़रूरत है कि युवा मानसिक तौर पर अकेला है और द्वंद की स्थिति में है। वह अक्सर दूसरे लोगों का सहारा चाहता है, पर यह सहारा वह जीवन पर्यंत नहींं बल्कि कुछ समय के लिए चाहता है। शादी एक ऐसी ज़िम्मेदारी है जो लोगों को सीमाओं में घेरती है, आप अन्य लोगों से बात नहींं कर सकते, आप अपने दोस्तों को अपने घर नहींं ला सकते, आपके जीवन को आपका साथी बदलता है, आपसे अपेक्षाएं बढ़ जाती है, आपसे ये उम्मीद होती है कि आप दूसरे का खयाल रखें। आपका साथी अगर खुले खयालों का नहींं है तो वो आपकी प्राइवेसी की इज़्ज़त भी नहींं करता, आपको आर्थिक तौर पर कोडिपेंडेंट होना पड़ता है, अपने सपनो और फैसलों के स्वरूप को बदलना पड़ता है, परिवार की तरफ से भी ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जाती है। ऐसे में जो युवा की जो ऊर्जा उसके पढ़ने-लिखने में लगनी थी वो इन सभी उलझनों में फंस कर खत्म हो जाती है और मानसिक अवसाद बढ़ता है।
जैसी दुनिया की स्थिति है इसमें जनसंख्या बढ़ाई जाए यह मूर्खता के अलावा और कुछ नहींं, पर हर मनुष्य अपने बीज को जीवित रखना चाहता है, 20 साल का होते होते शादी और 25 साल तक औलाद की कामना देश के युवाओं के कौशल और प्रोडक्टिविटी को लगातार निचले स्तर पर लाता जा रहा है।
युवा शादी के दबाव में मानसिक तनाव से गुज़र रहा है। परिवारों में, समाज में सभी लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि हमारे समाज में शादी से ध्यान हटाकर शिक्षा व कौशल पर ऊर्जा लगाने की ज़रूरत है। भेदभाव, हिंसा, गैर बराबरी, लैंगिक हिंसा, और शारीरिक उत्पीड़न खत्म करने के लिए हमारे काम करने के तरीकों में काफी बदलाव लाने की ज़रूरत पड़ेगी। इसमें एक बड़ा बदलाव यह है कि शादी डेमोक्रेटिक तरीके से और बिना सामाजिक जंजीरों के कराई जाए, जहां दो नागरिकों को उनके सभी अधिकारियों को समझाते हुए एक अच्छे जीवन का अवसर मिल सके।
मैं यह गलत नहींं कह रहा कि आज भी महिलाओं के गहने गिरवी पड़े हैं सुनारों के पास, ताकि उनकी बिटिया शादी के लिबास में रोते हुए घर से निकाली जा सके। समाज को युवा से ये उम्मीद छोड़ देनी चाहिए कि वो 12 साल स्कूल में पढ़े फिर जैसे ही 21 साल का हो अच्छी नौकरी पकड़ कर शादी कर ले। क्योंकि युवा चाहता है प्राथमिक शिक्षा के बाद 3 साल स्नातक, 2 साल में पारा-स्नातक फिर रिसर्च या नौकरी करे। लगभग 28 साल की उम्र के बाद अपने जीवन में वह शादी की तरफ सोचना शुरू करे और 30-32 साल तक शादी करे जब वो आर्थिक रूप से मजबूत हो। 21 से 32 के बीच 11 साल का अंतर है और यही 11 साल परिवार युवाओं को दबाव में रखता है और हिंसक प्रवितियाँ को बढ़ावा देता है।
युवा बदलाव चाहता है, पितृसत्ता में झकड़ा हुआ युवा डरता है, पर सत्ता उसके हाथ से चली ना जाए इस बात से घबराता भी है। शादी अपने से कमतर महिला से करना चाहता है, जो गुलामी के अलावा कुछ और ना करें और शादी रिवाज इस पूरे कर्मकांड में उसकी मदद करते हैं, यह समाज के टोचन है जिन्हें तोड़ना बहुत जरूरी है।