महिपाल:
जल-जंगल-ज़मीन बचाने के लिए हसदेव बचाओ पदयात्रा की शुरुआत 4 अक्टूबर को हसदेव अरण्य क्षेत्र के मदनपुर गाँव के उस स्थान से हुई, जहाँ साल 2015 में राहुल गाँधी ने हसदेव अरण्य क्षेत्र की समस्त ग्राम सभाओं के लोगो को संबोधित करते हुए उनके जल-जंगल-ज़मीन को बचाने के लिए संकल्प लिया था और कहा था कि वे इस संघर्ष में उनके साथ हैं।

सरगुज़ा जिले के ग्राम घाटबर्रा, फतेहपुर, साल्ही, हरिहरपुर, पाली आदि गाँवों के लोग, पैदल मार्च करते हुए मदनपुर पहुँचे। मदनपुर में एकजुट होकर यात्रा प्रारम्भ करने से पहले ग्रामीणों ने उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में शहीद हुए किसानो को श्रद्धांजलि अर्पित की और एक सभा का आयोजन किया। मदनपुर से शुरू हुई इस पदयात्रा को हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष श्री उमेश्वर सिंह आर्मो ने संबोधित किया और दुख जताया कि खुद को आदिवासी हितों का रक्षक बताने वाली पार्टी और संवैधानिक अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास करने वाले राजनीतिक दल के सत्ता में होने के बावजूद भी हमें अपने अधिकारों की रक्षा के लिए यह पदयात्रा निकालनी पड़ रही है। अडानी को जिस प्रकार केंद सरकार, देश के तमाम संसाधनों को सौंपने की कोशिश कर रही है उस प्रक्रिया में राज्य सरकार भी अपना पूर्ण सहयोग दे रही है।
यह पदयात्रा, 10 दिनों में 300 किमी से अधिक की दूरी तय कर 13 अक्टूबर को रायपुर पहुंचेगी। हर्दी रंगल चाउर (हल्दी से रंगे चावल) का तिलक लगाकर लोगों ने यात्रा शुरू की ही थी कि प्रकृति गरज पड़ी। तेज़ आँधी-तूफान ने कुछ समय के लिए इसे रोक दिया, लोग जहां-तहां खुद को भीगने से बचाने दौड़ पड़े। तकरीबन चालीस मिनट बाद मौसम ने सभी यात्रियों को आगे बढ़ने की स्वीकृति दी। लोगों ने आगे बढ़ना शुरू ही किया था कि खबर आई कि कुछ लोग (जो सभी शराब पिये हुये हैं) एक बस लेकर यात्रा को रोकने आ रहे हैं। लोग तो पहले से ही काफी डरे हुए थे, क्योंकि पहले यह पदयात्रा फतेहपुर के एक मैदान से शुरू होने वाली थी, लेकिन अडानी कंपनी द्वारा लोगों को सुबह से ही शराब और पैसा देकर यात्रा को ना होने देने और किसी भी तरह लोगों को यात्रा में शामिल नहीं होने देने के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया था। 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के दिन ग्राम सभा को तय समय पर नहीं होने दिया गया, जिसके लिए कंपनी ने कुछ स्थानीय लोगों को शराब-पैसे देकर और पुलिस प्रशासन की मदद लेकर ग्राम सभा रोकने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। दोपहर में ही सही लेकिन फिर भी ग्राम सभा हुई और लोगों की एकजुटता को देख, विरोध कर रहे लोगों को आखिर पीछे हटना ही पड़ा।

4 अक्टूबर से शुरू होने वाली इस पदयात्रा में लोगों को शामिल न होने देने के लिए कंपनी के लोगों द्वारा फिर से माहौल खराब किया गया, गाँव के लोगों को उनके गाँव के भीतर ही रोकने के प्रयास किए गए। इस कारण कई गाँव से लोग यात्रा में समय पर जुड़ नहीं पाए। किन्तु जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ती गई, लोग जुड़ते गए और कारवां बनता चला गया। इस पदयात्रा में कोरबा पुलिस प्रशासन का सहयोग भी सलाम करने के काबिल रहा, पूरी यात्रा के समय ये लोग लगातार साथ बने रहे।
यात्रा को हर जगह स्थानीय लोगों का भरपूर समर्थन मिला, एक भी समय पदयात्रियों को खुद से नाश्ता नहीं बनाना पड़ा। हर कोई खुद से आगे आकर सहयोग दे रहा था। एक छोटे से ठेले पर पान मसाला बेचने वाले से लेकर स्वर्ण आभूषण बेचने वाले के साथ, स्थानीय क्षेत्र के विधायक, नगर पंचायत सदस्य, अध्यक्ष और आम जनमानस तक इस यात्रा को अपना पूर्ण सहयोग दे रहे थे। ज़रूरी नहीं कि लोग केवल पैसों या भारी जन समर्थन से ही इस यात्रा के साथ हों। एक छोटी सी दुकान चलाकर जीवन-यापन कर रहे एक व्यक्ति ने पैसे नहीं होने पर यात्रियों के लिए अपनी दुकान से पानी का पूरा दर्जन पैकेट सहयोग के रूप में दिया, यह सब नज़ारे देखने लायक थे। सोचिए कि उस यात्रा में शामिल लोगों का क्या हौंसला बना होगा। यात्रा में एक 6 साल की छोटी सी बच्ची से लेकर 90 वर्ष के बुजुर्ग भी चलते दिखे। पदयात्रा को लोगों के साथ-साथ सोशल मीडिया और स्थानीय मीडिया से भी भरपूर सहयोग मिला।

बिना थके यह यात्रा एक-एक पड़ाव पारकर 13 तारीख को रायपुर पहुंची, जिसे ना आँधी, ना धूप और ना ही धूल भरी सड़कें और उन पर पूंजीवादियों के ऐशो-आराम के इंतज़ाम लिए चलाए जा रहे कोयले से भरे ट्रक रोक पाए। हज़ारों लोगों की आजीविका को छीनकर बेधड़क सड़कों को रौंदने वाले यह ट्रक लोगों का हौसला डिगा नहीं पाए। हसदेव बचाने निकली इस पदयात्रा ने एक नया इतिहास बनाया है, जिसे आने वाली कई पीढ़ियाँ याद रखेंगी।
यात्रा में शामिल पवन कुमार सिंह तंवर ने बताया कि वह एक किसान हैं। उनका गांव इस कोल आवंटन क्षेत्र में नहीं आता, फिर भी वह इस यात्रा में शामिल हैं। पवन कहते हैं, “धरती हमारी माँ हैं, जो जीवन देती है और सबका पेट भरती है, इंसान से लेकर जानवर, कीट-पतंगों को हवा देती है। अगर ये ही नहीं रही तो हम सब मर जायेंगे। आज सबके गांव की ज़मीन, जंगल को खत्म किया जा रहा है। हो सकता है कि कल हमारा भी नंबर आए! अगर इसके खिलाफ आज नहीं उठे तो कल कौन साथ देगा? कौन इस धरती और इस जंगल को बचाएगा? पूर्वजों के समय से चली आ रही हमारी संस्कृति, हमें जंगल में रहना उसका रख-रखाव करना सिखाती है, ताकि हम सबका गुज़र-बसर चलता रहे। बूढ़ा देव, करम देव व हमारे अन्य देवी-देवता सब पीढ़ियों से इन्ही जंगलों में बसे हैं, ऐसे में हम कैसे अपने जंगलों को कटने और उजड़ने दें? आज तक किसी भी सरकार ने हमें एक आवास (पक्का मकान ) तक नहीं दिया, अब आगे क्या देगी?”
मियां बाई कहती हैं, “हम अपनी ज़मीन बचाने रायपुर जा रहे हैं। हम सरकार को कहेंगे कि हमें हमारी जगह पर ही रहने दो, हमारा जंगल हमें कभी भूखा नहीं सोने देगा। हमें खदान के बदले पैसा नहीं चाहिए, हम पैसे से नहीं जीते, जो थोड़ा बहुत पैसे की ज़रूरत है, वह हम अपने जंगल और खेत से उगाकर जुटा लेते हैं। आदिवासी समाज को बाहर से क्या मतलब है? हम नून और मसाला छोड़ सब कुछ अपने आप ही जुटा लेते हैं। दातुन से लेकर खाने-पीने और हवा-पानी की व्यवस्था हम खुद ही कर लेते हैं। हमें कुछ नहीं चाहिए इस सरकार से, हम अपने जंगलों और खेतों में खुश हैं।“
यात्रा में शामिल 24 साल के एक युवा साथी अंगत राम विजपाल एक किसान हैं। अंगत का कहना है, “खेती करता हूँ, अपने जंगल से महुवा, तेंदु पत्ता, सराई, कंद-मूल-फल चुनकर लाते हैं, जिससे जीवन यापन हो जाता है।“ यात्रा में शामिल होने का कारण पूछने पर अंगत ने बताया, “मेरे दादा ने कहा कि हमेशा अपनी खेती करना, हम आदिवासी लोग हैं, बाहरी दुनियाँ में हम लोगों का कोई नहीं है। ये धरती हमारी माँ है, इसी से हम सब का पेट भरता है। इसे किसी भी कीमत पर हम खदान के लिए नहीं देंगे चाहे जितना भी पैसा क्यूँ ना मिले।“
यह यात्रा गाँधी जी के विचार को साथ लेकर चल रही है। गाँधी के सपनों के भारत में व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण की बात की गई थी। उनका कहना था कि मैं एक ऐसे भारत के लिए काम करूँगा जिसमें गरीब-से-गरीब व्यक्ति भी यह महसूस करेगा कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसकी आवाज़ के लिए भी जगह है। एक ऐसा भारत जिसमें लोगों के बीच गैर बराबरी नहीं होगी।