अमित:
अब सोचता हूॅं कि ऐसा कैसे हुआ कि इतने सालों में कभी नियोगी से मिला ही नहीं? नियोगी से हम लोग कभी नहीं मिले लेकिन उनका संगठन, उनका संघर्ष और उनका जुझारू चरित्र हमारे लिये प्रेरणा स्त्रोत था। अनेक कारणों से नियोगी एक विशाल व्यक्तित्व थे, लेकिन अफ़सोस है कि देश के संघर्षशील युवाओं के बीच उनकी बातों का विस्तार उस तरह से नहीं हुआ जैसे होना चाहिये था।
बिना फ़ेसबुक, व्हॉट्सैप आदि के भी, उस ज़माने में मध्य प्रदेश के पूर्वी कोने के बस्तर ज़िले से पश्चिमी कोने के झाबुआ ज़िले तक बातें फैलती थीं, पत्रिकाओं और मित्रों के माध्यम से। हाथ से एक-एक अक्षर जमा कर लेटर प्रेस पर छापी गईं पत्रिकाओं की बहुत अहम् भूमिका थी विचारों के फैलाव में और पोस्टल विभाग की भी जिनके द्वारा दूर दरास्त के गॉंवों तक इन्हे पहॅुंचाया जाता था।
उनके काम के बारे में पहली बात तो यह ही आई थी कि एक जुझारू नेता है जो दल्ली राजहरा की लोहा खदान मज़दूरों के हकों के लिये लड़ रहा है और मज़दूरों को संगठित कर रहा है, छत्तीसगढ़ माइन्ज़ श्रमिक संगठन के तले। यह स्वयं भी अनेकों बार जेल जा चुका है और मज़दूरों के बीच ही रहता है। इस मज़दूर यूनियन के कारण मज़दूरों की मज़दूरी काफ़ी बढ़ गई है। फिर यह सुना कि मज़दूरी तो बढ़ गई लेकिन इसके साथ शराब पीने का चलन भी बढ़ गया। शराब की बिक्री बढ़ाने के लिये शराब ठेकेदारों नें यह बात फैलाई कि कोयला खदानों में काम करने से फेंफड़ों मे कोयला जम जाता है और शराब इसे शरीर से निकाल देती है। इसके लिये लोगों को इसका विज्ञान समझाते हुए शराब के विरोध में बहुत असरकारक आंदोलन चलाया गया। यूनियन में महिलाओं की भागीदारी पर भी ज़ोर दिया गया जिससे मज़दूरी के पैसों पर उनका नियंत्रण बढ़े।
मज़दूर आंदोलनों की छवि जो दुनिया के सामने आती है, वह है मज़दूरी की दर को बढ़ाना। पहली बार हम सुन रहे थे कि मज़दूर यूनियन शराब के खि़लाफ़ आंदोलन चला रहा है। केवल वेतन नहीं मज़दूरों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिये भी सक्रियता से काम कर रहा है। केवल कार्यस्थल नहीं, उनके घरों तक भी जा रहा है। मज़दूरों और आदिवासी किसानों की एकता के आधार पर एक नये समाज के निर्माण का सपना देखने वाले कार्यकर्ताओं के लिये दल्ली राजहरा के छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संगठन की कहानी एक परी कथा जैसी स्वप्निल और रोमांचक थी। जिन गॉंवों से श्रमिक आते थे और खदानों के आस-पास के आदिवासी गॉंवों में भी इस मज़दूर संगठन नें किसानों को संगठित करने का काम किया।
मज़दूरों के जीवन को बेहतर बनाने के विचार से ही निकला शहीद अस्पताल और शहीद स्कूल। इसमें भी नायाब बात यह सुनी कि मज़दूरों ने अपने वेतन से चंदा देकर ही इस स्कूल और अस्पताल का निर्माण किया। कुछ डाक्टरों और अध्यापकों ने इसमें अपना जीवन झोंक दिया। यह विचार कि जनता के पैसे से जनता के संस्थान बनाये जाने चाहियें और ये बनाये जा सकते हैं – आज तक हमारे साथ बहुत प्रबल है। इसी कारण से आधारशिला को गत बीस वर्षों से बिना संस्थागत पैसे के स्थानीय लोगों और मित्रों के योगदान से हम चला पाये। जनता की ताकत से बने, जनता के संस्थान। यह ही तो होना चाहिये। इसी से तो लोगों को अपनी ताकत का अहसास होता है। जनता द्वारा ही तो रचा जाना चाहिये नया समाज। इसी विचार को रेखांकित करता नारा – संघर्ष और निर्माण एक तरह से सामाजिक परिवर्तन के काम का मार्गदर्शक बन गया है।
आदिवासियों और मज़दूरों की श्रम आधारित संस्कृति व संघर्षशील इतिहास को उजागार करने के लिये संगठन ने सांस्कृतिक काम भी किया व बस्तर के आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी श्री वीर नारायण सिंह की कहानी को ढूॅंढ कर उनकी जयंति मनाना शुरू किया।
आलीराजपुर में आदिवासियों के आत्मसम्मान और अपने संसाधनों के लिये लड़ने वाले खेड़ुत मज़दूर चेतना संगठ में भी यह विचार, संगठन के लिये एक मूल विचार बना। यह बहुत गहराई से समझ आया कि संगठन का काम केवल अपने हकों को स्थापित करने के लिये संघर्ष करना ही नहीं है। संघर्ष के साथ साथ नये समाज की रचना करने के काम के प्रयोग करते रहना भी उतना ही ज़रूरी काम है संगठन का।
गैर दलीय राजनीति के रास्ते से काम करने वाले लोगों के लिये नियोगी की राजनैतिक सोच, आज के समय में अत्यंत प्रासंगित और ज़रूरी है। मज़दूरों और किसानों को अपने मुद्दों पर व्यवस्था से लड़ते हुए उन्होने, एक नये समतामूलक छत्तीसगढ़ राज्य के विज़न को सामने रखा जिसमें श्रमिकों का शोषण नहीं होगा, सबके लिये पीने का साफ़ पानी होगा, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्थायें होंगी। इस सपने को मज़दूरों के मनों में उतारा। ऐसा करते हुए इस शोषण और दमनकारी व्यवस्था के स्वरूप को समझाया। यह समझना की लोगों की समस्याएँ इस लालच और शोषण पर टिकी व्यवस्था के कारण हैं।
इस सपने को साकार करने के लिये छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा नामक राजनैतिक पार्टी का गठन किया जो चुनाव में उतरी और क्षेत्र से एक विधायक भी जीत कर आये। मुझे याद है सी.एम.एम. का एक पोस्टर हमारे पास डाक से आया था। सफ़ेद रंग का सादा सा पोस्टर था। लाल रंग के बड़े अक्षरों में ये साधारण सी बातें लिखीं थी – सबके लिये पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि। व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें दिमाग में आती थीं। इस सादे से पोस्टर को देख कर लगा कि यह तो बड़ी आम सी बातें लिखी हैं। लेकिन फिर सोचने पर समझ आया कि ये बातें आम लोगों की ज़िन्दगियों से जुड़ी हैं। यह छोटी-छोटी बातें भी सपनों की तरह ही हैं। नये समाज का सपना गरीब वर्ग के जीवन को बेहतर बनाने के लिये ही तो देखा जा रहा है।
मानवीयता और सादगी से ओतप्रोत इस ज़बरदस्त नेता के बारे में ऐसी कहानियॉं भी मशहूर हैं कि कभी भी संगठन के साधनों को व्यक्तिगत कामों के लिये इस्तेमाल नहीं करते थे। उनकी निष्ठा और ईमानदारी दर्शाने वाली अनेकों ऐसी कहानियॉं हैं।
जैसे-जैसे सी.एम.एस.एस. (छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ) का राजनैतिक प्रभाव बढ़ता रहा और मेहनतकश वर्ग के बीच इनकी पैठ मज़बूत होती गई, सरकार और स्थानीय पूॅंजीपतियों को ये ज़्यादा ज़्यादा खटकने लगे और एक सुनियोजित तरीके से 28 सितम्बर 1991 को शंकर गुहा नियोगी को गोली मारकर हत्या कर दी गई।
नियोगी केवल खदान मालिकों, स्थानीय प्रशासन, शराब ठेकेदारों के लिये खतरा नहीं थे। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो आने वाले समय में देश के स्तर पर भी पूॅंजीवादी व फ़ासीवादी ताकतों के लिये खतरा हो सकते थे। इस तरह के करिश्माई नेता को अपने रास्ते से दूर करना ज़रूरी हो गया था। शराब माफ़िया द्वारा ही 28 सितम्बर 1991 को नियोगी का कत्ल करवा दिया गया। इसी साल उनके द्वारा लिखे गये लेखों से पता चलता है कि उनकी राजनैतिक नज़र कितनी पैनी थी। आज की स्थितियों को उन्होने तीस साल पहले भॉंप लिया था और बहुत स्पष्टता से इन लेखों में लिखा था। इन्हे आप यहॉं पर पढ़ सकते हैं –
यह महज़ एक इत्तेफाक नहीं है कि 1991 ही वह वर्ष था जब हमारे देश पर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने नकेल कसनी शुरू की और मुक्त बाज़ार के लिये निजीकरण व वैश्वीकरण की नव उदारवादी आर्थिक नीतियॉं लागू होना शुरू हुई।
शहीद शंकर गुहा नियोगी, ज़िन्दाबाद। इस कठिन दौर में आप, सभी संघर्षशील साथियों के आइकॉन होने चाहिये।
“वह ज़िन्दा है जनता के बीच
जनता जन्म देती है शहीदों को
ओ हत्यारों! तुम जान ले सकते हो विप्लवियों की
लेकिन क्या तुम मार सकते हो विचारों को ?”
– (कॉमरेड शंकर गुहा नियोगी के तीन लेख नामक पुस्तिका से साभार)
I remember him from my days in bhilai 1970s