आदिवासियों से ज़मीन छिनने की कहानी
अमित:
मध्य प्रदेश के सतना ज़िले के श्री साधूराम से सुनकर अमित ने लिखी
यह कहानी सतना ज़िले के एक गाॅंव की है। सतना ज़िला, मध्यप्रदेश के उत्तर पूर्व कोने में स्थित, बघेलखण्ड पठार क्षेत्र का हिस्सा है। यह वह इलाका है जहाॅं, कहा जाता है कि राम-सीता ने अपने चौदह साल के वनवास में कुछ समय बिताया था। यह गाॅंव चित्रकूट शहर के पास स्थित है और यहाॅं के लगभग सब आदमियों के नाम के पीछे राम लगा हुआ है।
यह बात, 18 अक्टूबर, 2000 को मवासी जाति के सत्तर वर्षीय श्री साधूराम के पिता ने मुझे सुनाई थी। इस क्षेत्र में मवासी, कोल आदिवासी रहते हैं, साथ ही उच्च जाति के लोग भी रहते हैं। गाॅंव में व सरकारी काम काज में इन्ही का दबदबा रहता है। राजाओं के राज में गया प्रसाद राजा था। बरौंधा में रहता था। अंग्रेज़ साहब आता था तब यहां का – कोठी और बरौंदा का राजा उन्हे थैली भेंट करता था।
जब अंग्रेज़ थे तब यहां घनघोर जंगल था, जानवर रहते थे। सौराज (स्वराज) का झंडा आने के बाद घनघोर जंगल धुंआधार कटने लगा। ठेके में जंगल कटा। बाहर के लोगों ने ठेके लिये थे। लेकिन तब इतनी सुविधा रही कि खेती आज़ाद थी। ज़मीन के पट्टे किसी के पास नहीं थे। खाली 20 या 25 भाग लगते थे – मतलब 20 या 25 हिस्से में से एक हिस्सा देना होता था। तिलहन में 16 भाग लागत रहे। चना में भी 16 में एक और जौ में 20 भाग लागत रहे। चाहे जहां जोतें, भाग लगत रहै। मकान बने हैं, उसके और आसपास की खेती का भाग नहीं देना पड़ता था, केवल जंगल की खेती का ही भाग देना पड़ता था। खाने-पीने का पहले ठीक था। आज़ाद जोतत रहा।
जब देश आजाद हो गया, सर्वे बंदोबस्त बना तब दो आना छः पैसे की मज़दूरी चली। सौराज (स्वराज) का झंडा आया तब की यह बात है। तब पट्टा बना। हमारी ज़मीनों का भी पट्टा बना लेकिन हमें नहीं मिला। किसी और नाम से बन गया। जंगल प्रबंध बना तब हर चीज़ पर रोक लगी। ऐसी हालत हो गई जैसे हमारे में कहते हैं – घर बखर सब आपका है लेकिन डेहरी के अंदर पांव मत रखना। हर साल कोई नया नाकेदार आकर भूमी काटने का पैसा मांगता।
जबसे कागज़ के नोट निकले तो इन कागज़ के नोटों ने मानो हमारी ज़िंदगी खींच लिया।
साची कहे तो फांसी होय, लाबर लडडू खाये।
गरीबन कोय बात न पूछे, लातन कचरे जाये।
गरीब किससे हैं? गरीब ज़मीन से हैं। हमारे बुढ्ढों नें बहुत ज़मीन बनाई (खेती लायक) लेकिन अब किसी के पास केवल दो बीगा, किसी के पास चार बीगा – इससे ऊपर ज़मीन नहीं है। इससे बहुत गरीबी और मुसीबत झेल रहे हैं।
बड़े का परसे का कहै, दूध मेघ अस बरसै।
गरीबन का बात न पूछै, भाजी का जी तरसै।
सारे कर्मचारी मज़गवां में रहते हैं। वहां बैठे-बैठे हमारी ज़मीन कब लाला, बामण की हो जाती है हमको पता ही नहीं चलता। अब देखो यहां इस गाँव में किसी का नाम नहीं है। लेकिन यहां कोई लाला-बामण आकर बसेगा तो उसका गाँव कहलायेगा। हमारे नाम से क्यों नहीं चल सकता गाँव? गाँव हमारा, नाम लाल साहब का। खेत हमारा, पट्टा पण्डित जी का। आपको इस गाॅंव में बहुत से मिलेंगे जो रात को केवल पानी पीकर सो जाते हैं।
रजवाड़े के समय राजाओं के दलाल यहां थे। वह एक मन (लगभग 40 किलो) पका तो एक कुरई (लगभग छः किलो) ले जाते थे। शुरू में तो हम अपना हल जोतते थे। जब ब्राहमण आये तो उनका हल जोतने लगे। अगर हमारे में से कोई जोतता था अपना खेत, तो उसे युक्ति या धमकी से रोक देते थे।
हम लोगों में बुद्वि भी कम है और युक्ति भी कम है। सब हाथ से छिन गया। कोई बोल नहीं सकता था। जो बोलता था उसे गाॅंव से भगा देते थे या उसके साथ या उसके परिवार के साथ कुछ न कुछ हो जाता था। आज भी हमारे लोग बड़े जात वालों के सामने नहीं बोल सकते। यह तो संगठन बनने से अब थोड़ी बहुत हिम्मत कर रहे हैं। इसीलिये तो आप से बोल रहे हैं। नहीं तो ऐसी बात हम किसी से नहीं बोल सकते थे।
जैसे कहते हैं राई कोई मोल से नहीं मिलती, यह तो अपने शरीरों से उपजती है।
वैसे ही हमारी इस घनघोर पीड़ा से ही लड़ाई उपजेगी।
फीचर्ड फोटो प्रतीकात्मक है।