गोपाल लोधियाल:
मैं गांव हूं,
तुम चले गए थे मुझे छोड़कर,
मुझे औने-पौने दाम में बेचकर।
मैंने सदियों पाला था तुम्हें,
जब तुम गए कह रहे थे,
क्या रखा है इस गांव में?
मैंने बहुत कोशिश की तुम्हें रोकने की,
कभी घराट (पन चक्की) की आवाज़ से,
कभी गधेरे की सुसाट से,
कभी किसी धार से,
ऊंचे डानो से,
कभी हियून बनकर, कभी चौमास बनकर।
बाखली के आंगन से,
मीठे सरिले सेव खुमानी पुलम अखोड़ बनकर,
तुम नहीं रुके।
तुमने कहा क्या रखा है इस गांव में?
तुम्हीं ने मुझे भूतिया गांव बनाया,
जब शहर ने तुम्हें दुत्कार दिया,
तब तुम्हें याद आई अपने गांव की,
मैं आज भी जिंदा हूं,
तुम्हारे इंतज़ार में,
बांज बुरांश अयार,
फ़्योली पैंया,
सिंलग की बास में नाज की सार में।
आओ फिर आबाद करो गांव को,
मैं गांव हूं हयालू मयालू में गांव हूं।
