मध्य प्रदेश के निमाड़ इलाके में मनाए जाने वाले भंग्रिया या भंगोरिया हाट की कहानियाँ

युवानिया डेस्क:

ये कहानियाँ जामसिंह पिता मटला ग्राम लखनकोट; सुरबान, ग्राम ककराना; शंकर तड़वाल, अलीराजपुर; मुकेश डुडवे, बड़वानी आदि लोगों से पूछकर संकलित की गई हैं। युवानिया पत्रिका व आधारशिला शिक्षण केन्द्र द्वारा आदिवासी संस्कृति को समझने के लिये यह लोककथाएँ और किंवदंतियाॅं एकत्रित की जा रही हैं।

होली पर्व से पहले 7 दिन का विशेष हाट लगता है, जिसे भंग्रिया या भंगोरिया कहते हैं। भंग्रिया शब्द कहाॅं से आया होगा? इस शब्द व इस मेले/हाट को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ हैं। अधिकतर आदिवासियों को भी नहीं मालूम कि इसका अर्थ क्या है। शहर के लोग इस शब्द को लेकर गलत-सलत बातें प्रचारित करते हैं। युवानिया ने इसका सही अर्थ और उत्पत्ति जानने की कोशिश की है। इसके लिए हमने मध्य प्रदेश के बड़वानी, अलीराजपुर और झाबुआ ज़िलों के अनेक लोगों से पूछा। यह काम अभी अधूरा है लेकिन अब तक मिली जानकारियों को आपसे बाॅंटने के लिये यहाॅं लिख रहे हैं।

बारेली, पावरी, भिलाली भाषा के भंग्रिया शब्द को हिन्दी भाषी, शहर व अखबार वालों ने भंगोरिया बना दिया है और वे इसका संधि विच्छेद करके बताते हैं कि भंगोरिया मतलब भगा के ले जाने वाला मेला। इस तरह के अर्थ निकालकर वे प्रचारित करते हैं कि आदिवासियों में यह प्रथा है कि इस मेले में युवक, युवतियों को भगा कर ले जाते हैं। कुछ बाहरी लोग इसे आदिवासियों का स्वयंवर तक कहने लगे हैं। भंग्रिया भील, भिलाला, बारेला व पावरा आदिवासियों का एक प्रमुख मेला है। आदिवासी बहुल पश्चिम मध्य प्रदेश, पूर्वी गुजरात व उत्तर महाराष्ट्र के झाबुआ, धार, बड़वानी, खरगोन, अलीराजपुर, छोटा उदयपुर, नन्दुरबार ज़िलों में यह मेला होली के पूर्व सप्ताह में हर हाट बाज़ार में लगता है।

इसकी उत्पत्ति की अनेक कहानियाॅं अलग-अलग इलाकों में प्रचलित हैं।

झाबुआ जि़ले की एक कहानी के अनुसार भगोर गाॅंव से यह नाम पड़ा। कहते हैं कि झाबुआ के पास भगोर गाॅंव में एक राजा रहता था। एक बार राजा का नौकर, राजा की लड़की को लेकर भाग गया। राजा ने उन्हे बहुत ढूंढा पर वे नहीं मिले। उन्हे पकड़ने के लिए राजा ने मेला भरने की तरकीब सोची। राजा ने सोचा कि मेला देखने के लिए वे दोनो ज़रूर आएंगे, तब उन्हें पकड़ लेंगे। इस तरह भंग्रिया मेले की शुरुआत हुई। कुछ इसी तरह की कहानी धार जिले के डही गाँव में भी सुनी गई।

एक अन्य कहानी के अनुसार झाबुआ के नज़दीक के भगोर गाॅंव में भगु नामक राजा का राज्याभिषेक समारोह किया गया था। तब से हर वर्ष मेला भरने की परम्परा की शुरुआत हो गई जो आज तक भंग्रिया के रूप में जारी है। झाबुआ ज़िले में आज भी भगोर उपजाति का भील समुदाय निवास करता है।

बड़वानी व अलीराजपुर के बारेला व भिलाला समाज की होली संबंधी लोक कथाओं में भंग्रिया नाम के एक पात्र का वर्णन है। लोगों से बात करने पर पता चलता है कि भंग्रिया दलित समाज का लड़का है। ये कहानियाॅं व गीत, आदिवासियों और दलित जातियों के प्राचीन संबंधों की ओर भी इशारा करते हैं।

फोटो आभार: रोहित जैन

आलीराजपुर की कहानी का कुछ अंष

“सोनान डांडू ने आखा सामान गाड़ी मां भर लेदी। हूवी काजे कोयो कि पूनम पर आपणो काजे मथवाड़ देवतान घर राणीकाजल ने कुंदु राणा ने डोंगरिया घर पूगणो छे। गाड़ी मामार हाक कौरीन कौहली। भंग्रिया काजे मालूम हतो के होलका तोरणमाल हाट करने गयली छे। च्यू वाट मा ढोल, बाजा घुघरा ने पावली लींन नाच-कूद करने बाज गयलो। तोरणमाल मां गाड़ी चालू कौरी ने भंगरियू गाल पर कवास लागाड़ीन ने गुलाल लिन गाड़ी अगल फिर वलयू। ने हूवीन् पावर ने होलकान् डूला मां गुलाल नाखिन उड़ावी देदलू। गाड़ी मां एक सोनान साड़ी ने खाणेन थूड़क सामान होता – खान काकड़ी, खारिया, सकरिया -ये लूट लेदलू। सोनान डांडू नी हाकलाईलो।”

हुवु बाई (होली) की पूरी कहानी को यहाँ पढ़ा जा सकता है, इस कहानी में बताया गया है – 

“सोने का डण्डा और सारा सामान गाड़ी में भर लिया। होली ने कहा कि पूनम पर हमें मथवाड़ देवताओं के घर, राणीकाजल, कुंदू राणा व डोंगरिया के घर पहॅुंचना है। गाड़ी जल्दी गेर। भंग्रिया को मालूम था कि हूवी बाई तोरणमाल हाट करने गई है। वो रास्ते में ढोल, बाजे, घुंघरू, बाॅंसुरी लेकर नाच-कूद करने लगा। तोरणमाल से गाड़ी चालू हुई और जब रास्ते पर आई तो भंग्रिया मुॅंह पर कालिक पोतकर और हाथ में गुलाल लेकर गाड़ी के आगे आ गया। हुवु बाई और उसके नौकर की आँखों में गुलाल फेंक दिया। गाड़ी में रखी, एक सोने की साड़ी और खाने का थोड़ा सामान – खजूर, सेव, शक्करकंदी आदि – भंग्रिया ने लूट लिया। सोने का डण्डा बहुत भारी था, उससे नहीं उठा।” 

अलग-अलग इलाकों में ऐसी अनेक कहानियाॅं हैं। लखनकोट गाॅंव की एक कहानी में बताया गया है कि सुमना नायक की लड़की ने दरिया में मेला लगाया। मेले में आए लोग नाच नहीं रहे थे। उन सभी लोगों को सुमना नायक की लड़की मारने लगी जिससे लोगों में उछल-कूद होने लगी और जब साथ में ढोल बजाया तो यह उछल-कूद नाच में बदल गई।

बड़वानी ज़िले की कहानी के अनुसार एक बार ओलीबाई (होलीबाई) को, रास्ते में घोड़े पर बैठकर जाता हुआ भंगी राजा मिला। ओलीबाई उसे देखकर बोली – “बहुत अच्छा राजा मिला है।” फिर उस राजा और ओलीबाई में प्रेम हो गया और विवाह भी हो गया। ओली का राजा से एक बालक हुआ जिसका नाम भंगोरिया था। तब से लोग भंगोरिया मना रहे है।

अलीराजपुर में सुने एक होली के गीत की एक पंक्ति है –

भौंगी ने घौरे रौहली हुवूबाई, भौंगी ने घौरे रौई

भौंगुरियू नावे पाड़ी वो देदो, भौंगुरियू नावे पाड़यो

इस गीत में भी बड़वानी की कहानी जैसा अर्थ निकलता है। बड़वानी जि़ले में होली के बाद गाॅंवों में छोटे-छोटे मेले होते हैं। इन मेलों में कुछ लोग मन्नत लेकर अंगारों पर चलते हैं। इन मेलों के स्थान व अंगारों की लकड़ी आदि की पूजा गाॅंव के हरिजन ही करते हैं। इन किंवदंतियों में उल्लेखित पात्र – हूवी बाई, राणीकाजल, कुंदू राणो, डूंगरिया रावत, भंग्रयु –  ये इस क्षेत्र के आदिवासियों के दैविक पात्र हैं। इनका उल्लेख व इनकी विस्तृत कहानियाॅं आदिवासियों द्वारा गाये जाने वाले गायणे में मिलती हैं।

लोगों से बात करने पर यह भी स्पष्ट हुआ कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि भंगोरिया खास तौर से युवक-युवतियों की जोड़ियाँ बनाने के लिए लगाया जाने वाला मेला है। यह एक विशिष्ट हाट है जिसमें मेला लगता है, जिसमें लोग होली के त्योहार के लिये सामान खरीदते हैं। होली एक प्रमुख त्योहार होने के कारण इस हाट का विशेष महत्व है। लोगों के मन में भंगोरिया के लिए बहुत अधिक उत्साह व उल्लास होता है। गाॅंव के लड़के-लड़की नए कपड़े सिलवाते हैं। गाॅंवों से लोग ढोल लेकर आते हैं। किसका ढोल ज़ोर से बजा, यह एक चर्चा का विषय रहता है। ऐसे जोश के माहौल में युवाओं और युवतियों के बीच आँखें चार होना, अपने दिल की बात का इज़हार होना स्वाभाविक है। इसे स्वयंवर या वेलेंटाइन मेला या प्रणय पर्व कहना बिलकुल आपत्तिजनक है।

यदि यह प्रणय पर्व है और शहर के लोग इसके बारे में शौक से लिख रहे हैं तो उन्हे शहरों की सड़कों पर, दुकानों पर मोटरसाइकिलों पर खड़े लड़कों द्वारा आती-जाती लड़कियों पर किये जा रहे इशारों के बारे में भी ऐसी ही खुशी से लिखना चाहिये और उनके फ़ोटो भी अपलोड करने चाहिये। 

यह लेख आधारशिला शिक्षण केंद्र के ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। इसको पढ़ने के लिए क्लिक करें। 

बारेली भाषा में होली लोकगीत   

हुवी दीवावी दूये बयोने

भरे सीयावे आवी दीवावी बाय

भर उनावे आवी हूवी बाय

डूडे कावो मां आवली वो हूवी बाय

डूडे कावो मां आवली वो …..

वाक्या ने कुच्या लावी वो हूवी बाय

पटल्या पूजारा ने घरे वो

हूवी ने दाहड़े राबेड़ी रांदी

पेटो मां गुड़घुच्यो कोरे वो

हूवी बाय ने रातेला डूवा

केसेवेड्या रोंगे लावे वो

भावार्थ: होली और दिवाली दो बहनें हैं। एक सर्दी के मौसम तो दूसरी गर्मी के मौसम में आती हैं। होली सबसे पहले पटेल के घर आती व अपने साथ कई व्यंजन लेकर आती हैं। होली के दिन रबड़ी बनाई गई जिससे पेट में गड़बड़ी हो गई। होली की लाल रंग की आँखें हैं जो केसरी रंग (पलाश के फूलों का रंग) साथ लेकर आती है।    

(इस लोकगीत को सुरेश डुडवे ने ग्राम साकड़ की लोहंग्या बाई से सुनकर लिखा है।) 

फीचर्ड फोटो आभार: रोहित जैन

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