सौरभ सिन्हा:
झारखंड से छुड़ाए गए प्रवासी मज़दूरों की कहानी
विजय* और दिव्या* की शादी कुछ साल पहले हुई थी। दोनों छत्तीसगढ़ के बलोदा बाज़ार ज़िले के बेलडीही गाँव के निवासी हैं, जहां दिव्या के बूढ़े ससुर के अलावा वहाँ उनका और कोई नहीं है। गाँव में तो रोज़गार था नहीं – ना कोई खेती की ज़मीन थी, ना ही कमाई का कोई और उपाय। पढ़ाई भी दोनों ने 10वीं तक ही कर पाए थे। इधर-उधर किसी बहाली में लग नहीं पाए तो उन्हें काम की तलाश में घर छोड़ना ही पड़ा।

ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों से कई लोग बाहर मज़दूरी करने जाते हैं। यहाँ ठेकेदारों का एक बड़ा समूह काम करता है जो दूसरी जगहों पर मज़दूर सप्लाई करता है। इनकी ज़िम्मेदारी कम से कम होती है और फायदा पक्का होता है, इसलिए भी दबंग लोग इन कामों मे लगे होते हैं। आए दिन ये ठेकेदार और इनके दोस्त-रिश्तेदार लड़ाई, मारपीट, वसूली और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करते रहते हैं। कोई मुश्किल होने पर पुलिस-प्रशासन से सांठगांठ और बंदूक के दम पर मामला ठंडा कर दिया जाता है।
विजय को भी छत्तीसगढ़ के एक ठेकेदार ने झारखंड के चतरा जिले के बरैनी में एक ईंट भट्टे में मुंशी की नौकरी दिलाने का वादा किया था, पर 11 अक्टूबर 2019 को वहाँ ले जाकर उसे भी मज़दूरी में लगा दिया। दिव्या उस वक़्त 4 माह की गर्भवती थी। इन्हें 1000 ईंट बनाने पर 600 रुपये मिलने का तय हुआ। ऐसे काम में सारा पेमेंट घर वापस लौटते समय मिलता है, वहाँ पर बस खाने-पीने के लिए कुछ पैसे दिये जाते हैं और परिवार के लोगों के लिए आस-पास झुग्गियाँ बना कर रहने का इंतज़ाम कर दिया जाता है।
25 नवंबर 2019 को सुबह 3 बजे विजय ईंट बनाने के लिए मिट्टी भिगोने गया था। दिव्या अपनी डेढ़ साल की बेटी के साथ घर पर थी, तभी ठेकेदार मुमताज़ वहाँ आ गया और उसके साथ ज़बरदस्ती करने लगा। दिव्या के ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने के बाद आस-पास रहने वाले मज़दूर वहाँ आ गए तो ठेकेदार ने दिव्या को ज़ोर से थप्पड़ लगाया और वहाँ से निकल गया। तब तक विजय भी आ गया और दिव्या ने उसे रोते हुए सारी बात बताई। जब विजय, ईंट भट्टे के मालिक भुवनेश्वर साहू के पास इसकी शिकायत लेकर गया और वापस जाने के लिए अपनी मज़दूरी मांगी तो उन्होने उसे खूब मारा-पीटा और कहा कि अभी उसका कोई पैसा नहीं बनता।
लगभग 5 महीने की गर्भवती दिव्या की तबीयत ऐसे में खराब ना हो जाए यह सोचकर विजय और जी तोड़ मेहनत करने लगा ताकि जल्दी वहाँ से निकाल सके। फिर भी वह दिन में 200 ईंट से ज़्यादा नहीं बना पाता था, और ना ही वह अब वहाँ रहना चाहता था। लेकिन मालिक उन्हें वापस जाने नहीं देता था, और वापसी की बात करने पर गंदी गालियां देता था। ऐसे में दिव्या और विजय दोनों के साथ कई बार मार-पीट हुई। जब मार्च महीने में दिव्या का प्रसव हुआ और उनकी दूसरी बेटी पैदा हुई तो क्लीनिक से ही दोनों किसी तरह वहाँ से बचकर निकले। इसमें पास के गाँव कोची के एक अंजान व्यक्ति ने उनकी मदद की, अपने गाँव में उनके रहने का प्रबंध किया, ईंट भट्टा मालिक और ठेकेदार के गुंडों से उन्हें तीन महीनों तक छुपाकर रखा। गाँव के कुछ और लोगों ने भी दिव्या और विजय के परिवार की मदद की, जिन 4 महीने वो उस गाँव में रहे, लोगों ने उन्हें सभी ज़रूरतों के लिए पैसे से भी मदद की।

ईंट भट्टों में मजदूरों के शोषण पर कई सालों से बातें हुई हैं, कई जगह लोगों के सामूहिक संघर्ष के बाद कुछ नियम–कानून भी बने हैं। सतत प्रयास से देश में कई जगह राज्य-स्तरीय वेल्फेयर बोर्ड भी बने। कुछ सामाजिक संगठन इन ईंट भट्टा मज़दूरों के छोटे बच्चों के लिए ‘ब्रिज-स्कूल’ भी चलाते रहे हैं ताकि ये बच्चे माँ-बाप के साथ रहते हुए थोड़ी-बहुत पढ़ाई भी कर पाएँ। ज़्यादातर ईट भट्टों के मालिकों से बात-चीत और कभी-कभी पुलिस और कानून का डर दिखाकर संस्थाओं और संगठनों ने इन लोगों के मदद का प्रयास किया है। मारपीट और महिलाओं के साथ छेडछाड़ झेलते हुए, और किसी भी तरीके की सामाजिक सुरक्षा से दूर कितने ही ऐसे लोग बंधुआ मजदूरों की तरह अपनी ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं। ऐसा ही इन दोनों के साथ भी हुआ।
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जब यह बात पिथौरा की सामाजिक कार्यकर्ता राजिम दीदी तक पहुंची तो उन्होने अन्य संगठनो और अपने दोस्तों से बात की। झारखंड के जेरोम कुजूर, नेतरहाट और उससे लगे इलाकों में लंबे समय से काम कर रहे हैं। रांची से 120 किलोमीटर के दूरी पर हो रहे इस अन्याय को रोकने की ज़िम्मेदारी उन्होने अपने सर ली।
लॉकडाउन की मुश्किलों को झेलकर उन्होने कुछ व्यवस्था की, जिससे वह इनके पास पहुँच पाए। कोची पहुँचने पर उन्होने पाया कि इस परिवार को वापस भेजने से पहले गाँव के लोगों का कर्ज़ उतारना पड़ेगा। 9000 रुपये देकर उन्होने गाँव वालों को समय पड़ने मदद करने के लिए धन्यवाद दिया और रांची से जशपुर की बस में बिठा दिया। चूंकि राज्य की सीमा पार करने पर 15 दिन क्वारंटाइन होना पड़ता, इसलिए झारखंड से सटे जशपुर ज़िले की सामाजिक कार्यकर्ता ममता कुजूर से सहायता मांगी गई। कोई गाड़ी भेजकर जशपुर से उन्हें अपने घर पहुंचाना ज़्यादा ठीक था। ममता दीदी ने भी संगठन के माध्यम से महिलाओं की तस्करी, आदिवासी समुदायों के अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका के उपायों पर लंबे समय से काम किया है। उन्होने तत्परता से इन लोगों के मदद की और दिव्या से बातचीत करके उसका हौसला बढ़ाया।
विजय और दिव्या को न्याय की आशा है। जो उनके साथ मारपीट और लैंगिक हिंसा हुई है, उसकी लड़ाई पेचीदा भी है और जोखिम भरी भी। फिर भी दोनों अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए हमेशा खड़े हैं। ऐसे कई और लोग हैं जो कई मुश्किलें झेलते हुए अपनी जान जोखिम में डालकर भी आजीविका के लिए ऐसे काम करने के लिए मजबूर हैं। ऐसे में उनकी रोज़ी–रोटी, बच्चों की पढ़ाई और परवरिश, और उनकी अपनी ज़िंदगी की बाकी कठिनाइयों में मदद करने की बहुत ज़रूरत है।
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दलित आदिवासी मंच समाज के इन समुदायों के साथ पिछले 20 सालों से संगठित होकर काम कर रहा है। संगठन ने पिछले कुछ सालों में जंगल में रह रहे समुदायों के लिए पुरज़ोर आवाज़ उठाई है – कभी वन विभाग द्वारा आदिवासी समुदायों की मारपीट को उजागर किया है तो कभी समूह बनाकर महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा पर पुलिस और न्यायालय से कानूनी मदद ली है। संगठन की मार्गदर्शक राजिम केतवास छत्तीसगढ़ के विभिन्न जन संगठनों से जुड़ी हैं। अपने जीवन के पिछले 30 सालों से भी ज़्यादा का समय, उन्होने समाज में ऊंच-नीच खिलाफ काम करने और गाँव-समाज को मजबूत करने में लगाए हैं।

जब राजिम दीदी को ये खबर मिली कि एक परिवार झारखंड के चतरा जिले में मजदूरी करने गया था – और उनके साथ काफी हिंसा हुई है, तब उन्होने इस परिवार को सकुशल अपने घर पहुँचने का बीड़ा उठाया। मार्च में हुए लॉकडाउन से पूरे देश में हड़कंप मच गया था। सरकारी तंत्र पुलिस बल से मामले को संभालना चाहता था, और न्यायालय कह रहे थे कि अगर लोग पैदल चल कर जा रहे हैं तो इसमे हम क्या कर सकते हैं? लोग समझदार थे, और मजबूर। उन्हे सालों से इस तंत्र ने या तो धोखे ही दिये हैं, या झूठे वादे से उन्हें लाद दिया है।
ऐसे में लाखों लोग अपने-अपने घर लौटने के लिए पैदल या साइकल से ही निकाल आए थे। कई लोगों ने हजारों रुपये उधार लेकर अपने लिए ट्रक में लद कर आने की जगह खरीदी। झारखंड, ओड़ीशा और बंगाल जाने वाले लोग छत्तीसगढ़ के उसी क्षेत्र से गुज़र रहे थे जहां राजिम दीदी काम कर रही हैं। जब भी खबर मिलती, राजिम दीदी और संगठन के बाकी लोग उनकी मदद करने पहुँच जाते। राजधानी रायपुर से लगभग 120 कि.मी. दूर पिथौरा ब्लॉक में रहने के कारण वह खुद भी स्वास्थ्य सेवाओं से दूर थी। 56 साल की उम्र में भी इन्हें इस बात का डर एक बार भी नहीं लगा कि अगर खुद ही बीमार हो गई तो आगे क्या होगा।
“हमने कई साल इस क्षेत्र में काम किया है। आज जब लोगों को हमारी ज़रूरत है तो हम पीछे तो नहीं हट सकते। हम अपनी तरफ से इस महामारी से बचने के प्रयास में लगे ही हैं, पर अब अगर कोई बीमारी होनी होगी तो हो ही जाएगी।” वो थोड़ा सोच कर और कहती हैं – “इतनी गर्मी थी अप्रैल-मई में कि घर में पंखा-कूलर के बिना बैठा नहीं जाता, और शहरों में लोगों के पास एसी होता है इस प्रचंड गर्मी से बचने के लिए – पर ये इतने सारे लोग तो ऐसे ही चल रहे – भूखे, प्यासे, गर्मी झेलते हुए। इनकी ज़िंदगी के लिए कोई परेशान नहीं होता, यही इनकी सच्चाई है, और यही इस सभ्य समाज की भी सच्चाई है।” कहते हुए भी उनकी आँखें भर आती हैं।
समाज और सरकारी तंत्र हमेशा अपनी ज़िम्मेदारी से बचते हैं। विजय और दिव्या को आज न्याय और बेहतर ज़िंदगी इतनी नामुमकिन सी क्यूँ लगता है?
ये मुद्दे हमारे समाज और राजनीति में जगह नहीं बना पाते, क्यूंकि सारे लोगों को देश की पड़ी है – देश के लोगों की नहीं। जब लाखों लोग परेशान होकर शहरों से लौट चले, तो उन्होंने डंडे भी खाये, और माफी भी मांगी। कहीं कोई उत्पात नहीं मचाया, कोई दुकान नहीं लूटी। क्या किसी और जगह ऐसा हुआ? इसके ज़िम्मेदार कौन हैं?
न्याय का अर्थ सही मायने में लोगों तक पहुँच सके, इसके लिए मानवअधिकार और संवैधानिक मूल्यों को आगे रखना होगा। विजय और दिव्या की तरह तो कितने ही लोगों की ज़िंदगी न्याय की आशा और एक बेहतर ज़िंदगी के सपने में कहीं उलझ गई है। हमें इन्हें मिलकर सुलझाना होगा।
* बंधुआ मज़दूरी का दंश झेलने वाले इस परिवार की गोपनीयता बनाए रखने के लिए उनके नाम बदल कर लिखे गए हैं।

Excellent narration of workers on brickkilns and their exploitation.
thank you for your feedback!