संदीप कुमार:
मैंने एक आवासीय विद्यालय से पढ़ाई की है, जो कि राजीव गाँधी द्वारा चलाई गई एक संस्था द्वारा संचालित है। यहाँ विद्यार्थियों को खाना-पीना, रहना, किताबें, कपड़े और दैनिक तथा विद्यार्थी जीवन की सभी सुविधाएँ निशुल्क मिल जाती हैं। मेरे पिताजी की नज़र में यह बहुत ही अच्छा विद्यालय था और वह चाहते थे कि मैं भी इस विद्यालय में ज़रूर पढ़ाई करूं, ताकि यहाँ मिलने वाली सभी सुविधाओं का मैं लाभ ले सकूँ। मैं एक मध्यवर्गीय परिवार से होने के कारण इस विद्यालय में मिलने वाली निशुल्क सुविधाएँ शायद घर पर रहकर मुझे न मिल पाती। इस विद्यालय में प्रवेश लेने का मेरा कोई इरादा नहीं था, क्योंकि यहाँ पर घर-परिवार छोड़कर रहना था, किंतु पिताजी चाहते थे इसलिए मैंने विद्यालय की प्रवेश परीक्षा में भाग लिया, प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण भी कर ली और मेरा प्रवेश इस विद्यालय में हो भी गया।
विद्यालय में प्रवेश होने के कारण मेरे पिताजी और परिवार के सारे लोग बहुत खुश थे। मैं विद्यालय में आ तो गया था, पर मुझे यहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, घर की बहुत याद आ रही थी। जिन और विद्यार्थियों ने यहाँ प्रवेश लिया था, उनका भी यही हाल था। परंतु कुछ ही दिनों में हम सब विद्यालय के वातावरण में ढल गए और हम लोगों में अच्छी दोस्ती भी हो गई। मैं इस विद्यालय से मिल रही सभी सुविधाओं का आनंद ले रहा था, परंतु इतनी सारी सुविधाएँ पाकर मैं यह भूल गया था कि पिताजी ने मेरा प्रवेश इस विद्यालय में क्यों कराया है और मैं अपना घर-परिवार छोड़कर यहाँ क्यों आया हूँ।
मैं यहाँ की सुख-सुविधाओं में इतना खो गया था कि मैंने पूरी तरह से पढ़ाई-लिखाई से अपना मुख मोड़ लिया था। मैं अध्यापकों की बात बिल्कुल नहीं सुनता था और ना ही उनके द्वारा दिया गया कोई भी कार्य करता था। जब शिक्षक कक्षा में पढ़ाते तो मेरा ध्यान उनकी तरफ बिल्कुल नहीं रहता था और अधिकतर कक्षाओं में, मैं अनुपस्थित ही रहता था। जब कक्षाएँ चलती तो मैं अध्यापक से कोई भी बहाना बताकर, जाकर अपने कमरे में आराम से सोता था। जब मैं शिक्षकों को सम्मान नहीं देता था, तो फिर विद्यालय के चौकीदार, माली,सफाई कर्मी इन सबको सम्मान देना तो बहुत दूर की बात थी। मैं कहीं पर भी समय से नहीं पहुँचता था, चाहे वह कक्षा हो या प्रार्थना सभा या फिर खाने का समय। मैं हर जगह देर से जाता था और अध्यापक के गुस्सा होने पर मुस्कुरा देता और वहाँ से चला जाता था।
मैं सारे नियमों का उल्लंघन करता था, मेरा सारा समय खेलने, दोस्तों के साथ घूमने, सोने और किशोरावस्था में होने के कारण लड़कियों की तरफ आकर्षित होने में ही बीत जाता था। कक्षा 9वीं का छमाही इम्तिहान खत्म हो चुका था। मैं कुछ विषयों में फेल भी था, जैसे गणित, रसायन शास्त्र। पर मुझे इन विषयों में फेल होने का कोई दुख नहीं था। बल्कि ये खुशी थी कि इम्तिहान खत्म हुआ, अब दोस्तों के साथ मज़े करेंगे। इम्तिहान खत्म होने के कुछ दिन बाद पिताजी मुझसे मिलने आए। वह ऑटो रिक्शा से मुझे मिलने आते थे। ऑटो रिक्शा विद्यालय से 1 किलोमीटर पहले ही रुक जाता था और वहाँ से विद्यालय तक पैदल आना पड़ता था। इसी तरह पिताजी मुझसे मिलने आते थे। वह इस बार भी इसी तरह मिलने आए थे। विद्यालय पहुँचकर मेन गेट पर खड़े चौकीदार भैया से उन्होने मुझे बुलाने को कहा। जब चौकीदार भैया मुझे बुलाने आए तो उस समय मैं मैदान में खेल रहा था। चौकीदार भैया ने मुझे बुलाया और कहा कि तुम्हारे पिताजी आए हैं। मैं खुश हो गया कि पिताजी आए हैं। हर बार की तरह खाने की चीज़ें लाए होंगे और पैसे भी देंगे। मैं दौड़ कर उनके पास आया और उनका पैर छुआ।
मैंने देखा पिताजी के हाथ में थैला था, जिसमें हर बार की तरह खाने की चीज़ें थी और उनका शरीर पूरा पसीने से भीगा था, मानो वह नहा कर आए हों! उन्होंने मेरी तरफ प्यार भरी निगाहों से देखा और कहा, “बेटा ठीक हो..?” मैंने कहा, “हाँ पापा ठीक हूँ।” वह बोले, “तुम्हारी मम्मी भी आने को कह रही थी।” मैंने कहा, “अच्छा और मम्मी की तबीयत ठीक है..?” पिताजी बोले, “हाँ ठीक है, पर वह तुम्हें बहुत याद करती हैं।” मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “अच्छा।” फिर पापा बोले, “अच्छा यह सब बातें छोड़ो, यह बताओ तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है और तुम्हारा इम्तिहान कैसा हुआ?” यह सुनकर मैं थोड़ा शांत हो गया, फिर बोला, “हाँ पापा, पढ़ाई-लिखाई ठीक चल रही है और इम्तिहान भी अच्छे से हुआ, सारे विषय में अच्छे अंक मिलेंगे।” यह सुनकर पापा खुश हो गए और बोले, “शाबाश बेटा! ऐसे ही मेहनत करो और सारे शिक्षकों की बात मानो और अपने सारे काम स्वयं करो और समय से करो।” मैंने जवाब दिया, “जी पापा, मैं सारे शिक्षकों की बात मानता हूँ और उनके द्वारा दिए गए कार्यों को भी ध्यानपूर्वक करता हूँ और अपने सारे काम समय से कर लेता हूँ।” पापा ने मेरे सर पर हाथ फेरा और बोले, “बेटा मन लगाकर पढ़ाई करो, और मेरा और मम्मी का नाम रोशन करो।”
उन्होंने मुझे सामान से भरा थैला पकड़ाया और ₹100 भी दिये और आँसू भरी आँखें लिए बोले, “अच्छा बेटा, अब मैं जा रहा हूँ।” और फिर वह चले गए। पिताजी अभी गए ही थे कि मेरे पास रसायन शास्त्र के शिक्षक आ गए। वह मुझे आश्चर्य भरी नज़रों से देख रहे थे। मैं उन्हें इस तरह देखकर हैरान हो गया क्योंकि उनका स्वभाव बहुत सरल था और उनका क्रोधपूर्वक मेरे पास आने का कारण यह था कि उन्होंने मेरे और पिताजी की सारी बातें सुन ली थी। जब मैं पिताजी से मिल रहा था तो वहाँ मेन गेट के पीछे खड़े होकर वह चौकीदार भैया से उनका हाल-चाल पूछ रहे थे। इस दौरान उन्होंने मेरी और पिताजी की सारी बातें सुनी। उन्होंने तेज़ आवाज़ में मुझसे पूछा कि रसायन शास्त्र में तुम्हारे कितने अंक हैं? मैंने सिर झुका कर धीमी आवाज़ में कहा, “गुरुजी इस बार के इम्तिहान में मैं रसायन शास्त्र में फेल हो गया हूँ।” इतना बोल कर मैं शांत हो गया और सर झुका कर खड़ा रहा।
यह सुनकर गुरुजी तुरंत बोले, “पर तुमने तो अभी अपने पिताजी से कहा कि तुम्हारा इम्तिहान अच्छा हुआ है, और तुम सारे विषयों में अच्छे अंक से पास भी हो जाओगे।” गुरुजी के इतना बोलने पर मेरा होश उड़ गया और आँखें भी भर आई। मेरे चेहरे के उड़े हुए रंग को देखकर गुरुजी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और प्यार से बोला, “देखो बेटा तुम्हारे पिताजी कितनी मेहनत करते हैं और अभी तुमने देखा ही इतनी तेज धूप में वह हाथ में झोला लिए कितनी उम्मीद से तुमसे मिलने आए थे। वह यह सोचकर घर से निकले होंगे कि मेरा बेटा हम सब से दूर वहाँ रहता है, चलो उससे मिल आऊं और तुम्हारी माताजी ने भी तुम्हारे खाने के लिए कई चीज़ें बनाकर भेजी होगी। यह सोच कर कि मेरा बेटे को वहाँ पर रहता है उसे वहाँ पर पता नहीं कैसा खाना मिलता होगा, मेरे हाथ का खाकर खुश हो जाएगा। तुम्हें क्या लगता है, कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें यहाँ भेज कर बहुत खुश हैं, वह भी चाहते हैं उनका बेटा उनके साथ रहे पर उन्होंने यह सोच कर तुम्हें यहाँ भेजा है ताकि तुम्हें सारी सुविधाएँ और ज़रूरत की चीज़ें मिल सके, जिससे तुम मन लगाकर पढ़ाई कर सको और जीवन में सफल बनो। यह सारी सुख-सुविधाएँ और ज़रूरत की चीज़ें वह शायद तुम्हें घर पर ना दे पाते, इसीलिए उन्होंने तुम्हें यहाँ भेजा, परंतु तुम यहाँ पर आकर सारी सुख-सुविधाओं में इतना खो गए हो कि तुम पढ़ाई तो बिल्कुल नहीं करते हो और ना ही किसी शिक्षक से जुड़े हुए हो और तुम विद्यालय के नियम-कानून का भी उल्लंघन करते हो।” वे आगे बोले, “देखो बेटा यह सब करके तुम अपने माता-पिता की उम्मीद तोड़ रहे हो और अपने आप को धोखा दे रहे हो।” इतना बोल कर वह चले गए।
उनके जाने के बाद भी मैं वहीं स्तब्ध खड़ा रहा, गुरुजी के ऐसा बोलने से मेरी आँखें भर आई। आँसू, आँख से गिरने वाले ही थे कि मेरे मन में विचार आया कि अब रोने से कुछ नहीं होगा। मैंने वहीं पर अपनी आँखें बंद की और मेरे मस्तिष्क में उन्हीं सब चीज़ों के दृश्य चलने लगे, जो मैं अक्सर किया करता था, जैसे कक्षा में उपस्थित ना रहना और उपस्थित होने पर शिक्षक की तरफ ध्यान ना देना, शिक्षक का मज़ाक उड़ाना। और मेरे दिमाग में मानो पढ़ाई नाम की कोई चीज़ ही नहीं होती थी। मैं कभी किताब या कलम उठाता ही नहीं था। बस अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय खेल के मैदान तथा दोस्तों के साथ गपशप लड़ाने और झुंड बनाकर पूरे विद्यालय में इधर-उधर नाचने में ही बिता देता था। जब मैंने आँखें खोली तो मैं अपने ही नज़र में गिर चुका था, क्योंकि मुझे गुरु जी द्वारा कही गई सारी बातें समझ में आ चुकी थी। वह मुझे बस यही बताना चाहते थे कि मेरे माता-पिता को मुझसे कितनी उम्मीदें हैं और मैं यहाँ पर अपना समय बर्बाद करके और यहाँ मिल रही सुविधाओं का सदुपयोग ना करके, मैं और किसी को नहीं, बल्कि अपने माता-पिता, परिवार और अपने आप को धोखा दे रहा हूँ।