नारी की पराकाष्ठा – कविता

वर्षा:

आओ,
अरसों से सहमें जज्बात बताती हूँ
दहलीज पितृसत्ता का लांघ
तुम पुरुषों को अपने बलिदान गिनाती हूँ
मैं नारी हूँ, आज अपना इतिहास सुनाती हूँ…2

यूँ कमजोर नहीं थी शुरुआत मेरी…2
मैंने वेदों से शुरू किया
मैं गार्गी बनी, मैं घोषा बनी
मैंने ऋषि-मुनियों से लोहा लिया

हाँ, ज़रूर सहमें होगे इन्ही सामर्थ से मेरे तुम..2
तभी तो मर्यादा का तुमने षड्यंत्र गढ़ा
बेड़ियां डाली कदमों में मेरे,
सर पे घूंघट का फरेब रचा।
सोने चांदी की जंजीरों में बांधा मुझको
और सारा अनन्य आसमान पुरुष हुआ

ऐसे बढ़ी कहानी मेरी…2
मैं खुद के घर में मेहमान हुई
बाजारों में बिकता सस्ता समान हुई
रंग-रूप, कद-काठी कई आकर बने मेरे
और इन पैनामों में मैं कहीं गुमनाम हुई…2

इतना सब सह कर भी मैंने बदले का भाव नहीं रखा,
मैं नारी हूँ नारीत्व के धीरज का मान बना रखा
मैं जानती हूँ… मैं शक्ति पूर्ण हूँ…2
मैने बराबरी पर विश्वास किया
शिक्षा-साहस को संग लिए कई कल्पना का आविष्कार किया
और नाप ऊंचाइयाँ गगनों की, हर बार तुम्हे धरती पर लाऊंगी
प्रकृति की हर पीड़ा सह कर साहस का अपने परिचय दे जाऊंगी
एक दिन ऐसा इतिहास लिखूंगी खुद का,
ज्ञान का ताज रच के सर पे नया विधान लिखूंगी खुद का…

फीचर्ड फोटो आभार: ई टर्बो न्यूज़

Author

  • वर्षा / Varsha

    वर्ष, छत्तीसगढ़ के कोरिया ज़िले के फुलझर गाँव से हैं। उन्होंने बायोटेक्नोलॉजी में स्नातक किया है। वर्तमान समय में वर्षा छत्तीसगढ़ लोक सेवा परीक्षा की तैयारी कर रही हैं। वह एक अच्छी प्रशासक बनना चाहती हैं।

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