महाराष्ट्र में हल्दी कुमकुम प्रथा का महत्व

समिक्षा गणवीर: 

महाराष्ट्र में हल्दी कुमकुम की प्रथा प्रचलित है। जब दो या दो से ज़्यादा महीलाएँ मिलती हैं तो बातचीत खत्म होने के बाद एक दूसरे को कुमकुम लगाया जाता है। घर में किसी मेहमान के आने के बाद, जाते समय महिला को कुमकुम लगाना और ओठी भरना शुभ माना जाता है। ऐसी ही एक प्रथा जो बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है वो है मकर संक्राती के अवसर पर हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम करना। मकर संक्राती के बाद 15 दिन तक लगातार सुहागन महिलाएँ एक जगह पर इकट्ठा होके हल्दी कुमकुम लगाती हैं तिरगुळ (या तिलकुट) बाँट के एक दूसरे को “तिरगुळ घ्या गोड़ गोड़ बोला” कह कर शुभकामनाएँ देती हैं। इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाली सभी सभी सुहागनो को तोहफा (वान) दिया जाता है। 

एक तरीके से महिलाओं के लिए यह घर से बाहर निकलने का अवसर होता है। पहले जब महिलाओं के घर से बाहर निकालने पर काफी बन्दिशें होती थी ऐसे में महिलाएँ हल्दी कुमकुम जैसे कार्यक्रम में एकसाथ आके एक-दूसरे का हाल-चाल लेती थी, पारिवार की समस्याओं पर चर्चा करती थी और उन्हें हल करने की कोशिश करती थी। इसका धार्मिक महत्व भी है, महीलाओं को आदिशक्ती का रुप मानकर और कुमकुम लगाकर  देवियों का आव्हान करना और दुर्गा-शक्ती को जागृत करके पारीवार के सुख की कामना की सोच भी इसके पीछे होती है।

लेकिन इन प्रथाओं में विधवा और परित्यकता महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता है। उनके हाथ से कुमकुम लगाना या शुभकार्य में उनका सहभागी होना अशुभ माना जाता है। महाराष्ट्र विचारकों, संतो और महान लोगों की भूमी है जहाँ सावित्री बाई फुले और महात्मा ज्योतिबा फुले ने सामाजिक कुप्रथाओं और महिलाओं के अधिकारों को लेकर काफी संघर्ष किया और उनके अस्तित्व और सम्मान के लिए शिक्षा के द्वार खोले। लेकिन पुरुषप्रधान संस्कृती में अभी भी पुरुष के मरने के बाद महिला को विधवा करने की प्रथा है। पति के मरने के बाद कुमकुम मिटाना, चूड़ियाँ तोड़ना, मंगलसूत्र तोड़ना जैसे रिवाज प्रचलित हैं और उन विधवाओं या परीतक्ताओं को शुभकार्य में (जैसे- नामकरण विधी, गोदभराई, सगाई आदि कार्यक्रम में)  सहभागी नहीं बनाया जाता है। पुरुष के मरने का कारण जो भी हो लेकिन एक विधवा को अशुभ ही माना जाता है, जो पुरुषों के बिना महिला के अस्तित्व को नकारने वाली प्रथा है। ऐसी प्रथा-परपरांओं का जमकर विरोध करना ज़रूरी है।  

सामाजिक संस्थाओं, संगठनो को भी ऐसे नये तरीके आज़माने की ज़रूरत है ताकि लोगों का नज़रिया बदला जा सके। हमारे क्षेत्र के हेरवाड़ गाँव मे विधवा प्रथा बंद करने और लोगों को जागृत करने का ग्रामसभा ने प्रण लिया है। यह ज़रूरी है कि ऐसे कदम हर पंचायत के हर गाँव में लिए जाएँ। हम संगठन के साथियों ने कई बार विधवाओं को आगे बढ़ाने के लिए संगठन के कार्यक्रमों में उनके हाथ से कुमकुम लगवाने जैसी पहल ली हैं। पुरुषों के बिना भी समाज में महिला का अपना अस्तित्व है, ये समझने के लिए वटसावित्री या सत्यवान की सावित्री की जगह ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले की कहानी बताना ज़रूरी है। यह बताना ज़रूरी है कि देश के नागरिक के रूप में एक महिला के संवैधानिक अधिकार क्या हैं, और किस तरह सदियों से महीलाओं को परंपराओं के जाल में फँसाकर पीछे धकेला गया है। जिन अधिकारों से उन्हें दूर किया गया  है, उन्हें पाने के लिये समाज मे उनके अस्तित्व-निर्माण के लिये गलत प्रथाओं को तोड़ के आगे आने से ही संवैधानिक अधिकार प्राप्त होंगे।

Author

  • समिक्षा / Samiksha

    समीक्षा, महाराष्ट्र के नागपुर ज़िले से हैं और सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़ी हैं। वह कष्टकारी जन आन्दोलन के साथ जुड़कर स्थानीय मुद्दों पर काम कर रही हैं।

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