धर्मेन्द्र यादव:
सन् 2008 में एक एनेमीशेन फिल्म आई, वॉल-ई। इस फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह से दुनिया अपने द्वारा बनाई गई वस्तुओं का बड़ी तादात में निर्माण करके अभिभूत हो रही है, कि जैसे हमने बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली। फिल्म मे दिखाया गया कि अत्याधिक उत्पादन के बाद अब धरती पर सिर्फ कचरा ही कचरा बचा है, पृथ्वी एक जहरीला ग्रह बन गई है, जिस पर अब जीवन संभव नहीं रहा और इसका मुख्य कारण है वस्तुओं का बेतहाशा निर्माण। भारत में करीब पिछले तीन दशकों से कूड़ा निपटान बहस का विषय बना हुआ है। सन् 1990 के बाद वैशवीकरण और निजीकरण नीति के आते ही दुनिया के स्तर पर लाभ कमाने के इरादे से वस्तुओं का बेतहाशा निर्माण किया जा रहा है। वस्तुओं का जितना निर्माण हो रहा है उतना ही कबाड़ भी उत्पन्न हो रहा है, जिसके चलते कूड़े के पहाड़ देश के हर शहर में देखे जा सकते हैं।
उदारीकरण की नीतियों के चलते जिस तरह से समाज में वस्तुओं की खरीदारी करने का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है, बाजार लगातार समाज को अपनी और आकर्षित करने में सफल होते जा रहे हैं, नतीजा ज़्यादा खरीदारी और ज़्यादा कबाड़। एक नज़रिया यह भी है कि जो लोग कूड़ा निपटान के काम में लगे हैं, उनका रोज़गार इस उत्पन्न कबाड़ पर निर्भर है। अमेरिका के शहरी योजनाकर केविन लिंच का मानना है कि ऐसी वस्तुएं जो किसी एक व्यक्ति के लिए बेकार, कबाड़ हो सकती हैं वही किसी दूसरे के लिए रोज़गार का जरिया हो सकती हैं। उनकी यह टिप्पणी कूड़ा निपटान के काम में लगे मज़दूरों पर सटीक बैठती है।
1990 के बाद जिस तरह से बाकी विभागों का निजीकरण होने लगा, उसी तरह से कूड़ा निपटान के काम का भी निजीकरण होने लगा। शहरोें की साफ-सफाई का काम प्राथमिक स्तर पर मुनसिपालिटियों का होता है, लेकिन मुनसिपालिटियां अपना काम करने में सक्षम नहींं रही जिसके चलते उन्होंने शहरों को साफ रखने का काम निजी कम्पनियों को सौंप दिया। वर्तमान स्थिति में देश के प्रत्येक शहर में निजी कंपनियों द्वारा ही शहरों को साफ रखने का काम किया जा रहा है। शहरों को साफ रखने में अब भी प्राथमिक स्तर पर कचरा बीनने वाले मज़दूर ही अहम भूमिका निभा रहे हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर होने के कारण इन मज़दूरों के काम को कोई पहचान नहीं मिल पाई, हालांकि सरकार ने सोलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल 2016 में इनके एकीकरण की बात कही है। और साथ ही साथ यह भी कहा गया कि मज़दूरों को ऐट सोर्स कूड़ा अलग-अलग करने की जगह मिलनी चाहिए ताकि वह अपना जीवन चलाने हेतू कबाड़ छाँट सके और उसे बेच सके।
कूड़ा निपटान के काम में लगे मज़दूरों के संदर्भ में जैसे कूड़े को लेकर एक आम धारणा है कि कूड़ा घर में नहीं रखा जा सकता, उसी तरह से कचरा बीनने वाले मज़दूरों के लिए यह धारणा आम है कि यह मज़दूर समाज का हिस्सा बनने लायक नहीं है। क्योंकि यह कचरा चुनने जैसा गन्दा और बदबूदार काम करते हैं। लेकिन शायद हम ये भूल जा रहे हैं कि कचरा उत्पन्न करने में सबसे ज्यादा भूमिका हमारी ही है। जबकि यह मज़दूर आर्थिक अभाव के चलते कूड़ा उत्पन्न तो क्या अपनी रोज़र्मरा की ज़रूरतों को भी नहीं पूरा कर पाते।
कूड़ा निपटान की प्रकिया में निजीकरण के बाद शहर साफ तो हुये, परन्तु इसका असर कचरा बीनने वाले मज़दूरों के रोज़गार पर भी पड़ा। पहले कचरा बीनने वाले मज़दूर, स्वंतत्र रूप से कबाड़ बीनने का काम कर सकते थे और इससे उन्हें जो भी कबाड़ मिलता था उससे उनकी जीविका चलती थी, परन्तु अब शहरों में कूड़ा निपटान के निजीकरण के बाद मज़दूरों का कूड़े पर कोई अधिकार नहीं रहा है। शहरों में घरों से कूड़ा लेने वाली गाड़िया जाती हैं और कबाड़ लेकर शहरों में बने ढलाव घरों पर डालती हैं, वहाँ पर भी यह कबाड़ नहीं छाँट सकते हैं। यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि कूड़ा रिसाइक्लिंग चेन से कचरा बीनने वाले मज़दूर धीरे-धीरे बाहर होते जा रहे हैं।
दिल्ली के शाहबाद डेयरी इलाके में बसी एक बंगाली बस्ती शाहबाद डेयरी का एक्सटेशंन है, यहाँ पर कचरा बीनने वाले मज़दूर और छोटे गोदाम मालिक जो कचरा बीनने वाले मज़दूरों से कबाड़ खरीदते हैं, वह रहते हैं। इनके साथ बातचीत के दौरान मज़दूरों का कहना था कि, यह जब कबाड़ बीनने के लिए आसपास के इलाके में जाते हैं तो वहाँ की आर.डबल्यू.ए. (रेजीडेंट वेलफेयर एसोशिएशन) इन्हें सोसाइटी के अन्दर घुसने नहीं देती हैं। बल्कि इन मज़दूरों के खिलाफ शिकायत दर्ज करवा देते हैं, क्यूंकी इन मज़दूरों के प्रति उनकी एक अलग मानसिकता है। इस तरह के व्यवहार का असर मज़दूरों के काम पर होता है जिसके चलते यह कबाड़ बीनने के लिए स्वंतत्र रूप से नहीं जा सकते, बल्कि कबाड़ बीनने के लिए लगने वाले चक्कर भी कम लगाते है जिसके चलते उन्हें उतना भी कबाड़ नहीं मिल पाता कि वह अपनी रोजी-रोटी चला सकें।
देश में उत्पन्न कबाड़ को किस तरह से कम किया जा सके इसके लिए विभिन्न प्रकार की नीतियाँ सरकारी स्तर पर बनाई गई, जैसे ई.पी.आर. (एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रेस्पोंसिबिलिटी) सेंटर। इन सभी नीतियों को जमीनी स्तर पर लागू करने में इन मज़दूरों की अहम भूमिका है, इसके बावजूद इन नीतियों में मज़दूरों के विकास या वेलफेयर की बात तक नहीं की गई है। जितनी भी कूड़ा निपटान संबंधी योजनायें बनती हैं, उनमें कचरा बीनने वाले मज़दूरों के रोज़गार सुनिश्चिित करने का ध्यान रखा जाना चाहिए इसके अलावा मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं के संदर्भ में भी नीतियां बननी चाहिए।
फोटो आभार: greenbiz.com