सिद्धार्थ:
ये बात साल 1994 की है, मेरी उम्र तब 9 साल की थी और मैं मेरे परिवार के साथ श्रीनगर गढ़वाल में रहता था। सर्दियों का मौसम आ रहा था लेकिन उत्तराखंड में अलग राज्य की मांग के आंदोलन से माहौल गर्मा गया था। पर्वतीय इलाके के युवा, महिलाएं, बुजुर्ग सभी बढ़-चढ़ कर आंदोलन में अपनी हिस्सेदारी दे रहे थे। लगातार धरने, रैलियाँ और विरोध प्रदर्शन चल रहे थे, कहीं-कहीं कुछ हिंसा की वारदातें भी हुई, जिससे अक्सर शहर में कर्फ़्यू लागने लगा था। लेकिन कर्फ़्यू के दौरान रात को श्रीनगर घाटी के ऊपर के पहाड़ों के गांवों में मशाल लिए लोगों की कतारें दिख जाती और उनके नारे भी सुनाई देते, “श्रीनगर वालों संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं”; “अजी कख जाणा छा तुम लोग, उत्तराखंड का आंदोलन मा।” ये जो दूसरा नारा है ये उत्तराखंड के प्रसिद्ध गढ़वाली लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी द्वारा लिखे और गाए गीत से लिया गया है, जो उस वक्त उत्तराखंड आंदोलन का एंथम बन गया था। नेगी जी ने गढ़वाल के लोगों के जीवन, उनके मुद्दों और यहाँ की संस्कृति को जिस तरह से अपने गीतों में उतारा वैसा कोई और नहीं कर सका।
गढ़ रत्न और गढ़वाल के बॉब डिलन कहे जाने वाले नरेंद्र सिंह जी का जन्म पौड़ी गढ़वाल में सन 1949 में हुआ था। किशोर अवस्था से ही उनकी गीत-संगीत और कविताएं लिखने में गहरी रुचि थी। उनके सार्वजनिक जीवन के बारे में और उनके रचित संगीत के बारे में इंटरनेट पर काफी कुछ पढ़ने को मिल जाएगा, उनके कई इंटरव्यू भी यू ट्यूब पर देखे जा सकते हैं। इसलिए इस पर ज़्यादा कुछ न कहते हुए उनके संगीत के साथ मेरे खुद के अनुभवों को मैं यहाँ पर लिखना चाहूँगा। उनका पहला गीत जो मुझे याद है वो है, “सरा- ररा प्वाँ-प्वाँ।” पर्वतीय इलाकों में मोटर गाड़ियों और सड़कों का आगमन एक बड़ा बदलाव लेकर आया था। 80 और 90 के दशक में भी गिने-चुने गाँवों तक ही सड़के पहुँच पाई थी। ऐसे में बस में बैठना यहाँ के लोगों के लिए एक बड़ा अनुभव था। इसी अनुभव का बड़ा ही मज़ेदार वर्णन इस गीत में किया गया है। एक ही गीत में बस यात्रा में होने वाली तकलीफ़ें और उसके महत्व को यह गीत बता जाता है।
“ना जा-ना जा तौं भेलु पखान, जिंदेरी घसेरी बोल्यूं माण” एक और उनका गीत है जो मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है। यह गीत जंगल में घास काटने के लिए गई एक पर्वतीय महिला और पत्रोल्या (फॉरेस्ट बीत गार्ड) के बीच के संवाद को दिखाता है। इस गीत में नेगी जी की रचनात्मकता और उनकी व्यंगात्मक शैलियों के साथ-साथ पर्वतीय महलाओं के जीवन की कठिनाइयों, रोज़ाना की जरूरतों के उनके संघर्ष के और सरकारी नौकरी करने और उसे बचाने में लगे फॉरेस्ट गार्ड की मानवीय भावनाओं का सुंदर विरोधाभास नज़र आता है। टिहरी बांध परियोजना के डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों की पीड़ा को एक मार्मिक गीत में ढालते हुए नरेंद्र जी लिखते हैं, “टीरी डूबण लज्ञूं चा बेटा, डाम का खातीर; अबारी दाँ तू लंबी छुट्टी लि तै ऐई, ऐगी बगथ आखीर।” नरभक्षी तेंदुए का शिकार जब जंगल में घास लेने गई एक किशोरी हो जाती है तो उसके परिवार की पीड़ा का वर्णन करते हुए नेगी जी लिखते हैं, “ना जा रे ना जा रे सुमा डांडा ना जा।“
उत्तराखंड के लोगों के जीवन, उनकी संस्कृति का शायद ही कोई पहलू ऐसा हो जिसे नरेंद्र जी ने अपने गीतों से ना छुआ हो। प्रेम, परंपरा, संस्कृति, पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य को तो नेगी जी ने अपने गीतों में जगह दी ही लेकिन मौजूदा मुद्दों, जैसे पलायन, महंगाई, राजनीति और भ्रष्टाचार पर भी उन्होने खुल के लिखा।
पलायन पर वह लिखते हैं, “मेरको पाड़ी मत बोलो मैं देरादून वाला हूँ।”
महंगाई पर लिखते हुए वह कहते हैं, “अबी भनाइ सौ कु नोट, अबी ह्वे ग्याई सुट्ट।”
इसी तरह नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के अंतर को दिखाने के लिए वह गाते हैं, “रॉक एंड रो बडा रॉक एंड रो, पुराणा जमाना की छ्युं ना करो।”
राजनीतिक भ्रष्टाचार की निंदा करने की उनकी व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गीत जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण तिवारी को वो “नौछम्मी नारेणा” कहकर उन पर तंज़ कसते हैं और उनकी अफसरशाही की जमकर खबर लते हैं।
मैंने इस लेख में जितने भी गीतों का ज़िक्र किया है वो तो नेगी जी के सृजन सागर की कुछ बूंदें भर हैं। मैं पूरे भरोसे के साथ यह कहते हुए इस लेख को यहीं समाप्त करूंगा कि यही उत्तराखंड और खास तौर पर उत्तराखंड के गढ़वाल इलाके के लोगों , उनकी संस्कृति, उनके मुद्दों और उनके जीवन की संघर्षों को समझने के लिए एक लाइन से नेगी जी को सुनिए, आप काफी कुछ समझ पाएंगे।