जीतेन्द्र माझी:
सदियों से तथाकथित ‘उच्च जातियों’ द्वारा दलितों, आदिवासियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों पर अत्याचार होता आ रहा है और उनका हमेशा से ही शोषण किया गया है। उनको पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं था, उनके साथ शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता था। राजनीति में आना तो दूर की बात, उनको तो सार्वजनिक स्थानों पर आने-जाने की भी मनाही थी।
इन समुदायों के साथ हुए इस ऐतिहासिक अन्याय को ध्यान में रखते हुए और उन्हें अवसर देने के लिए आरक्षण नीति लाई गई, जिसका उल्लेख भारतीय संविधान में भी किया गया है। इसके माध्यम से राज्य, समाज के पिछड़े वर्गों को शैक्षणिक संस्थानों में सीटें, नौकरी, फीस, आयु और योग्यता परीक्षा में छूट आदि देता है।
आरक्षण क्यों ज़रूरी है?
भारत में आरक्षण देने के दो मुख्य उद्देश्य हैं:
- असमानता को कम करके सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल करना।
- सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े नागरिकों एवं आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करना।
आरक्षण पिछड़े वर्गों को सशक्त बनाने, राज्य के निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने और देश में प्रचलित अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने का भी एक प्रयास है। इन पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण, न केवल प्रवेश स्तर पर बल्कि पदोन्नति में भी दिया जाता है।
पदोन्नति में आरक्षण के बारे में कानून क्या कहता है?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक/सेवाओं/पदों पर अवसर की समानता से संबंधित प्रावधान किये गए हैं। संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुसार, केंद्र एवं राज्य सरकारें जिन पिछड़े वर्गों का राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, उनके लिए पदों के आरक्षण हेतु प्रावधान कर सकती हैं।
सबसे पहले इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर बात की गई और सर्वोच्च न्यायालय कहा कि अनुच्छेद 16(4) पदोन्नति के मामले में आरक्षण की अनुमति नहीं देता है। इसलिए संसद ने 77वें संविधान संशोधन के माध्यम से साल 1995 में अनुच्छेद 16(4A) को जोड़ा था। इसके अनुसार, केंद्र एवं राज्य सरकारें, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में पदोन्नति में आरक्षण दे सकती हैं, लेकिन राज्य की राय में राज्य की सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होना चाहिए।
इसके बाद 2001 में 85वें संविधान संशोधन के माध्यम से, “परिणामी वरिष्ठता (consequential seniority)” शब्द को अनुच्छेद 16(4A) में जोड़ा गया। “परिणामी वरिष्ठता” का अर्थ यह है कि यदि किसी आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार को पदोन्नति में आरक्षण के कारण सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार से पहले पदोन्नत किया जाता है, तो बाद में पदोन्नति के लिए आरक्षित उम्मीदवार की वरिष्ठता बरकरार रहती है।
2006 में दोनों संशोधनों को नागराज बनाम भारत संघ के मामले में चुनौती दी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में इन संशोधनों को सही ठहराया और पदोन्नति में आरक्षण के लिये तीन मापदंड निर्धारित किये-
- पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए सरकार के पास अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होने के बारे में आंकड़े होने चाहिये।
- सार्वजनिक सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होना चाहिये।
- आरक्षण नीति का प्रशासन की दक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।
पदोन्नति में आरक्षण के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होने से सम्बंधित आंकड़ों का सवाल फिर से वर्ष 2018 में जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता (जरनैल सिंह मामला-1) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया और न्यायालय ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण के लिये राज्यों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन से संबंधित आंकड़े इकट्ठा करने की आवश्यकता नहीं है।
लेकिन बहुत सारे राज्यों एवं केंद्र ने नागराज के मामले के बाद भी जब पदोन्नति में आरक्षण की नीतियां बनाई तो राज्यों के उच्च न्यायालयों ने इन नीतियों को निरस्त घोषित कर दिया। इसलिए इस मुद्दे पर स्थिति को स्पष्ट करने के लिए यह मामला फिर से जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता (जरनैल सिंह मामला-2) मामले के रूप में सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा और 28 जनवरी 2022 को निर्णय सुनाते हुए न्यायालय ने कहा कि-
1. प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को निर्धारित करने के लिए न्यायालय कोई मानदंड निर्धारित नहीं कर सकता क्योंकि यह काम सरकार एवं संसद का है।
2. सरकारें पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता के बारे में आंकड़े इकट्ठा करने के लिए बाध्य हैं।
3. पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए आंकड़े हर एक कैडर से होने चाहिए, न कि किसी वर्ग/समूह/किसी सेवा से। क्योंकि एक वर्ग/समूह/ किसी सेवा के आंकड़े का उचित परिणाम नहीं देंगे।
4. नागराज का मामला-2006 से पहले दी गई पदोन्नति पर लागू ना होकर भावी पदोन्नति पर लागू होगा।
इस निर्णय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने गेंद तो राज्य एवं केंद्र सरकारों के पलड़े में डाल दी है, लेकिन अब देखना यह है कि केंद्र एवं राज्य सरकारें किस हद तक पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संवैधानिक मूल्यों पर खरी उतरती हैं।
फीचर्ड फोटो आभार: न्यूज़18