अजय कुमार सिंह:
सच बोलना कोई मुश्किल तो नहीं,
सच बोलकर अब
कोई देखता ही नहीं।
बाज़ार में अब ख़रीददार बिक रहे हैं,
आदमी की आदमियत
कोई देखता ही नहीं।
मज़हब का आतंक कुछ यूँ बरपा यहाँ,
मन्दिर-मस्जिद अब
कोई देखता ही नहीं।
ख़ंजर के भी ज़रूर कोई उसूल होंगे,
नफ़रत का ख़ूनी मंज़र
कोई देखता ही नहीं।
बादल है, हवा है, धूप है और पानी भी,
चिड़ियों के घोंसले
कोई देखता ही नहीं।
बात मुहब्बत की करता है हर कोई,
पर मुहब्बत करके
कोई देखता ही नहीं।
नींद में तो सपने कई आते हैं, जाते हैं,
सपने में अब सपनी
कोई देखता ही नहीं।
दिल लगाना कोई दिल्लगी तो नहीं,
टूटे दिल का ख़्वाब
कोई देखता ही नहीं।
मज़हब के पन्नों में दफ़्न है सारी उम्र,
ज़िंदगी की किताब
कोई देखता ही नहीं।
कलम भी मेरी और ये स्याही भी मेरी,
आँसूओं से भीगी पलकें
कोई देखता ही नहीं।
ज़माने की नज़रों में गुनाहगार सही,
आपकी नज़र से मुझे
कोई देखता ही नहीं।
ज़िंदगी में इन्तज़ार के मायने बहुत हैं,
तपते छत पर मुझे अब
कोई देखता ही नहीं।