उत्तराखंड की गढ़वाली कहावतों या औखाणों की रोचक दुनिया

सिद्धार्थ: 

इंसान के पाषाण काल के दौर से आज तक के सफर को तय करने और इस दौरान विकसित होने में, भाषाओं का बेहद अहम योगदान रहा है। दुनिया की विभिन्न भाषाओं के विकास की और उनके वर्तमान में बचे रहने या खत्म हो जाने की भी अपनी एक रोचक कहानी होगी। इस बारे में सोचते हुए और हमसे पहले के लोगों ने भाषाओं के प्रयोग के क्या तरीके सोचे होंगे, इसकी कल्पना करते हुए यह आइडिया आया कि क्यूँ ना घर के बड़े बुज़ुर्गों से इस बारे में बात की जाए। थोड़ा और सोचने के बाद माँ और पिताजी से बात करने लगा और पूछा कि अपनी भाषा गढ़वाली (उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र के 6 जिलों में में बोली जाने वाली भाषा) की खासियत और सबसे रोचक बात आपको क्या लगती है? 

थोड़ा सोचने के बाद दोनों ने अपनी भाषा की मिठास की बात कही, यह भी बताया कि कैसे अलग-अलग जिलों में भाषा में इतना बदलाव आ जाता है कि किसी व्यक्ति के गढ़वाली बोलने के तरीके से पता चल जाता है कि वह कहाँ से है। इस तरह के कुछ और विचार साझा करने के बाद उन्होने गढ़वाली औखाणों को भी अपनी भाषा की विशेषता बताया। गढ़वाली शब्द औखाणे को हिन्दी में कहावत या मुहावरे कहा जा सकता है, और पिछली पीढ़ी के बुज़ुर्गों की भाषा में इनका इस्तेमाल काफी आम रहा है। अपने विचार की अहमियत को समझाने के लिए औखाणों का प्रयोग ये लोग काफी सहजता से कर लेते हैं जो युवाओं की भाषा में कम ही देखने को मिलता है।        

मेरी माँ अपनी गढ़वाली में अक्सर कहा करती हैं, “बुढ्यों की अकल, अर औंला कु स्वाद” इसका अर्थ है कि बुज़ुर्गों का दिया ज्ञान और आंवले के स्वाद का पता कुछ समय के बाद समझ आता है। इस तरह के कई औखाणे या मुहावरे वो अपने रोज़ाना के जीवन में इस्तेमाल करती हैं। माँ-पिताजी से बात करके ऐसे ही कुछ गढ़वाली मुहावरों या औखाणों को संकलित करने का प्रयास मैंने इस लेख में किया है-

1)- भिंडी बिरालों न मूसा नि मरेंदा: इसका हिन्दी में सीधा अर्थ है कि ज़्यादा बिल्लियों से चूहे नहीं मरते। इस मुहावरे का इस्तेमाल अक्सर यह समझने के लिए किया जाता है कि किसी काम में ज़रूरत से ज़्यादा लोग शामिल ना हों, नहीं तो वह काम ठीक से नहीं हो पाएगा। अंग्रेज़ी की कहावत ‘टू मेनी शेफ़्स स्पोइल्स द डिश’ (यानि कि ज़्यादा बावर्ची खाना खराब कर देते हैं) की तरह ही इस गढ़वाली कहावत का भी इस्तेमाल किया जाता है। 

2)- घाघरा द्वी अर भसरा व्ही: इस कहावत का अर्थ है कि बहुत से भेष लेकिन इंसान एक। यानि कि बाहरी रूप बदल लेने से इंसान नहीं बदल जाते।

3)- सौ हली जाऊ एक हली मु: पुराने समय की सामाजिक बनावट के आधार पर और समाज में मौजूद गैर बराबरी ने भी कई कहावतों को जन्म दिया होगा। यह औखाणा भी कुछ ऐसा ही लगता है। इसे समझाते हुए मेरे पिता बताते हैं कि बड़े गांवों में जहां खेती ज़्यादा थी वहाँ कुछ लोगों के पास काफी ज़्यादा ज़मीनें थी और इन्हें जोतने के लिए जानवर भी ज़्यादा होते थे और उपकरण यानि कि हल भी। ऐसे ही लोगों को सौ हली (सौ हल वाला) कहा जाता था। वहीं जिनके पास ज़मीन कम थी उनका काम एक ही हल से हो जाता था इसलिए उन्हें एक हली कहा जाता था। इस कहावत की बात करें तो इसका सीधा अर्थ है कि सौ हली को भी एक हली के पास जाना पड़ता है।         

4)- होंद्यारी डाली का चलचला पात: इस औखाणे का सीधा हिन्दी अनुवाद होगा- अच्छे किस्म के पेड़ के पत्ते चमकीले होते हैं। इसे हिन्दी कहावत ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ का गढ़वाली वर्ज़न भी कह सकते हैं। यानि कि जो हुनरमंद होते हैं उनके लक्षण पहले से ही दिखने लगते हैं। 

5)- जब बिगड़ी गै काम, तब बैसाख बाबू कू आई नाम: यानि काम खराब हो जाने के बाद बैसाख बाबू का नाम याद आया। बैसाख बाबू का प्रयोग यहाँ सुपात्र के लिए किया गया है।  

6)- नौ मन नंदू कौं कू खावण, अर नंदू कौं मा छांछ मांगण जावन: इसका सीधा अर्थ है कि नंदू लोगों के पास तो केवल नौ मन अनाज है और उन्हीं से छांछ भी मांगी जा रही है। इस औखाणे का इस्तेमाल यह समझाने के लिए किया जाता है कि जिनके पास संसाधन कम हैं उन्हीं से मदद मांगी जा रही है। 

7)- पूष का जौ आर बूढ़ेन्दी वक्त का छोरा: इसका सीधा अर्थ है कि पूष (दिसंबर-जनवरी का समय) महीने के जौ और बुढ़ापे की संतान सफल नहीं होती। एक तरह से जौ की फसल की तुलना संतान से की गई है, ध्यान रहे कि जौ की फसल की कटाई बैसाख (मई-जून का समय) महीने में की जाती है। 

8)- भिंडी खाणा का बाना जोगी व्हेयों, अर पहली बासा भूखा रैंयों: इसका हिन्दी में शाब्दिक अनुवाद है- ज़्यादा खाने के लिए जोगी बना, और पहली ही सुबह भूखा रहा। इस औखाणे का प्रयोग यह समझने के लिए किया जाता है कि बिना सोचे विचारे कोई भी फैसला नहीं लेना चाहिए।

9)- आसमान्या लमडि पड़न, अर चढ़मुख्या भूखू मरण: अर्थात कि आसमान की ओर देखने वाले गिर गए और, बड़ी-बड़ी बातें करने वाले भूखे मरे।  

10)- गोणी तैं अपड़ु पुछ छोटु ही दिख्येन्दु: इसका सीधा हिन्दी अर्थ है कि लंगूर को अपनी पूंछ छोटी ही दिखती है। इस औखाणे का प्रयोग यह समझाने के लिए किया जाता है कि इंसान को अपनी खुद की गलतियाँ या कमियाँ कम ही नज़र आती है। 

फीचर्ड फोटो आभार: पिनट्रस्ट

Author

  • सिद्धार्थ / Siddharth

    सिद्धार्थ, सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े हैं और दिल्ली की संस्था श्रुति के साथ काम कर रहे हैं। 

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