स्वप्निल:
मजबूरी की एक ऐसी कहानी जो कई जिंदिगियों की कहानी है। शाम के 4:30 बज रहे थे। मध्य प्रदेश के भिंड ज़िले के छोटे से गाँव तिलोरि में रहने वाली 35 वर्ष की लक्ष्मी, दिसम्बर की ठंड में गाँव से कुछ दूर काम करती नज़र आयी। पास जाकर देखा तो जाना की वह गोबर के कंड्डे बना रही है। बातचीत हुई। बताती हैं, “धूप कम आत है जाड़े में, जान नहीं कैसे ही सूखेगा जे गोबर। अब अंधेरे से पहले चूला जलाएँगे और रोटी बनेगी, जे भी डूटी से वापस आते होंगे। कई लोगों को गैस मिल गयी इस बरस, ख़ाली परी है लेकिन। अब कौन दे 900 रूपज्जा भरवाने के? हमारा तो चूला ही बढ़िया है। लेकिन जे गोबर ढोने और कंड्डन में समय लगत है। देखो सुबह से लगे हैं काम में – गाँव में पानी की बिकट दिक़्क़त है, भरी सुबह से लग जाते हैं पानी भरने, हंडपम्प एक है।” थोड़ा हँसी और बोली “ रोज़ लड़ाई होती है पानी के लिए, औरतें सारी भिड़ जात हैं। पानी भरके रोटी बनाएँगे, सपरंगे – जबतक तो टेम ही जो जाएगा। फिर क्या गोबर ढोने निकल जाएँगे ताकि कंड्डे बना सकें और रात का खाना बन सके। फिर घर जाके खाना बनाएँगे और सो जाएगेंगे। हमें तो भज्जा इतने साल हो गए जे करत करत।”