शंभू:
राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले के गाँव भैरुखेड़ा (नाहरगढ़) की मांगी बाई भील का ससुराल होड़ा गाँव में था। सन् 2006 तक वह होड़ा गाँव की निवासी थी, उसके पति का नाम भूरालाल भील था। वह अपने ही परिवार की दूसरी औरत को लेकर भाग गया और कहीं दूर चला गया। मांगी बाई उस समय लगभग 40 वर्ष की थी, उसकी कोई भी सन्तान नहींं थी। उस समय परिवार वालों का साथ नहींं मिलने के कारण वह अपने पीहर, भेरुखेड़ा गाँव में अपने माता-पिता के यहाँ आ गई।
इस बात को 15 साल हो गए, कुछ ही साल बाद मांगी बाई के पिता की भी मृत्यु हो गई थी। फिर एक दिन अखबार में खबर आयी कि गाँव होड़ा का एक व्यक्ति जिसका नाम भूरा लाल भील है, उसकी, गिट्टी के क्रशर मे आने से मृत्यु हो गयी है। भूरा भील के तीन भाई हैं, लेकिन किसी ने ध्यान नहींं दिया और मांगी बाई को भी कुछ पता नहींं चला।
पति कि मृत्यु के बाद मांगी सरकार की विधवा पेंशन योजना की हकदार है, लेकिन उसके परिवार में कोई जानकार न होने से उसके पति का मृत्यु प्रमाण पत्र भी नहीं बना। इस कारण वह आज भी विधवा पेंशन से वंचित है। मांगी बाई अपना गुज़ारा अपनी बूढ़ी माता के साथ मज़दूरी करके कर रही है।
इसी तरह होड़ा गाँव की 27 वर्षीय रतनी बाई भील भी अकेली अपने बच्चों का पालन पोषण कर रही है। उसकी शादी 2006 मे राजू भील से हुई थी। अप्रैल 2019 में राजू ने आत्महत्या कर ली थी, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि उसकी हत्या की गई थी। जो भी हुआ हो, रतनी बाई भील विधवा हो गई। उसकी एक 8 वर्ष कि बेटी है। रतनी बाई अपनी पुत्री के साथ मज़दूरी करके उसका पालन पोषण कर रही है। वह कभी अपनी माँ के यहाँ रहती है तो कभी अपने ससुराल में मज़दूरी करती है। उनकी उम्र कम होने के बावजूद भी वह दूसरी शादी नहींं करना चाहती और कहती है कि उसकी माता के घर रहकर उसकी पुत्री का पालन पोषण कर लेगी।
कहने का अर्थ यह है कि पति के मरने के बाद इन औरतों का जीवन अस्त-व्यस्त और असुरक्षित हो जाता है। अकेली होने से उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यदि परिवार में या स्वयं बीमार हो जाएँ तो किसी की मदद मिले या न मिले कुछ निश्चित नहींं होता। अच्छी तरह से घर का खर्च नहींं चलता। बच्चों की पढ़ाई की ज़रूरत पूरी नहींं हो पाती। आदमी के बिना, बेटी-बेटे की सगाई, शादी में परेशानियाँ आती हैं। समाज मे कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अकेली महिला को लोग बहुत बार गलत नज़र से देखते हैं।
मज़दूरी का भी कोई ठिकाना नहींं हैं। अधिकतर महिलाएं दिहाड़ी मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करती हैं। कुछ औरतें खेतों में मज़दूरी करती हैं। कुछ महिलाएं किसी ठेकेदार के साथ बेलदार मज़दूर की तरह काम करती हैं। और कई गाँव के पशु चराकर अपना गुज़ारा करती हैं। होड़ा गाँव में इस प्रकार की दस-बारह विधवा औरतें हैं जो सरकारी सुविधा से वंचित हैं। कुछ तो अपने बेटों या पोतों के साथ रह रही हैं ठीक से।
जब मैंने स्वास्थ्य साथी का काम शुरू किया तो मैंने इनकी मदद करना शुरू किया। पहले से भी मैं इनकी मदद करता था और मैंने बहुत सी महिलाओं को सरकार की पेन्शन योजना का लाभ दिलवाया था। साथ ही पालनहार की पेंशन भी चालू करवा दी, जिसमें एक वर्ष मे 6000 रु. लाभ मिलता है। मैं इन सभी की मदद के लिए उनसे समय-समय पर बात करत रहता हूँ। पेंशन सम्बन्धी योजनाओं का लाभ या अगर घर में किसी प्रकार का कामकाज पड़ता है और उनकी स्थिति कमज़ोर है तो सरपंच व राशन डीलर से बातचीत कर उन्हें राशन सामग्री का लाभ भी दिलाता हूँ।