अरविंद अंजुम:
बेरोज़गार युवा विस्थापित संगठन की ओर से रोज़गार की मांग अब ज़ोर पकड़ने लगी है। ये युवा उन परिवारों की दूसरी पीढ़ी है जो चांडिल बांध के बनने के चलते विस्थापित हुए थे। चांडिल बांध झारखंड के कोल्हान प्रमंडल में सुवर्णरेखा नदी के ऊपर बनाया गया है। यह बांध 1993 में बनकर तैयार हुआ और तब से 116 गांव के 15 हज़ार परिवार विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। जब 20वीं शताब्दी के आठवें दशक में इस बांध के निर्माण की घोषणा की जा रही थी, तब कहा गया था कि हर एक परिवार से एक व्यक्ति को नौकरी दी जाएगी। पर यह दावा खोखला साबित हुआ। ईचा बांध, गालूडीह बराज, चलियामा बराज, नहर निर्माण से कुल मिलाकर सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना से लगभग 25 हज़ार परिवार विस्थापित हो रहे हैं और नौकरी मिली सिर्फ ढाई हज़ार लोगों को। जिन विस्थापितों को नौकरी मिली थी, अब वे धीरे-धीरे रिटायर करने लगे हैं। विगत वर्षों में तो नौकरी की संभावनाएँ अत्यंत सीमित हो गई है। बैंक, एलआईसी, रेलवे, प्रशासन जैसे क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर लगभग समाप्त हैं। आसपास के इलाके में जो प्रदूषणकारी स्पंज आयरन के कारखाने लगे थे, वे भी बंद हो चुके हैं; जमीन तो पहले ही हाथ से निकल गया था। अब युवाओं के सामने अनिश्चित और अंधकारमय भविष्य खड़ा है। इसलिए विस्थापित युवा उद्वेलित हो उठे हैं और संघर्ष के लिए कमर कस रहे हैं, क्योंकि अब कोई उपाय नहीं है।
बेरोज़गार युवा विस्थापित संगठन के अध्यक्ष जगदीश सिंह सरदार से जब पूछा गया कि आप नौकरी चाहते हैं या रोज़गार, तो उनका जवाब था कि उन्हे नौकरी और रोज़गार, दोनों चाहिए। जगदीश ने स्पष्ट करते हुए कहा कि नौकरी तो सिर्फ उन्हें ही मिलेगी जो उसकी योग्यता को पूरा करेंगे। लेकिन जीने-खाने के लिए तो सब को रोज़गार चाहिए। हमारी जमीनें चली गई। ज़मीन तो ऐसा संसाधन है जिससे पीढ़ियों का परवरिश हो सकता है। सरकार ने वादा किया था कि हर परिवार से एक को नौकरी मिलेगी, कुछ लोगों को मिला भी। लेकिन नौकरी तो एक पीढ़ी का पुनर्वास है।हमें तो ऐसा रोज़गार चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी सुनिश्चित हो सके।
अब सवाल यह है की 15 हज़ार विस्थापित परिवारों की वर्तमान पीढ़ी को ज़मीन खोने के बाद किस प्रकार रोज़गार उपलब्ध कराया जा सकता है? विस्थापितों के पुनर्वास के लिए विगत 20 वर्षों से सक्रिय विस्थापि मुक्ति वाहिनी के श्यामल मार्डी ने कहा की चांडिल जलाशय और उसके आसपास के क्षेत्रों में इतनी संभावना है कि विस्थापितों को रोज़गार उपलब्ध कराया जा सकता है। लेकिन इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति,समुचित नीति एवं उपयुक्त नियोजन की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हम लोगों का एक नारा है – माछ, गाछ और चास से होगा विकास। चांडिल जलाशय 40 हज़ार एकड़ में फैला हुआ है जहां मछली पालन की अपार संभावनाएं हैं। इसी तरह से जलाशय के चारों तरफ लिफ्ट इरिगेशन व डीप बोरिंग की व्यवस्था कर खेती को 3 या 4 फसली बनाया जा सकता है। इस इलाके में सब्ज़ी की अच्छी खेती होती है। साथ ही जलाशय के चारों तरफ फलदार पौधे लगाए जा सकते हैं। नौका – विहार, पर्यटन, परियोजना की खाली पड़ी ज़मीनों पर दुकानों का निर्माण कर सैंकड़ों युवाओं को रोज़गार दिया जाना संभव है।

बेरोज़गार युवा विस्थापित संगठन ने 10 अक्टूबर को चांडिल स्थित निर्मल भवन में आयोजित अपने सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया है कि बांध का पानी जिन कंपनियों के द्वारा उपयोग में लाया जा रहा है, वहां विस्थापितों को नौकरी में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सम्मेलन में एक और महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी पारित किया गया कि जलकर के रूप में कंपनियों पर बकाया राशि की तत्काल वसूली हो और इस रकम को विस्थापितों के पुनर्वास पर खर्च किया जाए। ज्ञात हो कि टाटा स्टील सहित कई कंपनियों के ऊपर जलकर के रूप में 1000 करोड़ से भी ज़्यादा की राशि बकाया है, लेकिन ये कंपनियां तटवर्ती अधिकार का फर्ज़ी दावा कर रकम भुगतान में आनाकानी कर रही है तथा न्यायालय में इस मामले को उलझाकर रखा है।
लागत और लाभ के अनुपात में नुकसान होने के बावजूद सुवर्णरेखा परियोजना को इस वजह से स्वीकृति मिली थी कि इससे आदिवासी बहुल एवं पिछड़े इलाके में सिंचाई के द्वारा खेती में विकास होगा। चांडिल बांध के बने हुए लगभग 30 वर्ष पूरे होने को हैं, पर सिंचाई के लिए इसका लाभ नगण्य ही माना जाएगा। नहर-निर्माण अधूरा होने के चलते संचित पानी का एकमात्र उपयोग औद्योगिक एवं नागरिक आपूर्ति के लिए किया जा रहा है। टाटा स्टील की अनुषंगी कंपनी के द्वारा पानी को बेचा जा रहा है। लेकिन जब जलकर भुगतान की बात आती है तो फिर तटवर्ती अधिकार का बहाना बना दिया जाता है। यह बहुत ही विचित्र बात है कि जिस योजना का निर्माण जनता के पैसे से किया गया है, उसका लाभ निजी कंपनियां उठा रही है।
युवा विस्थापित पानी पर अपना हक जताते हुए कंपनियों से रोज़गार का दावा करने लगे हैं।