लालमोहन मुर्मू:
सोहराय एक संथाल आदिवासी समुदाय का त्यौहार है। हिन्दू लोग इस पर्व को दिवाली कहते हैं लेकिन यह हिंदुओं की दिवाली से अलग है। त्यौहार के पहले गाँव का मुखिया, माझी हालाम बैठक का आवाहन करके त्यौहार के लिए तारीख़ तय करते हैं। त्यौहार के पहले दिन गाय-बैल के लिए गोठ पूजा होती है। त्यौहार के पहले दिन से महिला दल और पुरुष दल घर-घर जा कर गाय-बैल की पूजा करते हैं। दूसरे दिन गाय-बैल सब को नहलाया जाता है जिसके बाद उनको आहार दिया जाता है। इस दिन डान्टा नाच का भी आयोजन किया जाएगा। तीसरे दिन हर परिवार के घर में गुहाल (cattle shed) में पूजा होती है। पूजा का मकसद होता है कि गाय-बैल साल भर अच्छे रहें और बीमार नहीं हों। इस दिन गाँव-समूह के बैल को रास्ते पर, बाँस के पेड़ों पर बांध कर खेला जाएगा।
इस त्यौहार का मतलब ज़्यादा गो-सम्पदा का इज्जत-मान करना होता है। चौथे दिन गाँव-समुदाय के महिला-पुरुष नाच-गीत का माहौल बना कर, सामूहिक तौर पर पर्व मना कर, त्यौहार को ख़त्म करते हैं। इस त्यौहार की परिचालना की ज़िम्मेदारी गाँव के पांच मुखिया – नायक, पारनीक, माझी, योग माझी, गोडेत की होती है।
आदिवासी परम्परा-संस्कृति को ख़त्म करने के प्रयास हिन्दू धर्म प्रचारकों द्वारा जारी है। वे लगातार आदिवासी समुदायों की सोच को बदल रहे हैं, जैसे आजकल मंगला ऊषा पूजा करना, नाम कीर्तन करना, इत्यादि। आदिवासी समुदाय के लोग अपने जाहेर गाल (पूजा स्थान/worship place) को छोड़, मंदिर-गिरिजाघर जाने लगे हैं। उत्तर प्रदेश में जो राम मंदिर की स्थापना के लिए भूमि पूजा हुई, उसमें भी आदिवासियों के जाहेर गाल से मिट्टी और अस्थि विसर्जन स्थान, गंगा नदी से पानी लिया गया। अर्थात आदिवासियों के देवी-देव सब राम मंदिर चले गए। इस प्रकार अन्धविश्वास का फायदा लेते हुए हिन्दू धर्म के लोग और ईसाई धर्म के लोग आदिवासियों का धर्मांतरण कर रहे हैं। इस तरह से आदिवासियों के सोच-विचार और स्वतंत्रता को ध्वस्त किया जा रहा है।