(संप्रभु बॉन्ड की हकीकत)
डॉ राहुल बैनर्जी:
सभी संप्रभु देशों की सरकारें, देश के विकास के लिए धन जुटाने के लिए, कर या शुल्क लगाती हैं। इनके अलावा, वे ऋण के माध्यम से भी संसाधन जुटाती हैं। आपको जान कर हैरानी होगी कि यह ऋण इतना अधिक होता है कि वर्तमान में विश्व के सभी देशों की सरकारों का कुल ऋण विश्व की कुल सालाना आय का 77 प्रतिशत है। भारत सरकार का ऋण उसकी आय का 67 प्रतिशत है। कुछ देश ऐसे है जिनके लिए यह अनुपात 100 से अधिक है। यानि उनके ऋण का बोझ उनकी सालाना आय से भी अधिक है।
संप्रभु बॉन्ड क्या है?
सरकारें इस ऋण को बॉन्ड के माध्यम से लेती हैं। सोवरेन या संप्रभु बॉन्ड एक तरह का अनुबंध है जिसमें बॉन्ड खरीदने वालों को सरकार एक निश्चित ब्याज देने का वायदा करती है। संप्रभु बॉन्ड के खरीदार को सरकार से समय-समय पर ब्याज भुगतान प्राप्त होता है, और बॉन्ड की समयावधि पूरी होने के बाद या परिपक्व होने पर, बॉन्ड में लगाई गई राशि का भुगतान सरकार करती है।
संप्रभु बांड एक राष्ट्रीय सरकार द्वारा जारी किया गया बॉन्ड है जिससे प्राप्त धनराशि को सरकारी कार्यक्रमों को चलाने के लिए, पुराने ऋणों के भुगतान करने के लिए, वर्तमान ऋण पर ब्याज का भुगतान करने और किसी भी अन्य सरकारी खर्च की जरूरतों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह याद रखना ज़रूरी है कि संप्रभु बॉन्ड द्वारा प्राप्त की गई राशि सरकार पर कर्ज़ है। बॉन्ड खरीदने वाले कभी भी बॉन्ड में लगाया गया पैसा वापिस मांग सकते हैं। आमतौर पर, जब कोई सरकार करों के माध्यम से पर्याप्त धन नहीं जुटा पाती है तो वह संप्रभु बांड जारी करती है।
संप्रभु बॉन्ड किस मुद्रा में जारी किए जाते हैं?
अमूमन ये बॉन्ड देश की मुद्रा में जारी किए जाते हैं। इन बॉन्ड की एक प्रमुख खरीदार विश्व वित्तीय कंपनियां होती हैं। इन विश्व वित्तीय कंपनियों को कम विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों पर और बढ़े हुए राजनीतिक जोखिम वाले देश की मुद्राओं पर का भरोसा नहीं होता है। इसलिए ऐसे देशों की सरकारें अपने संप्रभु बॉन्डों को अधिक स्थिर अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों की मुद्राओं में भी निरूपित करते हैं।
किसी देश की आर्थिक स्थिति जितनी कमज़ोर होगी, उन देशों के बॉन्ड खरीदने में वित्तीय जोखिम उतना ही अधिक होगा। ऐसे देश अपने संप्रभु बांड को ख़रीदारों के लिए आकर्षक बनाने के लिए, निवेशकों को दिये जाने वाला ब्याज बढ़ा देते हैं।
कैसे पता चले कि किस देश के बॉन्ड खरीदने में फ़ायदा है या जोखिम है?
इस काम में बॉन्ड खरीदने वाले निवेशक की मदद करने के लिए कुछ संस्थाएं काम करती हैं जो रेटिंग एजेंसियों के नाम से जानी जाती हैं। विश्व की कुछ जानी मानी रेटिंग एजेंसियां हैं जैसे, स्टैंडर्ड एंड पूअर्स, मूडीज आदि। रेटिंग एजेंसियां किसी देश की आर्थिक रूपरेखा, उसकी मुद्रा विनिमय दर और राजनीतिक जोखिमों पर विचार कर उसके द्वारा अपने ऋण दायित्वों को पूरा करने की क्षमता का निर्धारण करती हैं। देश की आर्थिक व राजनैतिक स्थिति का मूल्यांकन करके ये रेटिंग एजेंसियां उस देश को सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग प्रदान करती हैं। इस रेटिंग से निवेशकों को एक विशिष्ट देश में निवेश करने में शामिल जोखिमों को समझने में मदद मिलती है।
उदाहरण के लिए वर्तमान में स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने भारत को BBB रेटिंग, यानि कमजोर रेटिंग दे रखी है जबकि संयुक्त राज्य अमरीका की रेटिंग AA+, यानि सशक्त है। इससे निवेशकों को पता चलता है की हमारे देश में पैसे लगाने में जोखिम है। इसलिए कम रेटिंग वाले देशों के लिए घरेलू मुद्रा में बांड जारी करने की क्षमता एक ऐसी विलासिता बन जाती है जिसका आनंद अधिकांश सरकारें नहीं उठा पाती हैं क्योंकि वित्तीय निवेशक उन्हें खरीदेंगे ही नहीं। ऐसे कम विकसित देशों को अधिक सशक्त अर्थव्यवस्था वाले देशों की मुद्रा में अपने संप्रभु बॉन्ड जारी करने पड़ते हैं और अपनी मुद्रा में इन्हे सॉवरेन बांड जारी करने में कठिनाई होती है।
इस प्रकार ऐसे देशों पर विदेशी मुद्रा में ऋण चढ़ जाता है। (आपको याद होगा कि लेख में पहले बताया गया है कि बॉन्ड के माध्यम से सरकार को जो पैसा मिला है उसे वापिस करना है, इसलिए यह सरकार पर ऋण होता है)
कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले देश विदेशी मुद्राओं में उधार लेने के लिए क्यों मजबूर है?
यह कई कारणों से होता है। सबसे पहले, निवेशक मानते हैं कि गरीब देशों की सरकारों में पारदर्शिता की कमी है और वे भ्रष्टाचारी हैं। जिससे, ऋण से प्राप्त राशि और सरकारी निवेश को वे अनुत्पादक क्षेत्रों में लगा देती हैं और ऋण को वापस देने की उनकी संभावना कम हो जाती है।
दूसरा, गरीब देश अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में निर्यात के बदले आयात अधिक करते हैं। जिससे उनकी मुद्रा कमजोर होती है। साथ ही वहाँ मुद्रास्फीति की उच्च दर होती है, जो निवेशकों द्वारा प्राप्त प्रतिफल की वास्तविक दरों को विकसित देशों की स्थापित मुद्राओं की तुलना में कम कर देती है। निवेशक ऐसी कमज़ोर मुद्रा में जारी किए गए बॉन्ड नहीं खरीदना चाहते। इसलिए, कम विकसित देश विदेशी मुद्राओं में बॉन्ड के माध्यम से उधार लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं, जिससे उनकी उधार लागत अधिक महंगी हो जाती है।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि भारत सरकार पूंजी जुटाने के लिए अमरीकी डॉलर में बांड जारी करती है। यदि बॉन्ड के ब्याज दर 5% है, लेकिन बांड की परिपक्वता के समय, भारतीय रुप्या, डॉलर की तुलना में 10% तक मूल्यह्रास करता है, फिर, वास्तविक ब्याज दर भारत सरकार के 15% हो जाता है, और मूलधन का डॉलर में मूल्य भी 10% और अधिक हो जाता है। इस प्रकार विश्व अर्थव्यवस्था में भारी असमानता के कारण कुछ ही विकसित देशों की वित्तीय संस्थाएं अन्य तमाम विकासशील गरीब देशों की सरकारों के बॉन्ड खरीदकर मुनाफ़ा कमाते हैं और यह गरीब देश अच्छे विकास नहीं कर पाते।
विश्व पर अमरीका का वर्चस्व
विश्व अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक शक्तिशाली मुद्रा अमरीकी डॉलर है। इसलिए विश्व के, न केवल अधिकतर संप्रभु बॉन्ड अमरीकी डॉलर में जारी किए जाते हैं बल्कि विश्व के तमाम देश, अपनी वित्तीय संपत्ति बनाने के लिए अमरीकी सरकार द्वारा जारी बॉन्डों को खरीदते हैं क्योंकि वे उसे अपने देशों की मुद्रा से और सुरक्षित मानते हैं। इसका फ़ायदा उठाकर अमरीकी सरकार दुनिया भर में अपनी सेना को तैनात करके रखती है जिसका खर्च इन बॉन्डों को बेचकर आए धन से उठाया जाता है। इससे उसकी सैनिक ताकत के कारण उसे आर्थिक व्यापार में भी बहुत फायदा होता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत इस प्रकार चरितार्थ हो जाती है।
विदेशी मुद्रा में संप्रभु बॉन्ड जारी करने के क्या परिणाम होते हैं?
भारत की बात अगर की जाए तो सरकार बॉन्ड बेचकर जो उधार लेती है, उस विदेशी मुद्रा के बॉन्डों के ऋण को पूरा करने के लिए अधिक रुप्ये भरने पड़ते हैं क्योंकि विदेशी मुद्रा की तुलना में भारतीय रुप्ये लगातार कमजोर होते जाते हैं। इस कारण से देश का, विकास में निवेश करने के लिए, कम धन बचता है।
दूसरी बात यह है कि विदेशी ऋण को अधिकतर ऐसे मदों पर खर्च किया जाता है जिससे अमीर वर्ग को ही फ़ायदा होता है। सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार सृजन पर कुल मिलाकर देश की आय का केवल 5 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है जब कि यह कम से कम 20 प्रतिशत होना चाहिए। इस वजह से भारत की अधिकतर जनता अशिक्षित, अस्वस्थ एवं बेरोजगार है। इस से सीधे सीधे अमीर वर्गों को फायदा होता है क्योंकि उन्हें कम मजदूरी पर श्रमिक मिल जाते हैं और वे आसानी से उनसे अधिक काम ले सकते हैं। इसके अलावा हमारे देश में जो वस्तुएँ आयात की जाती हैं वे अधिकतर अमीर वर्गों के उपभोग के लिए होती हैं। क्योंकि निर्यात से आयात अधिक है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में घाटा होता है जिसका बोझ देश के गरीब लोगों को उठाना पड़ता है।
हमारे देश की अर्थव्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी निवेश के कारण हमारी नीतियों को भी दूसरे देश व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं प्रभावित कर पाती हैं।
सरकार द्वारा लिये गये उधार को आखिर देश की पूरी जनता को, कर देकर चुकाना पड़ता है। इस प्रकार अमीर वर्ग की अय्याशी देश की असंख्य गरीब जनता के खून पसीना से पूरी हो रही है।
संस्कृत में एक कहावत है – ऋणंग कृत्तंग घृतंग पिबेत यानि उधार करके भी घी पियो। भारत में सरकार द्वारा संप्रभु बॉन्ड जारी कर अमीर वर्गों की अय्याशी को प्रोत्साहित करना इस कहावत को चरितार्थ करता है।
फीचर्ड फोटो आभार: बिज़नस स्टैण्डर्ड