युवानिया डेस्क:
पेरियार ई. वी. रामासामी ने भारत में जाति उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन्होंने तमिल नाडु में आत्मसम्मान आंदोलन की स्थापना की और द्रविड़ कड़गम का भी गठन किया। पेरियार ने भेदभाव आधारित जाति व्यवस्था और इसके तहत कराई जाने वाली गुलामी की कटु आलोचना और कड़ा विरोध किया। उन्होंने अपने हितों के लिए इस भेदभाव आधारित व्यवस्था का इस्तेमाल कर शोषण करने वालों और आम जन को गुलामी में झोंक देने वालों का कड़ा प्रतिकार किया।
उन्होंने यह महसूस किया कि समाज के कुछ गिनती भर के लोगों ने अपनी सत्ता स्थापित करने और लोगों पर राज करने के लिए जातिभेद को पैदा किया है। इसलिए उनका विचार था कि हर व्यक्ति पहले आत्मसम्मान विकसित करे और तर्कसंगत रूप से अपने समाज की व्यवस्थाओं, रीति-रिवाजों, और कर्मकांडों का विश्लेषण करे। एक आत्मसम्मानी और तर्क पर भरोसा करने वाले व्यक्ति को अपने आप ही यह एहसास हो जाता है कि जाति व्यवस्था लोगों के आत्मसम्मान का गला घोंट देती है, इसलिए वह खुद ही इस खतरे से छुटकारा पाने का प्रयास करता है।
पेरियार ने कई सार्वजनिक बहसों और अपने भाषणों के दौरान जाति व्यवस्था को विस्तार से समझाया। उनका कहना था कि दक्षिण भारत में जाति व्यवस्था, इंडो-आर्यन लोगों का प्रभाव के कारण स्थापित हुई जो उत्तर भारत से ब्राह्मण समुदाय के लोगों के आगमन से जुड़ा हुआ है। पेरियार का मानना था कि थोड़ी सी भी तर्कपूर्ण समझ रखने वाले लोग, ब्राह्मणों के साथ विशेष व्यवहार नहीं करेंगे। कथित निचली जातियों के लोग ब्राह्मणों के साथ जो कुछ प्रचलित सम्मान सूचक हरकतें या विशेष व्यवहार करते हैं उसके कुछ उदाहरण हैं- जैसे उनके पैरों पर गिरना और कभी-कभी उनके पैर धोना और उस पानी को पीना। पेरियार कहते थे कि गांधी ने जाति व्यवस्था का समर्थन किया और इसे संरक्षण भी दिया। जब ‘अछूत’ या निचली जाति के लोगों को कुओं से पानी लेने और मंदिरों में प्रवेश करने से रोका गया तो गाँधी ने इसका विरोध करने के बजाय उनके लिए अलग कुएं और अलग मंदिर बनाने का सुझाव दिया। पेरियार ने इसका विरोध किया और इंडो आर्यन लोगों के वेदों को जला देने और उनकी देव प्रतिमाओं को नष्ट कर देने की बात कही, क्यूंकी उन्होने ही जाति व्यवस्था को और छुआछूत को बनाया था।
पेरियार ने कहा कि जाति व्यवस्था ने वास्तव में इंसान के प्रति इंसान के व्यवहार के विचार को विकृत कर दिया है। जन्म और जीवन के आधार पर अलग-अलग जाति के लिए बनाई गई अलग-अलग आचार संहिताओं का सदियों से पालन करने के कारण हिंदू समाज की मानसिकता इस कदर विकृत हो गई है कि उसे सुधारा नहीं जा सकता, इसने सामाजिक आचरण में एकरूपता के विचार को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है। भारतीय समाज में मौजूद श्रेणीबद्ध असमानता, हिंदुओं के आचरण में इस कदर घुल चुकी है जैसे वह उनके खून में हो। तर्कसंगत अंग्रेजी शिक्षा मिलने और जीवन जीने के बेहतर स्तर पर पहुँचने के बाद भी, यह असमानता उनके मानस और व्यवहार से निकल नहीं सकती।
आत्मसम्मान आंदोलन: यह कोई पूर्व नियोजित आंदोलन नहीं था, यह पूरी तरह से आकस्मिक था। 1925 से 1929 के बीच पेरियार की गतिविधियाँ पर गौर करेंगे तो पता चलेगा कि उन्होंने, उस समय की परिस्थितियों के अनुसार ही कदम उठाए। राजाजी सहित उनके कई सहयोगी चाहते थे कि वह कांग्रेस में रहें और गैर-ब्राह्मणों के हितों के लिए लड़ें, लेकिन उन्हें यह विचार पसंद नहीं आया। ऐसे हालातों में उनके पास दो ही विकल्प थे। पहला, तिरु वी. कल्यानसुंदरम और अन्य गैर ब्राह्मण नेताओं के सुझाव को माने और तमिल नाडु कांग्रेस के साथ बने रहें और, गैर ब्राह्मण और ब्राह्मण दोनों ही वर्गों के प्रगतिशील लोगों के साथ मिलकर सामाजिक असमानता को समाप्त करने का प्रयास करें। या फिर दूसरा यह कि वह अपना एक अलग संगठन बनाएँ और गैरबरबरी को बढ़ावा देने वाली सामाजिक व्यवस्थाओं की खिलाफ़त करें।
पेरियार का मानना था कि उनके जीवनकाल में पहला विकल्प असंभव है, इसलिए उन्होंने दूसरे को चुना और एक नए संगठन की स्थापना की। उन्होने कांग्रेस से अलग होकर न्यायसंगत समाज के निर्माण की ओर कदम बढ़ाए, वह एक गतिशील सामाजिक आंदोलन की नींव रख रहे थे जिसे आत्मसम्मान आंदोलन के नाम से जाना गया। आत्मसम्मान आंदोलन केवल एक समाज सुधारवादी आंदोलन नहीं था, इसका लक्ष्य हिन्दू समाज के भेदभाव और असमानता को बढ़ावा देने वाले ढांचे को खत्म करना और उसके बरक्स एक जाति, धर्म और ईश्वर रहित तर्कशील सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना था। इसे एक क्रांतिकारी आंदोलन माना गया जो पुरानी रूढ़ियों और कुप्रथाओं को खत्म करने के साथ एक नई व्यवस्था का सृजन भी कर रहा था। एक तरह से अंत से सृजन या रचनात्मक अंत।
आत्मसम्मान का अर्थ: पेरियार ने आत्म-सम्मान का अर्थ और इसके उद्भव के कारणों को पूरी तरह से समझाया। पेरियार ने कहा, “आत्म-सम्मान आंदोलन को किसी समुदाय विशेष या किसी संप्रदाय के बारे में भला-बुरा कहने के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक बुराइयों को समग्र रूप से नष्ट करने के लिए शुरू किया गया था।” पेरियार के अनुसार ब्रह्म समाज और आर्य समाज की स्थापना करने वाले ब्राह्मणों ने भी अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए ही इन्हें बनाया था। इसलिए गैर-ब्राह्मणों को यह अधिकार है कि उनके आत्मसम्मान पर हमला करने वाली प्रथाओं और व्यवस्थाओं के खिलाफ वह अपने संगठन बनाएँ।
इसलिए उन्होंने अपने आंदोलन को “आत्मसम्मान आंदोलन” का नाम दिया। बाद में इसकी व्याख्या ऐसे की गई कि यह आंदोलन, पूरी मानवता को आत्मसम्मान की ओर ले जाने के लिए शुरू किया गया था। आत्मसम्मान आंदोलन के पीछे पेरियार का मकसद कुछ और नहीं बल्कि जाति व्यवस्था और उसकी बुराइयों की अवमानना करना था। कांग्रेस में उनके कड़वे अनुभव भी इस आंदोलन के उद्भव के लिए ज़िम्मेदार थे।
आत्मसम्मान आंदोलन, दक्षिण भारत के गैर-ब्राह्मणों को उनके द्रविड़ इतिहास के लिए गर्व महसूस कराने के लक्ष्य के लिए समर्पित था। इसका अर्थ ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नकारना भी था, जिन्हें पेरियार ने आर्यों के प्रतिनिधि के रूप में वर्णित किया था। हालांकि यह एक सामाजिक सुधार आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था लेकिन इसके प्रभाव को राजनीतिक क्षेत्र में भी महसूस किया गया।
आत्म-सम्मान आंदोलन के उद्देश्यों को दो पर्चों- नमाथु कुरीक्कोल और तिरवितक्कलका लातेयम में समझाया गया है जो इस प्रकार हैं-
(i)- इस आंदोलन का उद्देश्य उस सामाजिक ढांचे को खत्म करना है जिसमें किसी एक वर्ग या वर्गों के लोग, अन्य लोगों से बेहतर होने का दावा करते हैं और कुछ लोग दूसरों की तुलना में उच्च श्रेणी में जन्म लेने का दावा करते हैं।
(ii)- इसका उद्देश्य सभी लोगों के लिए समान अवसरों को सुनिश्चित करना है, चाहे वह किसी भी समुदाय से हों। यह आंदोलन समाज में कानून के अनुसार महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर मिलने के लक्ष्य की और सतत प्रयासशील है।
(iii)- सभी लोगों को आगे बढ़ने और विकसित होने के समान अवसर मिलें।
(iv)- मित्रता और बंधुत्व की भावना सभी लोगों के बीच स्वाभाविक रूप से विकसित हो।
(v)- इसका उद्देश्य छुआछूत को पूरी तरह से समाप्त करना और एक संयुक्त समाज की स्थापना करना है।
(vi)- अनाथों और विधवाओं के लिए घर बनाए जाएँ, उनकी देखभाल और शिक्षा के लिए संस्थान हों।
(vii)- लोगों को नए मंदिर, मठ, या वैदिक स्कूल बनाने से हतोत्साहित करना। लोग अपने नाम से जाति की उपाधियों को हटा लें। जनता के पैसे का उपयोग शिक्षा के लिए बेरोज़गारों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए हो।
समाज में सुधार लाने के लिए, आत्म-सम्मान आंदोलन के तहत यह कार्यक्रम चलाए गए:
(i)- जाति चिन्हों, जाति आधारित वेशभूषा और जाति के नामों के उपयोग की प्रथाओं को हटाने से संबन्धित।
(ii)- इसका उद्देश्य विवाह और अन्य सामाजिक कार्यों, समारोह आदि के लिए ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति को समाप्त करने से संबन्धित।
(iii)- तलाक, विधवा विवाह और अंतर्जातीय विवाह से संबंधित कानूनों को सरल बनाने का समर्थन करने से संबन्धित।
आत्मसम्मान विवाह एक जातिविहीन समाज की स्थापना का प्रयास करता है, आंदोलन ने इसका समर्थन किया और सभी समारोहों के संचालन करने के लिए ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति का बहिष्कार किया। आंदोलन की निरंतरता के परिणामस्वरूप कुछ गैर-ब्राह्मणों ने ब्राह्मण पुजारियों के बिना ही अपना विवाह करना शुरू कर दिया। पेरियार सहित कई लोगों ने ऐसे विवाह किए, जिन्हें लोकप्रिय रूप से ‘आत्मसम्मान विवाह’ के रूप में जाना जाता था। आत्मसम्मान विवाह के तरीकों से की गई शादियों का तीन गुना अधिक महत्व है:
(i)- पुरोहितों का प्रतिस्थापन (ब्राह्मणवादी तरीकों का बहिष्कार)
(ii)- अंतर-जाति समानता
(iii)- स्त्री-पुरुष समानता।
पेरियार ने माना था कि तत्कालीन पारंपरिक विवाह केवल वित्तीय व्यवस्थाएं हैं जो अक्सर दहेज के माध्यम से लोगों के सर पर कर्ज का भार दाल देती हैं। आत्मसम्मान विवाहों ने अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया, जिसका लक्ष्य था कि प्रेम विवाह या लव मैरिज, पारंपरिक विवाह या अरेंज्ड मैरिज की जगह ले लें। आत्मसम्मान विवाह के समर्थकों द्वारा इसके पक्ष में यह तर्क दिया गया था कि तत्कालीन पारंपरिक विवाह ब्राह्मणों द्वारा संपन्न किए गए थे, जिनके लिए उन्हें किसी तय राशि का भुगतान किया जाता था और विवाह समारोह के मंत्र भी संस्कृत में था जो अधिकांश लोगों ने नहीं समझ आते थे। इसलिए इन्हें बिना सोचे समझे पालन किया जाने वाला अनुष्ठान या प्रथा ही माना जाएगा।
पेरियार के लिए शादी एक आपसी समझौता है, जिसे दो लोग मिलकर आपसी उद्यम (मेहनत) से चलाते हैं। यह एक स्वाभाविक प्रकृति का विधान है, कोई एकतरफा अनुबंध नहीं जिसमें महिला एक कमज़ोर की भूमिका को स्वीकार करती है।
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