ଡୋଲାମଣି ବନଛୋର (डोलामणी वनछैर):
ଓଡ଼ିଶା ପ୍ରଦେଶର କେ.ବି.କେ. ଅଂଚଳ ବଲାଙ୍ଗିର ଜିଲ୍ଲା ତୁରେକେଲା ବ୍ଳକର କୁଲିଆଦର ଗ୍ରାମର ତେର (୧୩) ଗୋତି ଶ୍ରମିକ ପରିବାର ଉଦ୍ଧାର ହେବାର ଚାରିବର୍ଷ ପରେ ମଧ୍ୟ ପ୍ରଶାସନକୁ ବାରମ୍ବାର ଅନୁରୋଧ ସତ୍ତ୍ଵେ ସେମାନଙ୍କୁ ସରକାର ଉଚିତ ନ୍ୟାୟ ଦେଇପାରି ନାହିଁ । ସେମାନଙ୍କ ସମ୍ବିଧାନିକ ଅଧିକାରକୁ ବାରମ୍ବାର ହନନ କରାଯାଉଛି । ସନ୍ ୨୦୧୬ ମସିହାରେ ଏହି ଗୋତି ଶ୍ରମିକ ପରିବାରମାନେ ଗାଁର ଜଣେ ଦାଦନ ଦଲାଲଠାରୁ ପଇସା ନେଇ ତାମିଲନାଡୁ ରାଜ୍ୟରେ ତିରୁଭେନ୍ଦୁର ଜିଲ୍ଲା ପୋଷାକମ ଗାଁର SLG ଇଟାଭାଟିରେ କାମ କରିବାକୁ ଯାଇଥିଲେ ଦାଦନ ଦଲାଲ କଂଟାବାଞ୍ଜିରୁ ରେଳଗାଡି ସାହାଯ୍ୟରେ ପୋଷାକମ ଗାଁର ଇଟାଭାଟିକୁ ନେଇଥିଲା ସେଠାରେ ପହଂଚିଲା ପରେ ମାଲିକ ଲିଲାକ୍ରିଷ୍ଣା ମୋହନ ରାଓ ର ନିର୍ଯ୍ୟାତନା ଆରମ୍ଭ ହୋଇଯାଇଥିଲା । ସେହି ଭାଟିରେ ପିଇବା ସ୍ବଚ୍ଛପାଣି,ଛୋଟ ଛୁଆ ମାନଙ୍କ ପାଇଁ ଅଙ୍ଗନୱାଡି ଓ ସ୍କୁଲର ସୁବିଧା ନଥିଲା । ରହିବା ପାଇଁ ଛୋଟ ଛୋଟ କୁଡିଆ ଘୁଷୁରୀ ରହିବା ଘର ଭଳି ଦିଆଯାଉଥିଲା । ରୋଗ ବେମାର ହେଲେ ସ୍ଥାନୀୟ କ୍ବାକ୍ ମାନଙ୍କ ଦ୍ଵାରା ଚିକିତ୍ସା କରାଯାଉଥିଲା | ଯେ କୌଣସି ସମସ୍ଯା ହେଲେ ମଧ୍ଯ ରୋଗୀକୁ ସମାନ ଧରଣର ବଟିକା ଖାଇବାକୁ ଦିଆଯାଉଥିଲା । ପ୍ରତିବାଦ କଲେ ମାଲିକ ଓ ତା’ ବାପା ଶ୍ରମିକ ମାନଙ୍କୁ ମାଡ ମାରୁଥିଲେ । ଦିନରାତି ସତର ରୁ ଅଠର ଘଂଟା କାମ କରିବାକୁ ପଡ଼ୁଥିଲା । କାହାକୁ ଜ୍ବର କିମ୍ବା କିଛି ଅସୁବିଧା ହେଲେ ଆରଦିନ ତାକୁ ଅଧିକ ସମୟ କାମ କରିବାକୁ ଧମକ ଦିଆଯାଉଥିଲା । ଦିନକୁ ଦିନ ମାଲିକ ଓ ତା ବାପାର ନିର୍ଯ୍ୟାତନା ବଢିବାରେ ଲାଗିଲା। ମାଲିକର ବାପା ସନ୍ଧ୍ୟାରେ ଭାଟିରେ ବୁଲିବୁଲି ଇଟାକୁ ଚେକ୍ କରି ଇଟା ଉପରେ ଚାଲିଲେ ଓ ଇଟା ଫାଟିଗଲେ ତାକୁ ମାତମାରିବା ଆରମ୍ଭ ହୋଇଯାଉଥିଲା। ସପ୍ତାହକ ପାଇଁ ଖାଇବା ପଇସା ବନ୍ଦ କରିଦିଆଯାଉଥିଲା । ଶ୍ରମିକମାନଙ୍କୁ ମାଡମାରିବା ଅଭ୍ୟାସରେ ପରିଣତ ହୋଇଗଲା । ଏପରିକି ମହିଳାମାନଙ୍କୁ ଅସଭ୍ୟ ଭାଷାରେ ଗାଳିଦେବା ଓ ଶ୍ରମିକମାନଙ୍କୁ ମାଡମାରିବା ସୀମା ପାର ହୋଇଗଲା ।
ଗୋଟେ ଦିନ ବସନ୍ତ ବୋଲି ଜଣେ ଶ୍ରମିକକୁ ଇଟାମାରି ସେ ଆକ୍ରମଣ କଲା ଓ ବସନ୍ତ ବଂଚୁ ବଂଚୁ ବଂଚିଗଲା । ସେହି ଦିନୁ ଶ୍ରମିକମାନଙ୍କ ଜୀବନ ପ୍ରତି ଭୟ ହୋଇଗଲା ଓ ସେମାନେ ଗାଁ ରେ ଥିବା ନିଜ ସମ୍ପର୍କୀୟ ମାନଙ୍କୁ ଏହି ବିଷୟରେ ମୋବାଇଲ ଫୋନରେ ଜଣାଇଲେ । ଗାଁରେ ସେମାନଙ୍କ ସମ୍ପର୍କୀୟମାନେ ଦାଦନ ଦଲାଲକୁ ମାଲିକ ନିର୍ଯ୍ୟାତନା ନଦେବାକୁ ଅନୁରୋଧ କଲେ କିନ୍ତୁ ସେହି ଦିନଠାରୁ ମାଲିକ ନିର୍ଯାତନା ଦେବା ବଢାଇଦେଲା । ଶ୍ରମିକମାନଙ୍କୁ ମୋବାଇଲ ଫୋନରେ କଥାହେବା ବନ୍ଦ କରିଦେଲା । ଶ୍ରମିକମାନଙ୍କ ସମ୍ପର୍କୀୟ ଶ୍ରମ ବିଭାଗ ଓ ସାମାଜିକ ସଂଗଠନର ସହାୟତା ପାଇଁ ଲିଖିତ ଜଣାଇଲେ । ତାପରେ ସାମାଜିକ ସଂଗଠନ ଓ ତିରୁଭେଲୁର ଜିଲ୍ଲା ପ୍ରଶାନ ଦ୍ଵାରା SLG ଇଟାଭାଟିରୁ ଶ୍ରମିକମାନଙ୍କୁ ଉଦ୍ଧାର କରାଗଲା । ଉଦ୍ଧାର ହେବାପରେ ଗୋତିଶ୍ରମିକ ଆଇନ ଅନୁସାରେ ସରକାରୀ ସହାୟତା ଯୋଗାଇଦେବା କଥା କିନ୍ତୁ ପ୍ରଶାସନ ଓ ସରକାରଙ୍କ ଉଦାସୀନତା ଯୋଗୁଁ ସେମାନଙ୍କ ସହାୟତା ମିଲିନାହିଁ । ସେମାନେ ଆଉଥରେ ଦାଦନ ଖଟିବାକୁ ଯାଇ ନିର୍ଯ୍ୟାତିତ ହେବା ପାଇଁ ପ୍ରସ୍ତୁତ ହେଉଛନ୍ତି କାହିଁକି ନା ଏଠାରେ ଥିଲେ ଭୋକରେ ମରିବା ଓ ସେଠାକୁ ଗଲେ ନିର୍ଯ୍ୟାତନାରେ ମରିବା ନିଶ୍ଚିତ । ଭୋକରେ ମରିବା ଅପେକ୍ଷା ନିର୍ଯ୍ୟାତନାରେ ମରିବାକୁ ସେମାେନ ବାଛି ନେଇଛନ୍ତି । ବୋଧେ ଏଇ ଗୋତିଶ୍ରମିକମାନେ ଭାରତରେ ବାସ କରୁଛନ୍ତି ବୋଲି ଆଜିକୁ ସ୍ୱାଧୀନତାର ଚଉସ୍ତରୀ ବର୍ଷ ପରେ ମଧ୍ୟ ତାଙ୍କଠାରୁ ସମ୍ମାନ ସହ ବଂଚିବା ଅଧିକାରକୁ ଛଡେଇ ନିଆଯାଉଛି । ଯଦି ସେମାନେ ଭାରତରେ ବାସ କରୁଥାନ୍ତି ତାହେଲେ ସମସ୍ତେ ଅଧିକାରକୁ ଉପଭୋଗ କରିଥାନ୍ତେ।
हिंदी अनुवाद –
ईंट भट्टों के मज़दूर: स्वतंत्र भारत के पराधीन नागरिक
पश्चिम ओडिशा के बलांगीर ज़िले का तुरेकेला प्रखंड, यहाँ के केबीके इलाके के कुलियादर गांव के 13 बन्धुआ मज़दूर परिवारों का साल 2016 में तमिल नाडु के एक ईंट भट्टे से रेसक्यू (मुक्त कराया) गया था। रेसक्यू के चार साल बाद, और प्रशासन से बार-बार अनुरोध करने के बावजूद सरकार उनके साथ न्याय नहीं कर पाई है। उनके संवैधानिक अधिकारों का बार-बार हनन किया गया है। 2016 में, ये 13 मज़दूर परिवार अपने गांव के एक दलाल से पैसे लेकर तमिल नाडु के तिरुचेंदुर ज़िले के पोशाकम गाँव के एसएलजी ईंट भट्टा में काम करने गये थे। वहां पहुंचने के तुरंत बाद ही, ईंट भट्टा मालिक लीलाकृष्ण मोहन राव ने, मज़दूरों का उत्पीड़न शुरू कर दिया।
इन मज़दूर परिवारों की रहने की जगह पर ना तो स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था थी और ना ही उनके बच्चों के लिए किसी आंगनबाड़ी या स्कूल की सुविधा ही उपलब्ध थी। रहने के लिए एक छोटा सा झोंपड़ीनुमा घर दे दिया गया था। बीमार होने पर इलाज के लिए स्थानीय झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाना पड़ता था। किसी भी बीमारी के लिए मरीज को एक ही प्रकार की दवा दे दी जाती थी। विरोध करने पर भट्टा मालिक और उसका पिता, मज़दूरों के साथ मार-पीट करते थे।
इन अमानवीय परिस्थितियों में रह रहे मज़दूरों से दिन-रात 17 से 18 घंटे काम कराया जाता था। कोई मज़दूर यदि बुखार या किसी और समस्या की वजह से कसी दिन काम ना कर पाए, या कम काम करे तो अगले दिन उसे अधिक काम करने के लिए धमकाया जाता था। दिन पर दिन, मालिक और उसके पिता का उत्पीड़न बढ़ता जा रहा था। मालिक का पिता शाम को भट्टे के इर्द-गिर्द घूमटा और ईंटों की जांच करने के लिए उन पर चलता, इस दौरान यदि कोई ईंट टूट जाती तो मज़दूरों को बेरहमी से पीटा जाता था। सप्ताह भर के लिए उनका भोजन बंद कर दिया जाता था। मज़दूरों को पीटना इन लोगों की आदत बन गई थी और अभद्र भाषा में महिलाओं का अपमान और गाली-गलौज करना भी हर दिन की बात हो गई थी।
एक दिन वसंत नाम के एक मज़दूर पर ईंट से हमला किया गया लेकिन सौभाग्य से वह बच गया, उसी दिन से मज़दूरों में जान पर डर पैदा हो गया। उन्होंने इस बारे में गांव में अपने रिश्तेदारों को मोबाइल फोन पर सूचित किया। इसके बाद गांव में उनके रिश्तेदारों ने दलाल से, मालिक को मज़दूरों की प्रताड़णा बंद करने का अनुरोध किया। उस दिन के बाद से मालिक और उग्रता के साथ मज़दूरों को प्रताड़ित करने लगा। उनके मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर भी उसने रोक लगा दी।
इस अत्याचार और अन्याय का अंत ना होते देख, श्रमिकों के रिश्तेदारों ने श्रम विभाग में और ज़िंदाबाद संगठन के पास लिखित रूप से इसकी शिकायत दर्ज कराई। तब सामाजिक संगठनों, और तिरुचेंदुर जिला प्रशासन द्वारा मज़दूरों को एसएलजी ईंट भट्टे से मुक्त कराया गया। रेसक्यू के बाद इन मज़दूरों को कानून के अनुसार सरकारी सहायता मिलनी थी, लेकिन बंधुआ मज़दूरी जैसी गंभीर समस्या पर सरकार के इस उदासीनतापूर्ण रवैये के चलते, अब तक यह उन्हें नहीं मिल पाई है। आज ये मज़दूर एक बार फिर से उन्हीं ईंट भट्टों में जाकर खुद अपना शोषण करवाने की तैयारी कर रहे हैं। वो या तो यहाँ अपने अधिकारों और न्याय पाने के लिए चिल्लाते रह जाएंगे या फिर ईंट भट्टों में जाकर, शोषित होकर मारे जाएंगे। ऐसा लगता है जैसे ये लोग चीखते रहने से ज़्यादा शोषित होकर मरने के लिए मजबूर हैं। आज़ादी के 75 साल बाद भी, देश के इन नागरिकों को अपने ही देश में सम्मान से जीने के सांवैधानिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है।
फीचर्ड फोटो प्रतीकात्मक है | फीचर्ड फोटो आभार : मैक्स पिक्सल
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