गुफ़रान सिद्दीकी:
सहिष्णुता और असहिष्णुता की बहस के बीच एक बात जो हम नज़र अंदाज़ करते रहे, वह है दोस्ती के रिश्ते में पिरोया हमारा समाज। मुझे याद है कि बचपन में हम ढेर सारे दोस्त कैसे एक दूसरे की टिफिन छीन-झपट कर इंटरवल में अपनी भूख मिटाते और खेलते-पढ़ते हुए साथ समय बिताते थे। इस दोस्ती के रिश्ते में धार्मिक साम्प्रदायिकता के एक भी तत्व नहीं मिलते। जिस कसैलेपन को हम अपनी नियति मान चुके हैं, हकीकत में वह इतना भी टिकाऊ नहीं है कि इसके स्वाद को हम मिलकर बदल न सके। पुरानी दोस्तियों के तार इतने भी कमज़ोर नहीं कि इतनी जल्दी बंधन छोड़ दें।
मज़हब और सियासत के घालमेल से बनी इस परिस्थिति से निकलने के लिए हमें उन दिनों में लौटने की ज़रूरत है, जहाँ स्कूल से निकल कर कभी वकार, कभी विवेक, कभी तनवीर और कभी जगदम्बा के घर, मंडली, पेट पूजा के लिए इकट्ठी हो जाती और फिर वहां से निकलकर वापस राजकीय इंटर कॉलेज की तरफ रुख हो जाता। खेल के मैदान से लेकर विद्यालय गेट के बाहर शंकर के जलजीरे के ठेले तक, इसमें कहीं भी धर्म या जाति आड़े नहीं आयी। इस शानदार दोस्ती के अनुभव को हम अपनी ज़िन्दगी में जितनी अहमियत देते हैं उतना हम मानवीय मूल्यों के करीब होते हैं और इन्ही मानवीय मूल्यों से सांप्रदायिक राजनीती को डर लगता है।
बात 2014 की है जब ख़बरों में अचानक ऋषिकेश के एक साधू सेवानंद आ गए। खबर थी बिजनौर निवासी एक 24 वर्षीय मुस्लिम नौजवान मज़दूर नासिर की आतंकवाद के आरोप से न्यायालय द्वारा साधू सेवानंद जी की गवाही से बरी होने की। मामला था साल 2007 का जब युवक पलायन करके ऋषिकेश के एक मंदिर में मज़दूरी करने लगा, करीब महीना भर मज़दूरी करने के बाद अचानक उस लड़के को एक दिन एटीएस उठा ले जाती है और एक आतंकवादी घटना में शामिल बता कर गिरफ्तार कर लेती है। जब यह खबर जब सेवानंद जी को पता चलती है तो वो विचलित हो जाते हैं। मीडिया उस मज़दूर लड़के को आतंकवादी साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती, तमाम जानने वाले और रिश्तेदार नासिर के परिवार से दूरी बना लेते हैं। नासिर के पिता जो परचून की दूकान चलाने के साथ ही राम लीला में हारमोनियम बजाने का काम करते थे, वो अचानक खुद को घर में बंद कर लेते हैं। लेकिन बात जब कोर्ट में गवाही की आती है, तब साधू सेवानंद महाराज अस्वस्थ्य होने के बाद भी कोर्ट में हाज़िर हो कर उस लड़के की बेगुनाही साबित करते हैं और 7 वर्षों बाद नासिर आतंकवाद जैसे बड़े आरोप से बरी हो जाता है। रिहाई मंच के अध्यक्ष और नासिर के वकील एडवोकेट मोहम्मद शोएब कहते हैं कि सेवानंद जी से जब आने जाने में हुए खर्च के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह न्याय के प्रति उनके द्वारा दी गयी गवाही है, इसमें उनको किसी खर्च की ज़रूरत नहीं है। इस घटना से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि हमारी सौहार्द और बंधुता की जड़ें गहरी हैं, जहाँ ऐसे ही हम साथ-साथ जीते आये हैं। हमें धर्म या मज़हब के झगडे में फंसाने वाले दरअसल वो लोग हैं जो हिटलर के नाज़ीवाद से प्रभावित हैं।
वर्तमान में जिस तरह का धार्मिक समाज हमारे सामने है उसको देख कर लगता है कि सभी धर्म ख़राब हैं, जबकि ऐसा है नहीं बल्कि उसके मानने वालों की स्थिति आज इतनी भयावाह है कि वो हिंसा से नीचे कुछ सोच ही नहीं पाते हैं। एक तरफ हर धर्म को सहिष्णुता, न्याय और मोक्ष का प्रतीक बताने की होड़ मची है तो वहीं धर्म के नाम पर प्रेम करने वालों की जाने ले ली जा रही है, न्याय की मांग करने वाले सरेआम पीटे जा रहे हैं और पूरी दुनिया में धर्म के नाम पर इंसानों की लाशों के ढेर लगाने की होड़ सी मची हुई है। धार्मिक लोग एक तरफ तो मानते हैं कि दुनिया में सबसे शक्तिशाली ईश्वर ही है और फिर उसी ईश्वर की रक्षा के नाम पर दंगे-फसाद, मार-काट मचाते हैं। जबकि हकीकत यह है कि वो ईश्वर को नहीं बल्कि ईश्वर के नाम पर समाज में अपनी लालच और घृणा को फैलाते हैं, जिससे जनता के संसाधनो पर उनका कब्ज़ा बना रहे और उनसे सवाल न किये जाएँ।
गौर करने वाली बात यह है कि दुनिया में धार्मिक देशों की स्थिति आज बद से बदतर होती जा रही है, आज के समय कोई ऐसा धर्म नहीं जिसके मानने वाले हिंसा में शरीक न हों। वर्तमान में ऐसी स्थिति बना दी गयी है कि लोग अपने ही धर्म के लोगों को धार्मिक रक्षा के नाम पर मार दे रहे हैं और इस अन्याय के खिलाफ बोलने के बजाय लोग हत्यारों के साथ ही खड़े हो जा रहे हैं। हम सब ने देखा कि आसिफा के केस में कैसे उसके हत्यारों के पक्ष में समाज का एक वर्ग तिरंगा लेकर सड़कों पर उतर आया था। पूरी दुनिया में जिस तरह से धार्मिक कट्टरता का विकास हुआ है, उसने दुनिया के अलग-अलग देशों में रह रहे धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को खतरे में डाल दिया है। वर्तमान में मध्य एशिया के घटनाक्रम को देखें तो पाएंगे कि अफगानिस्तान स्थिति फ़िलहाल सबसे अधिक ख़राब नज़र आ रही है।
इससे निकलने के लिए हमें लोकतंत्र के मूल्यों को आत्मसात करना होगा। समानता, न्याय और बंधुत्व के विचार को दृढ़ता से लागू करना होगा। हमारे सामने नाज़ी जर्मनी का उदाहरण है कि कैसे हिटलर ने नफरत और घृणा को अपनी सत्ता के लिए इस्तेमाल किया, जहाँ एक आम जर्मन भी यहूदियों के खून का प्यासा नज़र आने लगा था। शुद्धता और श्रेष्टता का ये नशा लाखों यहूदियों की दर्दनाक मौत के रूप में हमारे सामने आया और फिर यह नशा जब उतरा तो यही आम जर्मन खुद से भी नज़रे मिलाने के लायक नहीं बचे थे। नाज़ी जर्मनी में यहूदियों को मज़े के लिए अपना शिकार बनाने का आम चलन नागरिकों में था। महिलाओं का बलात्कार, लिंचिंग और सामूहिक हत्याएं गर्व का विषय बन चुकी थी। हिटलर के आत्महत्या करने के बाद, जर्मनी से नाज़ीवाद का खात्मा हुआ और आम जर्मनों ने एक सुर में ‘नेवर अगेन’ अब दुबारा नहीं के नारे के साथ यह प्रण लिया कि अब उनके यहाँ कोई दूसरा हिटलर जन्म नहीं लेगा और मानवीय मूल्य ही श्रेष्ठ होंगे। इस तरह उन्होंने अपने देश को फिर से लोकतंत्र, न्याय, समानता और बंधुत्व के साथ एक नयी इबारत लिखने के लिए एकजुट किया और इसलिए आज एक आम जर्मन नागरिक भी हिटलर के नाम से घृणा करता है। जर्मनी ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को समावेशी बनाया, अपने पाठ्यक्रमो को मानवीय मूल्यों और वैज्ञानिक चेतना के साथ तैयार किया, इसका नतीजा आज हम सभी के सामने हैं।
आज हमें भी ज़रूरत है, धार्मिक उन्माद को नेवर अगेन कहने की। अगर आज हम ये नहीं कह सके तो हमारी दोस्ती की बुनियाद दरक जाएगी। अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ है, ज़रूरत है इस बचे हुए को सहेजने की। जिससे हमारी साझी शहादत और साझी विरासत की कहानिया हमेशा-हमेशा धार्मिक ग्रन्थ की तरह आने वाली पीढ़ियों को कंठस्थ हों और आने वाली पीढियां सामाजिक समावेश और सहअस्तित्व के मूल्यों के साथ दुनिया को जीने का सही रास्ता दिखाएं।