धर्म के बारे में क्या कहता है भारत का संविधान?

एड. आराधना भार्गव:

भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है। इसका अर्थ है कि यह सभी धर्मो के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता का भाव रखता है। पंथनिरपेक्षता को संविधान में जोड़ने का कारण है। आजादी के समय हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बँटवारे को लेकर खून खराबा हो रहा था। देश आज़ादी का जश्न मना रहा था और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी खून खराबे को रोकने के लिए मुस्लिम बस्तियों में अनशन कर रहे थे। उसके पहले भी अगर हम इतिहास को देखें तो सत्ता का पोषण करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाता रहा है, या यूं कहें कि धर्म सत्ता का पोषण करता चला आ रहा है। पुरातन काल से ही राजा को भगवान का रूप देकर धर्म ने सत्ता को सुरक्षा प्रदान की है और आज भी हम यही देख रहे हैं, इसलिए हमारे संविधान में पंथनिरपेक्ष शब्द को जोड़ा गया है। 

वर्तमान परिवेश में इन शब्दों का अर्थ समझना हमारे लिये बहुत आवश्यक हो गया है। किसी धर्म विशेष के लोगों को पहनावे के आधार पर या लव जिहाद के नाम पर प्रताड़ित करना, फर्जी मुकदमें दर्ज करके जेल में डालना, उनके जीविका उपार्जन के साधन पर पाबंदी लगाने जैसी घटनाऐं हम प्रतिदिन देखते और सुनते हैं।

अभी कुछ दिन पहले इंदौर शहर में एक नौजवान, चूड़ी बेचने निकला था और पीढ़ियों से उसका परिवार इस व्यवसाय को करते चला आ रहा था। अचानक कुछ लोगों ने उस पर हमला किया और उसके साथ मारपीट की। मारपीट करने वालों पर अपराधिक प्रकरण दर्ज ना हो इसलिए उनके राजनीतिक आकाओं ने हमला करने वाले गुण्डों को बचाने के लिए चूड़ी बेचने वाले नौजवान पर एक नाबलिग लड़की से छेड़छाड़ की झूठी रिपोर्ट दर्ज करवा के, पास्को एक्ट की धारा लगाकर जेल के अन्दर ठूंस दिया। इस तरह की घटनाऐं हमें पूरे देश में आए दिन सुनने में आती हैं, अतः इस विषय को समझना हमारे लिये बहुत आवश्यक है। भारत के संविधान में धर्म के संबंध में क्या लिखा है, इसकी समझ ना होने के कारण हम इन घटनाओं को सही दृष्टिकोण से नहीं देख पाते हैं और कहीं न कहीं हमारे मन में यह धारणा बन जाती है कि फलाने धर्म के हैं तो ज़रूर कुछ गलत किया ही होगा।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 27 और 28 में, धर्म के संबंध में उल्लेख किया गया है। आइये आज हम इन अनुच्छेद में की गई व्याख्या को समझने का प्रयास करें। संविधान में भारत को पंथनिरपेक्ष राज्य के रूप में देखना इस विचारधारा पर आधारित है कि राज्य का विषय, केवल व्यक्ति और व्यक्ति के बीच संबंध से है, व्यक्ति और ईश्वर के बीच संबंध से नही है। धर्म व्यक्तिगत विषय है, यानि प्रत्येक व्यक्ति को अन्तर आत्मा से अपना धर्म अपनाने की स्वतंत्रता है। भारत का कोई ‘‘राज्य धर्म’’ नही होगा, इसका मतलब है राज्य ना तो अपने किसी धर्म की स्थापना करेगा और ना ही किसी विशिष्ट धर्म को सहायता करेगा।

लेकिन जब हम सत्ताधारी पार्टियों के वरिष्ठ मंत्रियों को मंदिरों के प्रचार-प्रसार करते हुए, सरकारी अमले के साथ धर्म स्थानों पर जाते हुए देखते हैं, मंदिर निर्माण के लिए विधायक/सांसद निधि से धन राशि उपलब्ध करवाते हुए देखते हैं, धार्मिक आयोजनों को सरकारी मदद मिलते देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि संविधान की भावना के विरुद्ध जाकर राज्य एक विशिष्ट धर्म को बढ़ावा दे रहा है।

कई बार लोग मंत्रियों के धार्मिक स्थलों पर जाने कि बात के पक्ष में यह कहते हैं कि संविधान सबको अपने धर्म का पालन करने कि छूट देता है। तो वे मंत्री होने से पहले किसी समाज या धर्म से जुड़े हैं इसलिए मंदिर/मस्जिद/गिरिजा/गुरुद्वारा, कहीं भी जा ही सकते हैं। देखिये, भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, इसका अर्थ है कि वह सभी धर्मो के प्रति निष्पक्षता का भाव रखता है। जिस तरह से किसी भी व्यक्ति के अनेक कर्तव्य और दयित्व होते है उदाहरण के तौर पर एक पुरुष, बेटा, बाप, पति, भाई, आदि अनेक रिश्तों से बन्धा है और व्यक्तिगत तौर पर अलग-अलग रिश्तों में दायित्व निभाता है, उसी तरह मंत्री और चुने हुए प्रतिनिधि की व्यक्तिगत जिन्दगी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी है। ऐसा व्यक्ति, मंत्री या चुने हुए प्रतिनिधि की हैसियत से धार्मिक स्थान पर नही जायेगा, पर व्यक्तिगत हैसियत से वह अपने धर्म को मानने, उसका प्रचार प्रसार करने आदि के लिए स्वतंत्र है। इसका मतलब यह हुआ कि चुना हुआ प्रतिनिधि धार्मिक स्थल पर जाते समय सरकारी वाहन, सरकारी सुविधा तथा राजकोष के पैसे का उपयोग नही कर सकता। 

उदाहरण के तौर पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री ज्वाहरलाल नेहरू ने देश के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ के मंदिर में राष्ट्रपति के हैसियत से उद्घाटन करने के लिए मना किया, और इस संबंध में पत्राचार भी किया। नेहरू जी के पत्र का उत्तर देश के प्रथम राष्ट्रपति ने लिखित रूप में दिया और कहा कि, मैं राष्ट्रपति बाद में हूँ, पहले इस देश का नागरिक हूँ और किसी भी धर्म को मानने, उसका प्रचार प्रसार करने की मुझे स्वतंत्रता है। मैं सोमनाथ के मंदिर में देश के राष्ट्रपति की हैसियत से नही जा रहा हूँ। मैं हिन्दू हूँ, मेरी हिन्दू धर्म में आस्था है इसलिए मैं सोमनाथ के मंदिर में जा रहा हूँ। उन्होंने शासकीय वाहन या राष्ट्रीय सम्पत्ति या जनता के कोष का उपयोग नही किया। उसी तरह देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को गुरूद्वारे में जनता के पहने हुए जूतों को पॉलिश करते और अपने माथे पर लगाते हुए मैने देखा है, पर वे गुरूद्वारे में देश के प्रधानमंत्री की हैसियत से नही जाते थे। धार्मिक स्थलों पर चुने हुए प्रतिनिधि के जाने का प्रचार-प्रसार, पोस्टर आदि का खर्च भी राजकोष से नहीं किया जा सकता।

भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को अन्तःकरण की स्वतंत्रता और अपने धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। इस  स्वतंत्रता का लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के हित में होना आवश्यक है। असामाजिक कार्यो के लिए इस प्रकार की छूट लागू नही होती, प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार तो है ही, प्रत्येक धर्मिक सम्प्रदाय धर्मिक या परोपकारी प्रयोजन के लिए संस्था की स्थापना कर सकता है, अपने धर्म विषयक कार्य का प्रबंध कर सकता है, इस हेतु चल और अचल सम्पत्ति का अर्जन कर सकता है। ऐसी सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार अनुच्छेद 26 देता है। धर्म तो विश्वास का विषय है, प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या संगठन को यह सुनिश्चित करने की पूरी छूट है कि कौन से कर्मकाण्ड और उत्सव उसके धर्म के सिद्धांत के अनुसार आवश्यक हैं, और राज्य इन विषयों में दखल अन्दाजी नहीं कर सकता।

पंथनिरपेक्षता का यह अर्थ नही है, कि राज्य का धर्म के प्रति शत्रुभाव हो। इसका मतलब स्पष्ट है कि राज्य को किसी धर्म विशेष के प्रति शत्रुता का भाव नही रखना चाहिए, पर अत्यंत दुख के साथ मुझे यह लिखना पड़ रहा है कि मध्यप्रदेश की सरकार धर्म विशेष के साथ शत्रुता का भाव रखती दिखाई दे रही है। कुछ दिन पहले ही दूरदर्शन पर एक मंत्रीजी, धर्म विशेष के व्यक्ति के खिलाफ बोलते दिखाई दिये। यदि धर्म का उपयोग राजनीति प्रयोजन के लिए किया जाता है और राजनीतिक दल अपने राजनीतिक प्रयोजन के लिए उसका आश्रय लेते है तो स्पष्ट है कि इससे राज्य की तटस्थता का उल्लंघन होगा। आज के  समय में अल्पसंख्यकों पर हो रही लिंचिंग जैसी बर्बर घटनाओं को भी राज्य द्वारा सख्ती से न दबाये जाने, बल्कि इसके उलट कई स्थानों में सरकार के वरिष्ठ नेताओं द्वारा आरोपियों को बचाने कि कवायदों से भी सरकार के पंथनिरपेक्ष चरित्र पर सवाल खड़े हो रहे हैं।  

राज्य का यह दायित्व भी है कि वह किसी धर्म विशेष पर सम्प्रदाय की अपनी संस्कृति से भिन्न कोई संस्कृति अभिरोपित नही करेगा। स्पष्ट है कि अनुच्छेद 29 (1) राज्य को यह निर्देश दे रहा है कि राज्य किसी सम्प्रदाय पर कोई संस्कृति थोपने का काम नही कर सकता। देश की कई शिक्षण संस्थाओं ने सूर्य नमस्कार करने से मना किया, क्योंकि भारत के संविधान का अनुच्छेद 29 उन्हें यह अधिकार देता है। उसी प्रकार अनुच्छेद 30, शिक्षण संस्थाओं को सहायता देने में अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्थाओं के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह किसी धार्मिक सम्प्रदाय के प्रबंध में है। लेकिन पाठ्यक्रम में बदलावों के माध्यम से हम देख रहे हैं कि सभी समुदायों के बच्चों पर एक ही सांस्कृतिक छाप डालने का प्रयास किया जा रहा है।

अनुच्छेद 27 में उल्लेख किया गया है कि राज्य किसी नागरिक को कोई विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था को बढ़ाने या पोषण के लिये, करों का संदाय करने के लिये बाध्य नही करेगा। पूरा देश इस बात को महसूस कर रहा है कि राम मंदिर निर्माण के लिये चन्दा देने के लिए बड़े-बड़े विज्ञापन निकाले जा रहे है, चन्दा ना देने पर धमकी दी जा रही है, धमकी देने वालों के खिलाफ रिपोर्ट लिखने में राज्य की पुलिस अपने आप को असाहाय समझ रही है। हमें प्रतिदिन यह भी देखने को मिलता है कि कुछ शिक्षण संस्थाऐं धार्मिक शिक्षा लेने के लिए लोगों को बाध्य कर रही है, अगर कोई वर्ग विशेष इस शिक्षण को लेने के लिए तैयार ना हो तो उन्हें पाकिस्तान जाने की सीख देकर राष्ट्रद्रोही जैसे शब्दों से अपमानित किया जा रहा है। अनुच्छेद 28 इस बात की सुरक्षा देता है कि ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए यदि विद्यार्थी अवयस्क है तो उसके पालक की अनुमति के बिना शिक्षा लेने के लिए बाध्य नही किया जायेगा।

इस विषय पर हमारी समझ बढ़े और हम राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कर सकें, अगर हमें अपने राष्ट्र से प्रेम है तो हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि राष्ट्र की एकता और अखंडता बनी रहे। संविधान में अल्पसंख्यकों को धार्मिक और सांस्कृति रक्षा के उपाय प्रदान किये गए हैं, जिससे उनकी न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता निश्चित हो सके। आइये हम सब मिलकर संविधान के अनुकूल राज्य का व्यवहार सुनिश्चित कराने का प्रयास करें।

वर्तमान परिवेश में संविधान संकट में है, हम सब का यह दायित्व है कि संविधान की रक्षा करने के लिए सामने आएँ, संविधान की रक्षा संविधान को पढ़कर ही हो सकती है। जिस तरह घरों में लोग अपने धर्म कि पुस्तकें रखते हैं, उसी तरह हर घर में संविधान भी होना चाहिए।

फोटो आभार: आईस्टॉक और क्विंट ब्लूमबर्ग

Author

  • आराधना भार्गव / Aradhana Bhargav

    श्रुति से जुड़ी मध्य प्रदेश के संगठन किसान संघर्ष समिति को बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली आराधना भार्गव, संगठन की अंशकालिक कार्यकर्ता हैं। पेशे से वकील हैं, अध्ययन-प्रशिक्षण जैसी वैचारिक गतिविधियों में विशेष सक्रियता के साथ-साथ स्थानीय और राष्ट्रिए स्तर के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सवालों पर विशेष रुचि रखती हैं और समय-समय पर लेखन का काम भी करती हैं।

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