एलीन:
एतवारी लगभग 30 साल की हो गई है। अपने गांव के देस से दूर दिल्ली शहर में एक सामाजिक संस्था के साथ काम करती है। वह अब शहरी जीवन शैली से परिचित हो गई है। खुद के हाव-भाव को बदलते देख कभी-कभी वह घबरा सी जाती है, पर उसे अच्छा भी लगता है, जैसे यही तो जीने का तरीका सिखाया गया है। अपने अंदर कई बार झांकते हुए वह सोचती है कि मैं इस पड़ाव तक कैसे आ गई? गुम होने का अहसास सा होता है उसके मन में, अपने साथियों को वह इस घबराहट को अलग-अलग तरीके से बताती है।
आज एतवारी अपने साथी के साथ दैनिक क्रियाकलापों को खत्म करने के बाद बिस्तर में पड़े-पड़े इधर-उधर की बातें कर रही थी। उसका साथी कहने लगा कि रात को दो बजे से ही कुत्ते भौंकने लगते हैं, बड़ा डिस्टर्ब होता है। एतवारी उसके बाएँ हाथ पर सर रखकर आंख बंद किए कुछ यादों में खो गई और अपने बचपन को याद करने लगी। फिर अपनी सोच को आवाज़ देते हुए धीमे स्वर में वह कहती है- एक बार लगभग आधी रात को घर के बीच वाले कमरे में मैं अपनी माँ और तीन भाई-बहनों के साथ सो रही थी, उस पलंग में जहां 5 लोग सोते थे। आधी रात को अचानक दूर से आ रही सियार की हुवाँ-हुवाँ की आवाज़ से मैं जग गई। जब भी यह आवाज़ सुनती थी तो बगल में सोए भाई या बहन को डर से कसकर पोटराते (पकड़ते) हुए आँख बंद करने की कोशिश करती थी।
एतवारी आगे बताती है- डर उस रात को भी लगा था, सियार की आवाज़ और पास से सुनाई देने लगी। फिर नज़दीक ही पड़ोस के मंगरा दादा की झीलो कुकुर भी भौंकने लगी और कुछ देर में मेरे घर का भोला कुकुर भी। फिर क्या था सात परिवार वाले गांव के लगभग 5 कुत्ते भौंकने लगे, नावाडीह और हटोटोली गांव के कुत्तों की भी आवाज़ आने लगी। झीलो कुकुर वाले मंगरा दादा के घर में काम करने वाले अमीन दादा बाहर निकलकर अपना खखार साफ करके थू-थू करने लगा। ऐसे लगा जैसे घर के सोते और जागते लोगों को अपनी निडरता का परिचय दे रहा हो या सबको साहस बंधा रहा हो कि वह बाहर बूढ़ा अब्बा (दादा जी) के पथलगड़ी (मृत व्यक्ति की याद में गाड़ा गया पत्थर) के पास वाले जितिया (पीपल के) पेड़ के पास ही खड़ा है। उसके पीछे आई झीलो कुकुर को वह ज़ोर से कहता है- ‘हाड़ी रे कुकुर।’
बाहर के ढाबा (बारामदे) से बड़ी माँ कहती है- ‘ना डाराबा छौवा मन, कोनो नि होइ।’ जैसे उसे पहले से ही पता हो कि सब बच्चे डरे हुए हैं। एतवारी की आयो (माँ) करवट बदलते हुए और बिना कुछ कहे, लालटेन को बिना बुझाए ना डरने का ढोंग रचते हुए सो जाती है। उसकी आयो अक्सर लालटेन नहीं बुझाती थी, शायद उसे बच्चों को अकेले संभालने और घर चलाने की जिम्मेवारी निभाना भली भांति आता था। एतवारी भी आंख बंद करने के प्रयास में कब सो जाती है उसे पता नहीं चलता।
दूसरे दिन लगभग 5 बजे सुबह गांव की बड़की माएँ, दीदियां और भौजियाँ अपने-अपने निर्धारित कांड़ी (धान कूटने के लिए समतल चट्टान में बनाया गया ओखली जैसा गड्ढा) पर रोज़ की तरह कूटा टांगरा (धान कूटने वाली जगह) में धान कूटने जमा हुई थी। एतवारी भी अपने आयो के साथ माँ द्वारा दी गई समाठ (मूसल) के साथ आज कूटा टांगरा गई थी। टांगरा और कांड़ी साफ करके उसकी आयो धान उझलने (डालना) लगी तो उस दो टुकड़ों वाली समतल चट्टान के दूसरे छोर के कांड़ी में धान कूट रही बुटन की माँ वाली बड़ आयो धान कूटते हुए समाठ के बीट (ताल) में बोलने लगी- ‘राति खन तो …. (समाठ से कांडी में धान कूटने की बीट) ….अनैत खीस लगलक ….काके सुतबे ….सियार और कुकुर कर ….कंदेक में तो।’
उसी छोर के कोने से दुल्ली की माँ वाली बड़ आयो (सूप से) चावल पछरते हुए कहती है- ‘हां जून रे…. (पछर-पछर) ….का के निंदाबे।’ सब अपने-अपने धान से चावल बनाने की प्रक्रिया की बीट के अनुसार रात के किस्से के बारे में कई सारी आवाज़ों में बात करने लगे। गुस्से वाली आवाज़, हंसने की आवाज़, धान कूटने की आवाज़ और चावल पछरने और बढ़नी (झाड़ू) से बढ़ाने (साफ़ करने) की आवाज़। नई सुबह में जीवित जीवन की आवाज़।
एतवारी अपनी सोच और एहसासों में डूबी कुछ पलों के लिए खामोश रहती है … फिर उसके साथी की ‘और क्या होता था?’ की आवाज़, उसे गांव की आवाज़ से अलग कर देती है।
संस्मरण की शैली में लिखते हुए एलीन ने इस लेख में अपने लिए एतवारी नाम का प्रयोग किया है। उनके क्षेत्र और समुदाय में एतवार (रवीवार) को जन्म लेने वालों को इस नाम से भी पुकारा जाता है।
फीचर्ड फोटो आभार: ह्यूमन पाउँडेड नेचुरल राइस
