यह लेख नशाबंदी पर महात्मा गांधी के विचारों पर वरिष्ठ साथी अरविंद अंजुम की टिप्पणी और इस विषय पर युवा साथियों के बीच हुई चर्चा का संकलन है।
युवानिया डेस्क:
हिंदुस्तान अंग्रेजों ने लिया, सो बात नहीं है, बल्कि हमने उन्हें दिया है। हिंदुस्तान में वे अपने बल से नहीं टिके हैं, बल्कि हमने उन्हें टिका रखा है। वो कैसे? सो देखें। आपको मैं याद दिलाता हूं कि हमारे देश में वह दरअसल व्यापार के लिए आए थे। आप अपनी कंपनी बहादुर को याद कीजिए। उसे बहादुर किसने बनाया? यह बेचारे तो राज करने का इरादा भी नहीं रखते थे। कंपनी के लोगों को मदद किसने की? उनकी चांदी को देखकर कौन मोह में पड़ गया था? उनका माल कौन बेचता था? इतिहास सबूत देता है, यह सब हम ही करते थे। जल्दी पैसा पाने के मतलब से हम उनका स्वागत करते थे, हम उनको मदद करते थे।
मुझे भांग पीने की आदत हो और भांग बेचने वाला मुझे भांग बेचे, तो कसूर बेचने वाला का निकालना चाहिए या अपना खुद का? बेचने वाले का कसूर निकालने वाले से मेरा व्यसन थोड़े ही मिटने वाला है? एक बेचने वाले को भगा देंगे तो क्या दूसरे मुझे भांग नहीं बेचेंगे? हिंदुस्तान के सच्चे सेवक को अच्छी तरह खोज करके इसकी जड़ तक पहुंचना होगा। ज्यादा खाने से अगर मुझे अजीर्ण हुआ है तो मैं पानी का दोष निकालकर अजीर्ण दूर नहीं कर सकूंगा। सच्चा डॉक्टर तो वह है जो रोग की जड़ खोजें। आज आप अगर हिंदुस्तान के रोग के डॉक्टर होना चाहते हैं, तो आपको रोग की जड़ खोजनी ही पड़ेगी।
– मोहनदास करमचंद गांधी (हिंद स्वराज पुस्तक से, जो 1909 में प्रकाशित हुई थी।)
टिप्पणी:-
उपरोक्त उद्धरण इतिहास को समझने और उससे सीखने की एक विलक्षण दृष्टि है। आमतौर पर हम अपनी दुर्दशा का दोष दूसरों पर मढ़ते हैं। ऐसा करने से हम खुद को ज़िम्मेवार मानने और उससे होने वाली ग्लानि से बच जाते हैं। यह एक आसान तरीका है।
लेकिन इससे कुछ फायदा नहीं होता। कोई अगर किसी समूह पर दमन करता है तो उसकी हम निंदा करते हैं। इससे उनका अपयश ज़रूर होता है और कुछ हद तक अपयश से घबराकर वह अपनी करतूतों को थोड़ा बहुत नियंत्रित भी कर लेते हैं। पर वास्तव में हम किसी दुर्दशा का शिकार अपनी कमज़ोरियों की वजह से होते हैं। दोषारोपण से हम अपनी कमज़ोरियों को नजरअंदाज करते हैं तथा इस तरह हम अपनी कमज़ोरियों का पालन -पोषण करते रहते हैं।
किसी भी समाज, समुदाय, समूह या संस्था को दुर्दशा से मुक्त होना है तो उसे अपनी कमज़ोरियो की पहचान करनी होगी और उसे दूर करने के उपाय और उद्यम भी करने होंगे। यह एक कठिन रास्ता है, लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं है। गांधीजी इसलिए अपनी कमज़ोरियों पर ध्यान देते थे और उन्हें दूर करने की कोशिश करते थे। उनके सारे रचनात्मक कार्यक्रम इसी उद्देश्य से प्रेरित हुआ करते थे। – अरविंद अंजुम
मुझे शराब पीने की आदत है और शराब बेचने वाला लाइसेंस लेकर मुझे शराब बेचे तो कसूर बेचने वाले का निकालना चाहिए या अपना खुद का? इस प्रश्न पर कुछ युवा साथियों ने अपने विचार रखे-
Absolutely self (निश्चित रूप से हम खुद), अगर हम लोग खुद को नहीं सुधार सकते तो दूसरों को अपना suggestions (सुझाव या सलाह) कैसे दे सकते है। वैसे भी आधुनिक काल में सरकारें बस अपना लाभ ही देखती है, इस देश में दवा से अधिक दारू महंगी है, खाद्य तेल से महंगा पेट्रोल है, रोज़मर्रा की वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं, फिर भी लोग व्यसन क्यों करना चाहते हैं? सरकार की आमदनी के सबसे बड़े ज़रिए में से एक है शराब। खैर, सरकार शायद ही इसे बंद करे, ये अपनी ही जागरूकता से कम एवं बंद हो सकता है। समाज में सबसे अधिक नुकसान यही पहुँचाती है, समाज की आर्थिक कमर तोड़ देती है तथा परिवार एवं स्वयं पीने वाले का शारीरिक नुकसान होता है। सवाल सिर्फ ठेकों तक सीमित नहीं है, आज आधुनिक काल में नए नए आविष्कार हुए हैं जिससे घर पर ही एक व्यक्ति ही शराब बना लेता है, और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हमारे समाज में शराब और आसानी से बन जाती है। पीने वाले खुद को लत के शिकार बोलते हैं, और बेचने वाले निम्न वर्ग का बहाना करते हैं। सवाल यह है कि क्या शराब को छोड़कर और दूसरा रोज़गार नहीं कर सकते हैं? यह मसला बहुत पेचीदा है शराब सिर्फ फैक्ट्रियों में ही नहीं हमारे घर पर भी बन जाती है, ऐसे में एक जागरण और स्वयं द्वारा किया गया त्याग ही हल हो सकता है। – राधेश किराड़े
असल में कसूर उस व्यक्ति का है जो दारू पीने की आदत रखता। इस देश में सब कुछ बिकता है, जिसको दारू पीने की आदत हो, उसे खुद पर कंट्रोल करना चाहिए, क्योंकि उससे खुद का नुकसान है, आर्थिक भी और शारीरिक भी। अगर उसके पास आमदनी के पर्याप्त साधन हैं तो वो अपनी आदत को आगे ले जा सकता है, लेकिन वह अगर मध्यम वर्ग से हो या मज़दूर-किसान हो तो उसे बहुत सोच समझकर चलना होगा, क्योंकि उसे अपनी बाकी की रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर भी ध्यान देना है। – अनिल ब्राह्मणे
कसूर दोनों का है अगर दारू बेचने का लाइसेन्स नहीं होता तो दारू बिकती नहीं और नशे की लत लगती ही नहीं। जो चीज है ही नहीं उसकी आस किसी को नहीं होती, ठीक उसी प्रकार मोबाइल आता नहीं तो लत लगती ही नहीं। – शेरसिंह सिंगोरिया
शराब बेचने वाले का इसमे कोई नुक़सान नहीं है, उसने तो अपना धंधा खोल रखा है और पैसे कमा रहा है। बस पीने वाले का ही नुकसान है। पीने वाले को सोचना चाहिए कि मेरी आर्थिक स्थिती सही नहीं है, इसके बावजूद भी शराब पीने की आदत है। तो फिर क्यों शराब पीए? वो खुद भी बर्बाद होगा और साथ में दूसरे को भी बर्बाद करेगा। जो भी शराब पीने वाला है उसे खुद सुधरना चाहिए। –पुष्पेंद्र मुणिया
दारू बेचने वाला पैसें कमाने के लिए दारू बेचता है। कसूर दारू पीने वाले का है क्योंकि दारू पीने वाला दारू बेचने वाले के पास दारू पीने के लिए जाता है। दारू बेचने वाला, दारू पीने वाले के पास नहीं जाता है। इसमें दारू पीने वाला का ही नुकसान है। दारू पीने वाला अपने आप पर कंट्रोल करना चाहिए। दारू पीने के लिए नहीं जाना चाहिए और दारू बंद कर देना चाहिए। दारू पीने से अपना और अपने परिवार का नुकसान होता है। दारू पीने से अपने शरीर में नुकसान होता है और अपने शरीर में नुकसान होने से अपनी जिंदगी खराब हो जाती है। और दारू पीने वाले की जिंदगी कम हो जाती है। इस लिए अपना और अपने परिवार का भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। परिवार का मुखिया के ऊपर पुरी परिवार की जिम्मेदारी होती है। इस लिए दारू नहीं पीना चाहिए। – महेश वास्कले
मेरे विचार से निश्चित ही दारू के ठेकों के कारण शराब पीने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है। आदिवासी समाज की संस्कृति में शुरू से ही दारू का उपयोग दवा के रूप में होता आया है। पहले लोग महुए की शुद्ध दारू को एक नियमित मात्रा में ग्रहण करतें थे और बाद में व्यवस्थित भोजन करके आराम करते थे। जिससे उनके शरीर में दारू भी दवा की तरह कारगर होती थी। किंतु वर्तमान आदिवासी समाज के कई सारे लोग दारू को शौकिया रूप में लेने लगे हैं वो भी बिना लिमिट के । एक तो शराब की शुध्दता में कमी आई है उसके बावजूद पीने वाले बिना लिमिट के पीए जा रहें हैं जिससे उन्हें नशा चढ़ जाता है, उसके बाद वें नशीली हालात में चूहे से शेर बनकर परिवार वालों के साथ अभद्र व्यवहार करने लगते हैं, इस प्रकार के हालात हमें गांवों में देखने को मिल ही जाते हैं। कई सारे लोग इतना नशा करते हैं कि भोजन ही छोड़ देते हैं फिर कुछ समय बाद असमय मौत के मुंह में समा जाते हैं। मैं कह सकता हूं कि शराब पीने और शराब बेचने वाले दोनों का कसूर है। इसलिए वर्तमान में कम से आदिवासी समाज के युवाओं को केवल शराब ही नहीं बल्कि किसी भी प्रकार के नशे से दूर रहना चाहिए। – सुरेश डुडवे
लाइसेंस लेकर दारू बेचने वाला का कसूर है, क्योंकि जब दारू नहीं बिकेगी तो लोग पिएंगे कहां से? वैसे लोग खुद भी दारू बनाकर पी सकते हैं, पर मसला यह नहीं है। मसला यह है कि वह क्यों बेच रहा है? मसला यह नहीं है कि कोई अपनी ज़रूरत के लिए बनाकर पीये, समस्या लाइसेंस लेकर बेचने वाले बड़े ठेकेदारों की है। यह सब अपने इलाके के बड़े पूंजीपति हैं जो अपने क्षेत्र की राजनीतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये लोग सरकार को भी अपने जेब में रखते हैं।
सरकार लोककल्याण के लिए बनती है। सरकार को पता है कि दारू की बड़ी दुकान से पीने वाले के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है और मध्यम वर्गीय या कमज़ोर तबके के परिवार की आर्थिक स्थिति का भी भला नहीं होगा। सरकारों ने तो अपने आप को बचाने के लिए बोतल पर भी लिखवा दिया कि मदिरा पीने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है, यही बात तम्बाकू उत्पादों पर भी लागू होती है। जनसंख्या के लिहाज़ से देखें तो निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या ज़्यादा है और उन्हीं को पूंजीपतियों ने अपना निशाना बनाकर उन्हें दारू की लत सोच समझकर लगाई है। ये जानते हैं कि शराब के नशे में दुबे हुए लोग किसी से सवाल नहीं कर सकते हैं। तब उन्हें देशभक्ती नज़र नहीं आती। सभी का यही कहना है कि दारू पीने से गरीब होते हैं। जब आप खुद इसका सर्वे करेंगे तो पता चल जाएगा कि दारू के कारण गरीबी नहीं है। गरीबी का और कोई कारण है।
सवाल यह नहीं है कि इसमें किसका कसूर है, शराब अपने आप में एक बड़ा राजनीतिक और आर्थिक मुद्दा है। इसी सवाल पर सरकार अपना काम कर रही हैं और कहती हैं कि तुम दारू क्यों पीते हो? हम बेचेंगे पर जनता को दारू नहीं पीनी चाहिए। शराब से मिलने वाले टैक्स के लिए इतने सारे आम लोगों को बली नहीं चढ़ाई जा सकती है। यह कैसा लोक कल्याण है? –सुखलाल तरोले
अच्छा वार्तालाप चल गया शराब के मुद्दे पर। सुखलाल तरोले ने सवाल उठाया है कि सरकार को लोक कल्याण का काम करना चाहिए। तो सरकार को आय के लिए, शराब बेचने के लाइसेंस नहीं देने चाहिए। इस पर क्या कहना है बाकी साथियों का? राधेश ने भी सही कहा है कि केवल सरकार नहीं बहुत से अपने लोग भी रोज़गार के लिए शराब बनाकर बेच रहे हैं? -अमित भाई
मेरे नज़रिए से सरकारें लोक कल्याण के कार्य तो करती ही हैं, बहुत से राज्यों में किए गए कार्य प्रशंसनीय भी हैं, जो आने वाली पीढ़ियों में याद किए जाएंगे। सवाल शराब का है तो बहुत से राज्यों ने शराब पर प्रतिबंध लगाया किंतु असल में पूरी तरह से तो प्रतिबंध हुआ ही नहीं, बिहार और गुजरात इसके उदाहरण हैं। वहां प्रतिबंध के बावजूद अधिक पैमाने पर शराब का सेवन हो रहा है। एक उदाहरण यह भी कि कोरोना महामारी के दौरान लगे लॉकडाउन में शराब और तंबाखू जैसी चीजें बेचने वाली दुकाने बंद थी, फिर भी इनका क्रय-विक्रय आसानी से हो रहा था। असल में सरकारें कौन सी धारा लगाए कि लोग ताउम्र शराब नहीं बेचे या फिर पिए नहीं? फिर राजनीतिकरण तो इसके बाद होता है, नेताओं द्वारा ये मेरे पक्ष/विपक्ष का आदमी और आसानी से किसी को बेल और किसी को जेल हो जाती है। – राधेश किराड़े
पीने वालों को सोचना चाहिए। कसूर पीने वालों का है, क्योंकि शराब सिर्फ ठेके पर ही नहीं बल्कि अपने लोग भी बनाते हैं। दारू से लोगों का स्वास्थ्य खराब होता है। सरकार का दारू के ठेकों से सबसे ज्यादा मुनाफा होता है। ठेके वलें दारू पीने वालों को कोई निमंत्रण नहीं भेजतें बल्कि लोग खुद चलकर वहां जाते हैं। जनकल्याण के काम करना और किसी चीज के ठेके देना, दोनों अलग-अलग बात हैं। सरकार के बजट में दारू का हिसाब नहीं रहता, उसमें सारी जनकल्याण की बातें होती हैं। –अनिल ब्राह्मणे
परिवर्तन कैसे करें? किन लोगों के समूह और समुदाय में करें? सबसे महत्वपूर्ण यह है, क्योंकि जगत में जितनी अच्छी चीजें है उतनी ही खराब चीजे भी हैं। उनमें सुधार और जनजागरण के लिए समुदाय के सबसे निचले स्तर से गहन चिंतन और सोचने की कठोर आवश्यकता है। बात करे तो समाज में सिर्फ शराब ही नहीं बल्कि और भी बुराइयाँ हैं, जिससे हर परिवार और समाज जूझता है। – राधेश किराड़े
1- मेरी राय से अपने घर में अपने पुरती दारू बनाना और पीना-पिलाना ये दुनिया भर में होता आ रहा है। अंग्रेजों ने पहली बार आदिवासियों के शराब बनाने पर प्रतिबंध लगाया और शराब के ठेके देने शुरू किये। तब कलाल वर्ग का उदय हुआ और उन्होंने दारू बेचकर बहुत कमाया। दारू के पीछे कईयों ने अपनी जमीनें भी खोई। तो इस तरह खुद बनाकर पीने और खरीद कर पीने में बहुत फर्क होता है। दुकान में दारू चौबीसों घण्टे उपलब्ध होती है। आजकल तो ये आलम है कि मेहमान के आने पर छोटे से बच्चे को दुकान में भेजकर दारू मंगाते हैं।
2- पीना कि नहीं पीना ये लोगों को तय करने दो। बाकी सरकार द्वारा ठेके दिए जाना अनैतिक है।
3- दारू ठेकों के खिलाफ औरतों के जगह-जगह सफल आंदोलन हुए हैं। वे होते ही रहना चाहिये। इन आंदोलनों को हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। अपने इलाके के शहीद मोतीराम भाई या छत्तीसगढ के शहीद शंकर गुहा नियोगी इसके उदाहरण है। – जयश्री दीदी