बाबूलाल बेसरा:
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है,
वैसे ही जैसे गर्म जल में उबाल आता है,
कि आखिर वह लक्ष्य है क्या?
सभी का कहना है – जीवन में एक लक्ष्य होना चाहिए,
उसे पाने का ज़ज़्बा इंसान में होना चाहिए,
पर कोई यह क्यों नहीं बताता कि आखिर यह लक्ष्य है क्या ?
सफलता की उड़ान भरना या संस्कारी आदर्श बनना,
धन एकत्र करना या विद्या हासिल करना,
दलितों का उद्धार करना, या भौतिक सुख-सुविधाओं का भोग करना?
जब यह सवाल पिशाच की तरह मेरा पीछा करता है,
तब मैं और मेरी तनहाई अक्सर ये बातें किया करती है,
सब पाकर भी व्यक्ति कुछ नहीं कर पाता,
अपनी पराजय को अपने माथे का तिलक समझता।
किसी के पास विद्या है, तो उसके पास दौलत नहीं।
किसी के पास दौलत है, तो उसे सुख चैन नहीं।
जो दौलत ज्ञान और स्वास्थ्य से मालामाल है,
वह संस्कार और व्यवहारिक ज्ञान का फकीर है।
क्या यही लक्ष्य है? कहाँ जाऊँ? किसे पूछूँ?
कि यह लक्ष्य रूपी परिंदा आखिर है क्या?
