जिनित सामाद:
“शिक्षा का अंतिम उत्पाद एक मुक्त रचनात्मक मानव होना चाहिए, जो ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध लड़ाई लड़ सके।” यह विचार सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के हैं, जो भयावह कोरोना महामारी के मौजूदा दौर में बहुत ही सटीक बैठते हैं। कोरोना महामारी के दौरान मौजूदा सरकारों द्वारा लिए गए शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के कई निर्णय ग्रामीण बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित कर देंगे। यह बहुत ही चिंता का विषय है जिस ओर संगठनों का ध्यान खींचना चाहता हूँ।
महामारी के इस दौर में एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा “शिक्षा” का भी है लेकिन शिक्षा पर चर्चा करने से पहले देश की शिक्षा नीतियां कैसी हैं, यह समझना ज़रूरी है। असल में शिक्षा हर व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब हम बच्चों को सही शिक्षा देंगे, तभी हम योग्य और कुशल मानव संसाधन का विकास भी कर सकेंगे। शिक्षा, देश के नागरिकों के व्यक्तित्व, आचरण और मूल्यों को निखारती है और उन्हें एक विश्व नागरिक बनने में मदद करती है। इसलिए हमारे देश में भी कई बार एक बेहतर शिक्षा नीति बनाने का प्रयास किया गया है।
भारत में शिक्षा का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21A के अंतर्गत मूल अधिकार के रूप में उल्लेखित है। 2 दिसंबर 2002 के संविधान में 86वां संशोधन किया गया था और इसके अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया। इस मूल अधिकार के क्रियान्वयन हेतु, साल 2009 में निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम (Right of Children to Free and Compulsory Education- RTE Act) बनाया गया। इसका उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन के नए अवसर सृजित करना है। इसके तहत 6 से 14 साल की उम्र के हर बच्चे के लिये शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में अंगीकृत किया गया है।
शिक्षा सुधार के लिए नई एकीकृत योजनाओं को भी केंद्र सरकार ने 1 अप्रैल 2018 से 31 मार्च 2020 के लिए नई एकीकृत शिक्षा के तहत मंजूरी दे दी थी। प्रस्तावित योजना में सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और शिक्षक-शिक्षण अभियान को समाहित किया गया है। प्रस्तावित योजना के लिये 75 हजार करोड़ रुपये मंजूर किये गये हैं। इस योजना का लक्ष्य, पूरे देश में प्री-नर्सरी से लेकर 12वीं तक की शिक्षा, सभी को उपलब्ध कराने के लिये राज्यों की मदद करना है। इस योजना के तहत शिक्षा के क्षेत्र में सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप नर्सरी से लेकर माध्यमिक स्तर तक, सबके लिए समान रूप से समग्र और गुणवत्ता युक्त शिक्षा सुनिश्चित करना है। एकीकृत स्कूली शिक्षा योजना में शिक्षकों और प्रौद्योगिकी (या तकनीकी) पर बल देते हुए स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
ओड़िशा राज्य में भी गुणवत्तायुक्त शिक्षा का प्रबंध करने के लिए स्कूल और मास एजुकेशन डिपार्टमेंट की ओर से 11 मार्च 2020 को एक निर्देश जारी कर 40 से कम बच्चों के नामांकन वाले स्कूलों को बंद करने और उन स्कूलों के बच्चों को नज़दीकी स्कूलों में विलय किए जाने की आदेश दिया गया। इस निर्देश के अनुसार राज्य में लगभग 14000 स्कूलों को बंद करने या नज़दीकी स्कूलों के साथ विलय करने की स्थिति बन गई। इसके पश्चात विपक्षी दलों ने इस मुद्दे पर हंगामा करते हुए राज्य सरकार का घेराव किया और इसके दबाव में राज्य सरकार की ओर से शिक्षा मंत्री समीर रंजन दास ने पुनः तारीख 22 नवम्बर 2020 को अनुसूचित क्षेत्र के अंदर 15 बच्चों से कम और अन्य क्षेत्र में 20 बच्चों से कम नामांकन वाले स्कूलों को ही बंद या नज़दीक के स्कूलों में विलय किए जाने के विषय की जानकारी दी और इस पर एक पत्र भी जारी किया।
इसके आधार पर अब राज्य में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से लगभग 7772 स्कूलों को बंद या उनका विलय किया जाएगा। फिर भी इस तरह के आदेश के कारण ग्रामीण और गरीब परिवारों के ऊपर किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है, इसे समझने के लिए हमें झारसुगुड़ा ज़िले के लइकेरा प्रखंड अंतर्गत जाममाल ग्राम पंचायत के एक गाँव नाएक कोरला की स्थिति को समझने का प्रयास करते हैं।
नाएक कोरला गाँव में कुल 122 परिवार हैं इसमें से 90% परिवार आदिवासी वर्ग और बाकी 10% प्रतिशत अन्य जाति वर्गों से हैं। इस गाँव में 95% परिवार गरीबी रेखा से नीचे के हैं और यह सभी परिवार दिहाड़ी मज़दूरी करके अपना गुज़र-बसर करते हैं। इस गाँव में सन 1968 में बना एक प्राथमिक सरकारी स्कूल है। इस स्कूल में 2019-20 शिक्षा वर्ष में कुल 13 बच्चे थे और इसी वजह से इसे बंद करने के निर्देश देने के साथ, इस स्कूल के बच्चों का पड़ोस के बाबुछीपीडिहि ग्राम पंचायत अंतर्गत के बारोगड़ गाँव में स्थित प्राथमिक सरकारी स्कूल में नामांकन करने के लिये निर्देश दिए गए हैं। जिसे नाएक कोरला के गाँववासी बारोगड़ गाँव के स्कूल में अपने बच्चों का नामांकन करने से साफ मना कर चुके हैं और ज्ञात हो कि अब नाएक कोरला गाँव से 2020-21 शिक्षा वर्ष में और 10 बच्चे नामांकन करने के लिए प्रतीक्षा में हैं जिसे जोड़ने पर इस स्कूल में कुल बच्चों की संख्या 23 हो जाएगी पर अब भी इस गाँव के स्कूल पुनः खोलने के लिए सरकारी अधिकारियों के ओर से कोई भी जानकारी नहीं दी जा रही है।

दरअसल इस गाँव के लोगों के विरोध करने के पीछे की वजह यह भी है कि नाएक कोरला से बारोगड़ गाँव के बीच लगभग 3.5 कि.मी. की दूरी है। रास्ते के दोनों तरफ घना जंगल होने के साथ बहुत से अन्य व्यवधान भी हैं, पूरे रास्ते में कुछ एक घर ही देखने को मिलते हैं, जिससे यह रास्ता अक्सर जनशून्य ही रहता है। रास्ते में वन्य जीव-जंतुओं जैसे बंदर, बारहा या जंगली सुअर और कभी कभी हाथियों से भी खतरा रहता है। साथ ही गाँव के अधिकांश परिवार दिहाड़ी मज़दूर होने के कारण उन्हें अपने बच्चों को दूसरे गाँव के स्कूल भेजने के लिए उन्हें अपने काम और स्कूल के समय को व्यवस्थित करने के बीच भी बहुत सी समस्याओं का सामना करना होगा।
इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव लड़कियों की शिक्षा पर पड़ेगा और अनेक गरीब परिवार की लड़कियों की शिक्षा बीच में ही छूट जाने की संभावना बढ़ जाएगी। साथ ही अनेक योग्य और वंचित बच्चों के शिक्षा के अधिकार का हनन भी होगा। इसलिए इस विषय पर नाएक कोरला गाँव के स्कूल संचालन समिति के सदस्य और लोकमुक्ति संगठन के सदस्यों की ओर से झारसुगुड़ा ज़िलाधीश, लइकेरा प्रखंड विकास अधिकारी और स्थानीय ग्रामपंचायत को एक-एक अभियोग पत्र दिया गया है और जल्द से जल्द इस आदेश पर रोक लगाने और इस समस्या का उचित समाधान किये जाने के लिए मांग की गई है। मांग न माने जाने की स्थिति में नाएक कोरला गाँव वासी और लोक मुक्ति संगठन की ओर से व्यापक आंदोलन किये जाने का निर्णय लिया गया है।
वास्तव में यह समस्या न केवल इस एक गाँव की है बल्कि यह समस्या पूरे राज्य के अनेक गाँवों की है। सरकार द्वारा इस तरह का निर्णय लिया जाना और इसकी रिपोर्ट तैयार करने के लिए केवल ज़िला और प्रखंड के शिक्षा अधिकारीयों को दायित्व दिया जाना, एकतरफा और गलत है। सरकार की ओर से शिक्षा अधिकारियों समेत, ग्रामसभा, गाँव की स्कूल संचालन समिति, स्थानीय जनप्रतिनिधि और प्रभावित होने वाले पक्ष के विचारों को भी सुना जाना चाहिए था। स्कूलों को बंद करने या उनका विलय करने से पहले उस गाँव के लोगों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति और भौगोलिक स्थिति को भी ध्यान में रखते हुए यह सारे निर्णय लेने चाहिए थे। लेकिन अब तक ऐसा नहीं किया गया है, जिस वजह से राज्य के अधिकांश गाँवों में इसे लेकर तीव्र असंतोष है।
आज ग्रामीण शिक्षा या सरकार द्वारा प्रदत्त सार्वजनिक शिक्षा बहुत ही दयनीय स्थिति में है और आने वाले समय में यह और भी बुरी स्थिति में आ सकती है। अगर आज, शिक्षा पर उचित निर्णय न लिया गया तो ग्रामीण और गरीब परिवारों के बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के कारण यह सभी बच्चे निकट भविष्य में गुलाम, मज़दूर ही बनेंगे और व्यापक शोषण के शिकार होने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
इसे समझने के लिये विश्व बैंक की एक रिपोर्ट देखते हैं। “वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2018 : लर्निंग टू रियलाइज़ एजुकेशन प्रॉमिस” नाम की इस रिपोर्ट में भारत में शिक्षा पर किए गए एक अनुसंधान को शामिल किया गया है। इसमे यह उल्लेख किया गया है कि निजी स्कूल, सरकारी सार्वजनिक स्कूलों की तुलना में बच्चों को सिखाने की दृष्टि से बेहतर हैं। इसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि ग्रामीण भारत में तीसरी कक्षा के तीन चौथाई और पाँचवी कक्षा के आधे से ज्यादा छात्र/छात्राएं दो अंकों को जोड़-घटाने जैसे मामूली सवाल भी हल करने में सक्षम नहीं है।
ऐसा लगता है कि इस रिपोर्ट में भारत की शिक्षा व्यवस्था की कमियों को उल्लेखित करने का उद्देश्य सरकारी स्कूलों को बंद करके निजी स्कूल व्यवस्था की सिफ़ारिश करना है। आज शिक्षा के हितधारकों को संवेदनशील बनाने के लिए जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए, जिसमें मीडिया, सोशल मीडिया, प्रसिद्ध व्यक्तियों, स्थानीय नेताओं, सिविल सोसायटी आदि को शामिल किया जाना चाहिए। स्कूलों की समुचित निगरानी होनी चाहिए, समय-समय पर इस शिक्षा अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन की रिपोर्ट ली जानी चाहिए। शिक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किया जाने के लिए सरकार द्वारा पर्याप्त प्रोत्साहन दिए जाने की भी ज़रूरत है अन्यथा हमारे देश में शिक्षा का अधिकार सिर्फ कागज़ों तक ही सीमित रह जाएगा और भारत को विश्वगुरु बनाने की सोच बस एक भद्दा मज़ाक बनके रह जाएगी।

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