आलोक सोनकर:
मैं रात के अंधेरे में जब भी छत की तरफ देखता हूं,
तो कुछ अपूर्ण सपने मेरे सामने होते हैं, मेरे कमरे के बाहर।
चकोर दिखाई पड़ता है ऐसा, लगता है कि शायद आज चांद-चाँदनी का मिलन है,
दोनों एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर बैठे हों, मुस्करा रहे हों।
मेरे बगीचे में लगा गुलाब का फूल जो पूरी तरीके से खिला भी नहीं है,
वो हिल-हिल कर उन्हें बधाई दे रहा है।
हवा भी अर्धरात्रि में मंद-मंद चलते हुए पेड़-पौधों को,
चुंबन कर आनंदित हो रही है, ऐसा लगता है मानो।
आज गगन में कुछ अधिक सितारे भी उग आए हैं,
हवा के झोंकों से पेड़ों के पत्ते आपस में ताल से ताल मिलाकर उत्साहित हो रहे हैं।
उनके लिए कोई उत्सव से कम नहीं लग रहा है,
मुझे भी दूर-दूर तक सन्नाटा ही पसरा लग रहा था जैसे,
आज पृथ्वी पर मनुष्य नहीं पर्यावरण का जश्न है।
मैं भी कमरे से बाहर की तरफ ज्यों निकला,
लगा पीछे से कोई आवाज आई, नींद नहीं आ रही है क्या बेटा!
पलटकर देखा तो मेरी माँ खाट पर लेटी, हाथ मे पंखी लिए,
मुझसे कुछ कह रही है।
