डा. गणेश माँझी:
“सरना” शब्द आज पूरी दुनिया जानती है। इस शब्द के गहराई और शुरुआत में जाएँ तो शायद ही ये शब्द किसी आदिवासी भाषा में मिले, लेकिन आदिवासी समुदायों और गैर आदिवासी समुदायों के संवादों से उभरने वाले शब्दों पर गौर करें तो आप पाएंगे कि ‘सरना’ शब्द यहीं कहीं से उत्पन्न हुआ है। ‘सरना’, सिर्फ एक शब्द और स्थल से इतर प्रकृति, और प्रकृति से इतर पूरे सौर मंडल को इंगित करता है जो फिलहाल एक पूजा स्थल के रूप में चिन्हित है, और वो बस प्रतीकात्मक है। आप चाहें तो पूरे सौर मंडल के बृहत् दर्शन को ‘सरना’ के उस छोटे से भू-भाग में समेट लें। शायद यही स्वच्छंदता और असीमितता ही है जिसकी वजह से आदिवासी और उनके पूर्वजों ने कभी भी सरना स्थल को घेरा लगाने की कोशिश नहीं की।
घेरा या सीमांकन करना प्राकृतिक दर्शन को सीमित करना है। सरना या प्राकृतिक दर्शन, स्वछंद और अंतहीन है। फ़िलहाल, ज़मीन की लूट इस कदर बढ़ी है कि ज़मीन के इस छोटे से टुकड़े को सहेजने के लिए घेरा-बंदी करनी पड़ रही है। हर मनुष्य किसी-न-किसी प्रकार से प्रकृति से, यानि ‘सरना’ से जुड़ा हुआ है, इससे कोई भी इंसान इनकार नहीं कर सकता। सांस लेने, पानी पीने से लेकर तमाम मानव जीवन की आवश्यक चीजें प्रकृति से ही पूर्ण होती है। इसे शब्दों और उस छोटे से सरना भू-भाग के परे समझने की ज़रूरत है। प्रतीकात्मक ‘सरना’ स्थल को सौर मंडल के बृहत् दर्शन के विशाल सोच के साथ समझने की ज़रूरत है। धरती, पहाड़, नदी, जंगल, चाँद-तारे, सूरज, गृह, उपग्रह, तथा संपूर्ण सौर मंडल प्रकृति के ही हिस्से हैं। वास्तव में, सौर मंडल मनुष्य की सोच से भी ज्यादा बृहत् है और इसे समझने में मनुष्यों की कितनी संतति लग गई हैं, अभी कितने और लगेंगे, या यह भी संभव है कि इसे पूर्ण रूप से समझना नामुमकिन है। ‘सरना’ को अन्य धर्मों और उनके धार्मिक ग्रंथों में विदित ईश्वरों के पैमाने में समझना लगभग असंभव है।
सरना या प्राकृतिक आस्था का प्रश्न और भी प्रगाढ़ हो जाता है जब पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन, वैश्विक उष्णता, और कोविड-19 से जूझ रहा है। ऐसे दौर में इसे सांविधानिक रूप से अंगीकार करना किसी भी देश के लिए गर्व की बात होनी चाहिए। वैज्ञानिक तथ्यों और वर्तमान में उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार प्राकृतिक सरना दर्शन ही मानव सभ्यता के आगे के अभ्युदय की रचना करेगा।
“सरना” आस्था और अध्यात्म विशिष्ट कैसे?
“सरना” को एक आदिवासी आस्था के अलग और विशिष्ट पहचान के रूप में देखा जाना चाहिए जो संविधान भी मानती है। अपने में वैशिष्ट्य लिए हुए औरों से अलग आस्था का प्रतीक है ‘सरना’। इसे प्रत्येक आदिवासी समुदाय भले अपने राज्य, अपने गाँव में अलग-अलग नाम से पुकार लें लेकिन फिलहाल राज्य, देश क्या पूरे विश्व के लिए ‘सरना’ उपयुक्त है। ये अपने आप में ‘धर्म’ कम और प्राकृतिक आस्था, परंपरा, पहचान और अध्यात्म का प्रतीक ज्यादा है। इसे मौजूदा धर्मों में निहित कर्मकांडों की तरह न देखा जाए, और न ही अन्य धर्मों में मौजूद कर्मकांडों वाले मसाले इसमें आयात किये जाएँ। जैसे – ‘धर्म गुरु’ का प्रचलन दूसरे धर्मों की देखा-देखी की नक़ल है, पहानों की अगुवाई करने वाला महापहान संभव है, लेकिन ‘धर्म गुरु’ जैसी कोई बात आदिवासी के पूर्वजों ने नहीं बताया है।
2011 में रोम में हुए विश्व धर्म सम्मलेन में भाग लेने के लिए मुकेश बिरुआ जी धर्म गुरु की तरह बुलाए ज़रूर गए थे, लेकिन वो सिर्फ ‘सरना’ आस्था और अध्यात्म के जानकार के रूप में गए थे, क्योंकि ‘बिरुआ’ जी न आध्यात्मिक रूप से चयनित, और न ही स्वघोषित धर्म गुरु हैं। हालाँकि, वर्तमान विश्व में फैले हुए धार्मिक रूप, रंग और गुरुओं की परंपरा को नकल करते हुए ‘सरना’ धर्म गुरु का इस्तेमाल सरना आस्था को न समझने वाले लोग करते रहे हैं। वास्तव में, ‘सरना’ प्रचलित धर्मों से अलग है जो कि साक्षात उपस्थित प्रकृति की उपासना को इंगित करता है, और तमाम ग्रंथों से परे प्रकृति को जीने की सीख देता है। दरअसल, ‘सरना’ नास्तिकता से ज्यादा नज़दीक है क्योंकि अन्य धर्मों में ‘ईश्वर’ के अस्तित्व की तरह ‘सरना’ आस्था, और अध्यात्म में नहीं है।
‘सरना’ या प्राकृतिक जीवन शैली को जीने वाले लोगों की पहचान के लिए विश्व के किसी भी संविधान में कोई खास जगह नहीं है, भारत में भी नहीं। पंथनिरपेक्षता ही एक शब्द है जो भारत के संविधान में आस्था की आज़ादी देता है। तो क्या, सरना को अन्य धर्मों की पंक्ति में खड़ा किया जाना चाहिए? वास्तव में पंक्ति में खड़ा करने वाली बात नहीं है और उस पंक्ति में ‘सरना’ को अंकित कर लेने भर से उसकी प्रकृति औरों की तरह नहीं हो जाती है, बल्कि आदिवासियों के आस्था और आध्यात्मिकता को एक मुकम्मल स्थान देने की बात है और आदिवासियों की भावना भी यही है।
“सरना” के साथ खास बात ये है की इसको दिल से अंगीकार करने वाले लोग या तो इसे आस्था के रूप में अपने दिलों में ज़िन्दा रखें, या जीवन दर्शन के रूप में, या जीवन के तरीके के रूप में, या धर्म के रूप में, या अध्यात्म के रूप में, या ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास किये बिना प्रकृति को विश्वास करने के रूप में। कहीं भी कोई दिक्कत नहीं है। वास्तव में, प्रकृति में आस्था और विश्वास रखने वाले विश्व के प्रथम मानव आदिवासी ही थे, और अभी भी हैं। “सरना” शब्द को आस्था और आदिवासियों के अध्यात्म के रूप में स्वीकार किए जाने में कहीं भी समस्या नजर नहीं आती है। फर्क सिर्फ इतना है की दूसरे राज्यों और इलाकों के आदिवासी समुदाय प्राकृतिक आस्था को अपने भाषा के नाम से जानते हैं।
बहुधा जानकारी के अभाव में काफी सारे आदिवासी समुदाय अपने कबीले के नाम पर ही धर्म और आस्था का नाम बोल देते हैं, और सरकारी दस्तावेज़ों में भी लिखा लेते हैं, जैसे – गोंडी धर्म, भीली धर्म, मुंडा धर्म, संताली धर्म, खड़िया धर्म इत्यादि। वास्तव में, दूसरे आदिवासी भाषाओँ में ‘सरना’ के समानार्थक शब्द ही मिलेंगे, इसलिए भाषाई दीवारों के परे शब्दों के महत्त्व, दर्शन और उसके भाव को समझना ज़रूरी है। ‘सरना’ की मांग के पीछे एक बड़ी वजह है प्राकृतिक आदिवासी का अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष, क्योंकि इनका अस्तित्व काफी कुछ इनके आस्था और आध्यात्मिक पहचान पर निर्भर करता है। ‘सरना’ मानने वालों का आस्था और आध्यात्मिक जगत उनके आंदोलनों से विदित है। ये राजनीतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक जागरण की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। साथ ही, दूसरे धर्मों के नाम सरकारी दस्तावेज़ों में अंकित हैं, तो आदिवासी समुदाय भी अपनी पहचान को लेकर इन सरकारी दस्तावेज़ों, यथा – जनगणना में अंकित कराना चाहता है।
सरना ‘स्थल’ या ‘धर्म’, या आस्था और अध्यात्म
कुछ लोगों का मानना है की सरना एक ‘पूजा स्थल’ है, इसलिए धर्म नहीं हो सकता है। अगर ऐसा है तो सिंधु नदी के इस पार रहने वालों को हिन्दू की संज्ञा क्यों दी गयी? ये नामकरण के बाद ‘हिन्दू’ को धर्म के रूप में बहुतायत लोगों ने क्यों स्वीकार कर लिया? धर्म, आस्था, अध्यात्म मनुष्य के लिए ही होता है और मनुष्य धरती (स्थल) पर ही रहता है, इसलिए शुरुआत में इसे स्थल की तरह समझने के साथ-साथ आस्था और अध्यात्म के रूप में देखना, और नाम करण करने में कोई समस्या नहीं है। ‘सरना’ शब्द के जड़ पर जाने और उसके भाव को समझना जरूरी है, उसके नाम पर धर्म, आस्था और अध्यात्म नहीं हो सकता, ये तर्कसंगत नहीं है।
‘सरना’, एक प्रतिनिधि नाम है और यह आदिवासियों को स्वीकार्य है। सूक्षम्ता से देखने पर आपको पता चलेगा की ‘सरना’ को संताल में ‘जाहेर’, हो लोगों के बीच ‘देशाउली’, और उरांव लोगों के बीच में ‘चाला टोंका’ कहते हैं। साथ ही, ‘सरना’ किसी एक आदिवासी समुदाय की विरासत है, ऐसा बिल्कुल नहीं है। ‘सरना आस्था’ और अध्यात्म को सिर्फ आदिवासी समुदाय ही नहीं बल्कि गैर आदिवासी जो कि सदियों से आदिवासियों के साथ रह रहे हैं ने भी समय के साथ सहर्ष स्वीकार किया है।
आदिवासी हर थोपी हुई चीज को सहज रूप से स्वीकार नहीं करता है, बल्कि सोचता है, परखता है फिर निर्णय पर पहुँचता है। ‘सरना’ को अन्य धर्मों की पंक्ति में बिल्कुल नहीं खड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि ये अन्य धर्मों से अलग है। ये धर्म कम, और आस्था और अध्यात्म का प्रतीक ज्यादा है। लेकिन वर्तमान में प्रचलित धर्मों के कर्मकाण्ड की भांति सरना को देखने से इसके पीछे का आस्था और अध्यात्म का दर्शन नहीं समझ आएगा। कमोबेश, शराबियों के देश में दूध की महत्ता बताने के लिए ‘सरना’ मानने वाले प्रयास कर रहे हैं, और जब तक समझ में नहीं आए तब तक कोशिश करते रहना पड़ेगा।
‘आदिवासी धर्म’ क्यों नहीं?
‘आदिवासी धर्म’ में ‘आदिवासी’ शब्द नस्ल (race) को इंगित करता है न कि आस्था को, इसलिए आदिवासी आस्था और अध्यात्म के लिए ‘सरना’ से बेहतर और कोई दूसरा शब्द नजर नहीं आता है। भाषाओँ के जंजाल में अगर आप घुसेंगे तो पाएंगे की ‘आदिवासी शब्द’ खुद भी आदिवासी भाषाओँ से नहीं निकला है, लेकिन इस शब्द का इस्तेमाल आदिवासी धड़ल्ले से करते हैं और जुड़ाव भी महसूस करते हैं, वहीं उत्तर-पूर्व के आदिवासी ‘ट्राइब’ शब्द से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं न कि ‘आदिवासी’ शब्द से। जब ‘आदिवासी’ और ‘ट्राइब’ शब्द में ही इतने अलग-अलग विचार हैं तो, सिर्फ ‘आदिवासी धर्म’ सर्वग्राह्य होगा वो संभव नहीं है और वैसे भी आस्था और अध्यात्म के नाम पर ‘आदिवासी धर्म’ तार्किक नहीं है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि, “आदिवासी धर्म” अगर धर्म के रूप में सांविधानिक रूप से नामाँकित कर लिया जाता है तो क्या गैर आदिवासी इसे धर्म के रूप में स्वीकार कर पाएंगे? अगर गैर आदिवासी जैसे – ‘क चौबे’ जी और ‘ख पाण्डेय’ जी आदिवासी धर्म से प्रभावित होकर उसे धर्म के रूप में स्वीकार करना चाहें तो क्या धर्म के खाली जगह में ‘आदिवासी’ लिख पाएंगे? अगर ‘चौबे जी’ और ‘पाण्डेय जी’ अपना धर्म के कॉलम में ‘आदिवासी’ लिखते हैं, तो इसके लम्बे दुष्परिणाम का अंदाजा आप लगा सकते हैं, क्योंकि पंथनिरपेक्ष देश में आप “आदिवासी धर्म” लिखने के लिए किसी को मना नहीं कर सकते हैं। ये बात साफ़ है कि, आपकी विशिष्ट पहचान खतरे में आ जाएगी और आप भी तथाकथित मुख्यधारा में प्रवाहित हो जाएंगे।
अगर ‘अनुसूचित जनजाति’ के पहचान के बदले आप ‘आदिवासी’ पहचान की मांग करते हैं तो कुछ बात बनती है। जयपाल सिंह मुंडा जी ने सांविधानिक बहस में अपनी बात रखी थी की हमें आदिवासी (adivasi) कहा जाए, जिसे बाद में अंबेडकर जी ने यह कहकर नकार दिया की वैधानिक रूप से ये शब्द सही नहीं होगा। अपने लिए अनुसूचित जनजाति के बदले ‘आदिवासी (Aborigin)’ शब्द की संविधान में स्वीकारोक्ति की मांग करना दूसरी समस्या है और इसे ‘सरना’ के विकल्प के रूप में देखना बिल्कुल अतार्किक है। आदिवासी, इंडिजिनस, अबोरिजिन ये अलग मसला है, इसकी मांग ज़रूर करें, लेकिन सरना के साथ घाल-मेल करना अज्ञानता है या विशुद्ध राजनीतिक व्यवसाय है।
गोंडी/ भीली इत्यादि क्यों नहीं?
गोंडी शब्द खुद भी गोंडी भाषा का नहीं है और ये एक खास समुदाय को इंगित करती है, उसी प्रकार भीली धर्म भी एक खास समुदाय को इंगित करती है न कि धर्म को और न ही आस्था को। कुल मिलाकर ये दोनों भी प्राकृतिक आस्था को मानने वाले लोग हैं और सूचित भी करते हैं, भले ही ये शब्द किसी खास समुदाय की ओर इशारा कर रहे हों। समुदाय को इंगित करने के बावजूद गोंडी, भीली, और सरना आस्था को लगभग एक समान ही समझा जा सकता है।
अरुणाचल प्रदेश और असम के पूर्वी हिस्से में प्राकृतिक आस्था के लिए दोनी-पोलो शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। दोनी-पोलो ज़रूर ऐसा शब्द है जिसे हम ‘सरना’ के समानार्थक समझ सकते हैं। वैसे ‘सरना’ के जगह में ‘दोनी-पोलो’ लिखने की ज़रूरत पड़े तो व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई समस्या नहीं है, क्योंकि ये ‘सरना’ के ही समानार्थक शब्द हैं। दीगर बात ये है कि 2011 की जनगणना में लगभग 49.58 लाख लोगों ने ‘सरना’ लिखा है जो की ‘जैन’ 44.51 लाख से कहीं ज्यादा है। ऐसी स्थिति में एक बात तो साफ़ है कि पूरे देश में 49.58 लाख लोगों को एक सूचीबद्ध पहचान/ कॉलम देने में हर्ज क्या है? दूसरी बात, 2011 की जनगणना में ‘अन्य धर्म और अनुनय (Other religions and persuasions)’ में लगभग 80 से ज्यादा किस्म के धर्मों का जिक्र मिलता है और इसमें भी ज्यादातर प्रकृति पूजक ही हैं। यहाँ फेर बस शब्दों का ही है, जैसे सब कह रहे हैं कि मेरे शब्दों को स्वीकार कर लो, और कुछ नहीं। ऐसी स्थिति में, राज्य और देश की सरकार को आदिवासी जनता की मांग का ध्यान रखना चाहिए तथा बहुमत और भावना का सम्मान करते हुए अंततः ‘सरना’ को अंतिम रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए।
जनगणना रजिस्ट्रार द्वारा दो बातों का हवाला देकर ‘सरना’ को मान्यता देने से इनकार करता रहा है – पहला, आदिवासी समुदायों में आस्था और अध्यात्म की मान्यता की मांग में एकरूपता में कमी, दूसरा अगर ‘सरना’ को मान्यता दिया गया तो बाकी ‘धर्म’ को लेकर भी मांग उठने लगेंगी। दरअसल, ये बहाना मात्र है। वैसे, 2020 में पूरे भारत की जनसंख्या लगभग 135 करोड़ है। जवान युवा वर्ग जो श्रम शक्ति का हिस्सा है लगभग 45-50 करोड़ की है। अगर 45-50 करोड़ में चेतनशील लोगों की संख्या लगभग 1 करोड़ भी मान लें तो आस्था और धर्म में भिन्नता भी लगभग 1 करोड़ की होगी। ऐसी स्थिति में सांविधानिक रूप से हर एक व्यक्ति को अपनी आस्था और धर्म को सरकारी दस्तावेज़ों में अंकित कराने का हक़ है। बहुमत की सरकार बहुमत वाले धर्मों, आस्थाओं और मांगों को वोट बैंक के हिसाब से अधिकार देती है, ये वर्तमान लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी में से एक है।
खैर, हम कहना चाहते हैं कि 2011 की जनगणना में लगभग 80 किस्म के अलग-अलग धर्म अंकित हैं जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, और बौद्ध पहले से ही सरकारी दस्तावेज़ों में अंकित हैं। अब, 135 करोड़ लोगों की देखभाल करने, उनकी गणना करने और आधार कार्ड देने वाली सरकार को लगभग 80 प्रकार के आस्थाओं को सरकारी दस्तावेज़ों में जगह और संरक्षण देने में हर्ज और तकलीफ़ क्यों होनी चाहिए? आखिर है तो पंथनिरपेक्ष देश? बात रही ‘सरना’ की, तो यह जैन के बाद सबसे ज्यादा संख्या में दर्ज होने वाली आस्था की पहचान है। ‘अन्य धर्म और अनुनय’ लिखने वालों की संख्या भी ‘जैन’ धर्म से अधिक है। ‘सरना’ के बाद सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले शब्द हैं — सारि, गोंडी, दोनी-पोलो, सानामाही, खासी, नियामत्रे, जोरोस्ट्रियन इत्यादि। जोरोस्ट्रियन के बाद क्रम में आने वाला शब्द है ‘आदिवासी धर्म’, जो की राम दयाल मुंडा जी द्वारा बताए गए ‘आदि-धर्म’ का पर्याय हो सकता है, लेकिन अभी लोगों का झुकाव ‘सरना’ को लेकर है इसलिए तर्क का तराज़ू ‘सरना’ के तरफ है, अन्यथा ‘आदि धर्म’ से भी कोई खास दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
निष्कर्ष
1871-72 से लेकर 1941 तक हर दस साल के शुरुआती वर्ष में होने वाले जनगणना के अनुसार आदिवासियों को क्रमश – अबोरिजिन, अबोरिजिनल, एनिमिस्ट, ट्राइबल रिलिजन, ट्राइब कहा गया है। मुख्यधारा में जोड़ने के नाम पर आदिवासियों को वर्चस्व-वादियों द्वारा हिन्दू और ईसाई बनाया जाता रहा है और स्वतंत्र भारत के 1951 की जनगणना में आदिवासियों को एक तमगा दिया जाता है ‘शेड्यूल्ड ट्राइब’ (अनुसूचित जनजाति) का। दरअसल, आदिवासियों के मूल पहचान को चिन्हित कर विस्तृत मानव वैज्ञानिक खोज के साथ किसी सरकार ने भी उन्हें पृथक नाम देने की कोशिश नहीं की। 1931 में ‘आदिवासी धर्म’ एच. जे. हटन ने दिया था, बाद के वर्षों में आदिवासियों के ‘धर्म’ के मामले में वेरियर एल्विन का नाम लिया जा सकता है। ऐसा लगता है, बिना किसी ऐतिहासिक तथ्य और मानव शास्त्र के समझ के बिना ही नाम रख दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र ने भी अपने घोषणा पत्र में कहा है कि – “आदिवासी लोगों के पास … सांस्कृतिक, बौद्धिक, धार्मिक और आध्यात्मिक संपत्ति की पुनर्स्थापना का अधिकार है, जो उनकी स्वतंत्र और सूचित सहमति के बिना, या उनके क़ानूनों, परंपराओं और रीति-रिवाज़ों का उल्लंघन करते हैं।” (“Indigenous peoples have … the right to the restitution of cultural, intellectual, religious and spiritual property taken without their free and informed consent or in violation of their laws, traditions and customs.”). ऐसी स्थिति में उल्लंघन करने वालों को नुकसान भरपाई (compensation) देना होता है। ऐतिहासिक रूप से अन्य विस्तारवादी धर्म अपने वर्चस्व की लड़ाई आदिवासियों के मैदान में लाते रहे हैं और उन्हें अपने हिस्से का भीड़ बताते रहे हैं। इस वर्चस्व की लड़ाई में आदिवासियों के पृथक पहचान की हत्या होती रही है, और ये सिर्फ राजनीतिक भीड़ में गिने जाते रहे हैं। इनके आस्था को पृथक पहचान न मिले इसके लिए वर्चस्व और विस्तारवादी राजनीतिक धर्म अलग-अलग रणनीति के तहत हर संभव कोशिश करते रहे हैं।
फिलहाल झारखंड सरकार ने विधानसभा से ‘सरना आदिवासी’ की आस्था और धर्म की पहचान को सहमति दी है। इनका प्रयास सराहनीय है, लेकिन ये भी तार्किक नहीं है। नस्लीय (रेसियल) और आस्था की पहचान को विस्तृत रूप से समझने वालों से सरकार को परामर्श लेना चाहिए, साथ ही ‘सरना’ की पहचान के प्रयास में झारखंड के अलावा अन्य राज्य के नीति निर्धारकों को भी आगे आना चाहिए। बात रही आदिवासी एकता के लिए ‘आदिवासी धर्म’ मांगने की, तो ये भी तार्किक नहीं है। अब तक सभी प्रकार के ट्राइब के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ का प्रयोग होता आ रहा है तो कौन सी एकता की मिसाल आपने पेश कर लिए हैं?
अपने नस्लीय पहचान के लिए ‘आदिवासी/ इंडीजिनस/ अबोरिजिन’ के लिए आदिवासी समुदाय संघर्ष कर सकते हैं, लेकिन आस्था/अध्यात्म और नस्ल के अंतर को सूक्ष्म तरीके से देखने और समझने की ज़रूरत है। दूसरी ओर, अलग-अलग आदिवासी समुदायों के रूढ़िवादी परम्पराएं भी हैं और उनका व्यक्तिगत अस्तित्व भी महत्वपूर्ण हैं, इसलिए ‘सरना’ को सबों पर नहीं थोपा जा सकता। वास्तव में ‘सरना’ की तरह दूसरे आदिवासी समुदायों के द्वारा मांग की जाने वाली आस्था और अध्यात्म, जैसे – कोया पुनेम, भीली (कोई खास प्राकृतिक नाम बेहतर होगा), दोनी-पोलो इत्यादि को भी पृथक पहचान मिलना चाहिए।
फीचर्ड फोटो आभार: श्याम मांझी

चूंकि यह लेख अभी-अभी मैं पढ़ रहा हूं इसलिए समुचित समीक्षा तो नहीं दे पाऊंगा मगर शॉर्ट रीडिंग से इतना मालूम हुआ कि जितना मैंने इस मुद्दे को लेकर आशंका एंव अपेक्षा रखी थी, वही बात सामने आयी है !
बहरहाल मुझे पूरा विश्वास है जो भी लिखा है गहन शोध के बाद ही यह सब पढ़ना संभव हो रहा है !
तब तक के लिए मैं इसे पढ़ना जारी रखता हूं !
सरना जोहार
दिशोम जोहार
हिरले जोहार
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