लाल प्रकाश राही:
पेट की भूख, रोटी का व्यास
खींच ले गया उसे परदेश
वह मज़दूर था, देश का भाग्य विधाता थोड़े था।
कभी फुटपाथ तो कभी
गंदे नाले के किनारे बसी गंदी झुग्गियाँ
यही थे उसके लिए रात के ठांव
दिन में लोहा गलाने की भठ्ठियों में
गलाया उसने अपना हांड-मास
तब जाकर बनी कहीं रेल की पटरियाँ
पर उसे क्या पता था?
कि उसी रेल की पटरियों पर, भूख की परिधि को भरने के लिए, रोटी के व्यास की तलाश में
वही पटरियाँ उसे ही सदा के लिये निगल जायेगी
वह मज़दूर था।
उसे फिक्र थी अपने बच्चों की, माँ बाप की
उसे फिक्र थी अपने पड़ोसियों की, देश-समाज की,
पेट की भूख, रोटी का व्यास
खीच ले गया उसे परदेश
वह मज़दूर था।
उसने खड़ी की अपने खून-पसीने के गारे से
गगन चुंबी इमारतें, आलीशान महल
उसने सजाए जगमगाती लाइटों से बड़े-बड़े शहर
फिर भी वह तमाम उम्र सोता रहा अँधेरी झोपड़ियों में
क्योंकि वह मज़दूर था, देश का भाग्य विधाता थोड़े था।
उसने बिछाए सड़कों पर गर्म पिघला हुआ डामर
उन सड़कों पर दौड़ने के लिए बनाए
चमचमाती कारें बड़ी-बड़ी लारियाँ
फिर भी सैकड़ों मील पैदल चलने की
विवशता है क्योंकि?
वह मजदूर था, देश का भाग्य विधाता थोड़े है।
फीचर्ड फोटो आभार: wikimedia

बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति!